पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/२२८

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दलमन' देसर ५ (किसी बात का ) अन्यथा होना । पौर का और होना । प्रभावित होना । हृदय में प्रार्थना या कहने सुनने का प्रभाव ठोक न ठहरना । स्खलित होना । जैसे, हमारी कही हुई बात अनुभव करना। किसी के अनुकूल कुछ प्रवृत्त होना। किसी कभी नहीं टस सकती। ६. (किसी मादेश या अनुरोध का ) की बात मानने को कुछ तैयार होना । जैसे,---उससे इतना न मावा वारा। उल्लषित होना । पुरा न पिया पाना । कहा सुना पर वह ऐसा कठोर हृदय है कि परा भोर टसका। जैसे,-बादशाइ का हुक्म कहीं टख सकता है। ७. समय ४. पककर गदराया। गुदार होना ।। ५ रोमा पोना । व्यतीत होना। बीतना। पांसू बहाना । ६, घसमना । बलना। जाना । उ०-किसी टलमन'- [हिं० टलमलाना हिलता इमा। कपिठ । उ०-बोटे फो भी मापके टसने का पूर्ण विश्वासपा -प्रेमपन, युग दल राक्षस पद तस पृथ्यो टलमल !-पपरा, पृ०३८ । मा०२, १० १३६ ॥ टलमल'-कि० ० { अनु० ] करार दान के साथ। टसकाना-क्रि० स० हि टसरूना का प्रेम ] किसी भारी टलमलाना -क्रि० प्र० [अनु.] हिलना दुलना । टलमल होना। चीज को जगह से हटाना । खिसकाना । सरकाना। टलह -वि० दिरा०] [वि०सी० टल हो ] खोटा। खराब । दूषित। टसना-क्रि. भ. [तु० टस ] कपड़े मादि का फटना। मसक जसे, टबहा रुपया, टवही चादी। जाना । दरकना । टलाटली-सहा श्री.हि. २० 'टालटूल'। उ.-पति रवि की संयो०क्रि०-जान । दतियाँ कहो, सखो लखी मुसका। केक सबै टलाटली, अली टसर-सबा पु. [सं०गर] १ एक प्रकार का कडा पोर मोटा पली सुषु पाई 1-विहारी र०, दो० २४ । रेशम जो बमाल के जंगलों में होता है। टल्ला-वश पुं० [मनु०] धकका । प्राघात । ठोकर । उ.---दो बस विशेष-छोटा नागपुर, मयूर जज, बालेश्वर, बीरभूम, मेदिनीपुर उस एक टल्ले से ही हो जाए जीवन कल्याण ।-~-मपलक, मादि के जगलों में सात् बहेला, प्रियार, कुसुम, बेर इत्यादि पृ. २६ । पक्षी पर टसर रेशम के कीरों की तरह महा०-टल्ले मारता-ठोकर खाते फिरना। मारा मारा इन कीड़ों की रक्षा के लिये प्रधिक यन नहीं करना पड़ता। फिरना । इधर से उधर निष्फल घूमना। पालनेवालो को जगत में शप से मार होनेवाले कीडो को टल्ली-शा पु. [देश०] १. एक प्रकार का मांस । दे० 'टोलो'। केवल चीटियों मो-विडियो प्रादि से बचाना भर पड़ता है। +२ प्राधार: 1.-चद सूर्य दुइ टल्ली लावै। हि पालनेवाले इनको वृद्धि के लिये कोश से निकले हुए कीर्णो विपि जिया खिसनि न पारे-प्राण, पु०८। को जगल में छोड़ पाठे है जहाँ अपने जोड़े कर वे अपनी लेनपीसी -सना सी. [ हि. टल्ला+फा० नवोसी] दे० 'टिल्ले- वृद्धि करते हैं। मामा की हे पेठ की पत्तियों पर सरसों के ऐसे नवीसी'। पर दिपट चिपटे पडे देते हैं जो पत्तियों में चिपक जाते है। टल्लोज-सज्ञा पुं० [सं० पल्लव ?] हरी टहनी । २ पल्लव । एक कौडा तीद पार दिन के भीतर दो ढाई सौ तक महे देता है। मंडे देवर को मा जाते हैं। दस बारह दिनों दवर्ग-प्रश पुं० [सं०] ट ठ २ढण--इन पांच वर्षों का समूह । मे न मों से दी मा ढोन डे माकार के छोटे छोटे की टवाई-सचा खोसा ग्रटन (= घुमना)] मावारगी । व्यर्थ घूमना। निकल पाते हूँ और तियर्या चाट चाटकर बहुत जल्दी बढ़ २०-फेर रहलो पुर करत टवाई। मान्यो नहि दो जननि जाते हैं। इस रकमे ये सीन चार बार कलेवर या पोली सिखाई।-रघुराज (शब्द०)। बदलते है। अधिक से अधिक पद्रह दिन में ये श्रीडे अपनी टस--सका श्री.अनु] १ किसी भारी चौर के खिसकने का पूरी बाढ़ को पहप जाते हैं। उस समय इनका माकार, शब्द । टसकने का शन्द ! १० अगुल तर होता । पटमैले, भूरे, नीले, पीले कई रगों महा०--टस से मस न होना = (१) किसी भारी पीज का जरा के होते है। पूरी ताद को पहुंचने पर ये कीडे कोण बनाने में सी भी जगह न छोडना । कुछ मी न खिसकना । (२) किसी लग पाते हैं और अपने गुह से एक प्रकार की लार निकालते कडी वस्तु का (पकाने या पनाचे प्रादि) बरा सी भी न हैं जो सूखकर सूत के रूप में हो जाती है। सूत निकालते हुए गलना। घूम घूमकर ये प्राने पिये एक कोच तैयार कर लेते है और ३ कहने सुनने का कुछ भी प्रभाव न पहना। किसी के उसी में बद हो जाते है। ये कोष प्रसाकार होते हैं। बा मनुकुम कुछ भी प्रवृत्त न होना। ४ कपरे धादिके फटने कोच-१३ प्रल तक ला होता है। कोश के भीतर तीन हा शब्द । मसकने का शब्द । चार किलो तक सूत विकालकर ये कोई मुरवे की तरह युप- टस- सशसी-हि- टसरुना ] रह रहकर उठनेवाली पीस। चाप पर जाते है। पालामाले कोशों के पफने पर उन्हे सक । टोस । पसक । इकट्ठा कर लेते हैं, क्योंकि उन्हें भय रहता है कि पर विकषने इसकना-कि.प० [सं० स (केलना)+करण] १. किसी मारी पर कीड़े सूत को कुतर कुतरकर निकल जायंगे, पर उड़ने पीज का पगह से हटना । जगह से हिलवा। खिसकना । के पहले हो न कोशों को क्षार के साथ गरम पानी में जैसे,-यह पत्थर जरा सा भी इधर उधर नही टसकता । उबालकर के कीड़ो को मार डालते हैं। जिन कोशों को २. रह रहकर दर्द करता। टीस मारना । कसकता। ३. उबालना नहीं पड़ता, उनका टसर सबसे पन्छा होता है।