पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भाना १६६८ जऊ - जभाना-क्रि० स०सं० जृम्भण] जंभाई लेना। बार हरी काटी जाती है और प्रत में अन्न के लिये छोड जॅवाई-सधा पुं० [सं० जामातृ, प्रा. जामाउ, हि० जमाई ] दी जाती है। चौथी बार इसमे प्राय हाथ भर या इससे कुछ जामाता । दामाद । कम लबी वालें लगती हैं। इन्हीं बालो में जई के दाने लगते हैं। बोने के प्राय साढ़े तीन या चार महीने बाद इसकी जबारा-संच पुं० [सं० यवाप्र या हिं. जौ] १ दे० 'जवारा'। २ फसल तैयार हो जाती है। फसल पकने पर पीली हो जाती नवरात्री १०-नेवरात को लोग जंवारा भी कहते है।- शुक्ल प्रमि०प्र० (सा०), पृ० १३२।। है और पूरी तरह पकने से कुछ पहले ही काट सी जाती है, क्योंकि पधिक पकने से इसके दाने झड जाते हैं और ठल ज-सख . [सं०] १ मृत्युजय । २ जन्म । ३ पिता। ४ भी निकम्मे हो जाते हैं। एक बीघे मे प्राय बारह तेरह मन विष्णु। २. विष । ६ भुक्ति । ७ तेज। ८ पिशाच । ६. मार और पठारह मन डठल होते हैं। इसके लिये दोमट भूमि वैप। १.छंदशास्त्रानुसार एक गण जो तीन प्रक्षरों का होता अनी होती है और मधिक सिंचाई की प्रावश्यकता पड़ती है। मक्खन है। इस देश में जई बहुधा घोड़ों पादि को ही खिलाई जाती विशेष-सळे भादि पौर प्रत के वर्ण लघु और मध्य का वर्ण है, पर जिन देशों मे गेहूँ, जौ आदि मच्छे पत्न नहीं होते सुरु होता है (151)। जैसे, महेश, रमेश, सूरेश आदि। इस वहाँ इसके पाटेकी रोटियां भी बनती हैं। इसके हरे डठन का देवता साप पौर फल रोग माना गया है। गेहूँ और जौ के भूसे से अधिक पोषक होते है पौर गौएँ, मैसें ज-वि०१.वेबवाम् । वेगित । तेज । २. जीतनेवाला । जेता । पौर घोरेपादि सम्हें बचाव से खाते है। ज:--प्रत्व उत्पन्न । वात । जैसे,—देशज, पित्तज, वातज, प्रादि । २ जौ का छोटा भकुर । विशेष-बह प्रत्यय प्राय सत्पुरुष समास के पदों के मत में माता विशेष-हिंदुमों में पाहो मवराम मे देदी की स्थापना के साथ है। पंचमी सत्पुरुष मादि में पचम्यत पर्दो की विभक्ति लुम हो पोडे से जो भी घोए जाते हैं। प्रप्टमी या नवमी के दिन में पाठी, वसे, पावज, द्विज हत्यादि। पर सप्तमी तत्पुरुष मकुर उतार लिए जाते हैं और माहाण नन्हें लेकर भगव- में 'पाट 'घर', 'काल' और इन चार शव्यों के स्वरूप अपने यजमानों की भेंट करते हैं। उन्हीं प्रकरों को अतिरिक्त, चहाँ विभक्ति एनी रहती है (जैसे, प्राषिज, बई कहते है। इस मयं में इनके साथ 'ना' 'खोसना' प्रादि। शरदिन, कालेज, विषिज) शेष स्थलों में विभक्ति का लोप क्रियामो का भी प्रयोग होता है। मिवक्षिस होता है, जैसे, मनसिज, मनोज, सरसिज, सरोज मुहा०-जई सालना-मकुर निकालने लिये किसी अन्न को इत्यादि। भिगोना या तर स्थान मे रखना। जई लेना--किसी अन्न जल-अध्य. पादपूर्ति के लिये प्रयुक्त । २०-चंद्र सूर्य का गम को इस बात की परीक्षा के लिये बोना कि वह अंकुरित होगा नहीं जहाँ व दर्शन पावै दास । -रामानद० पृ०१०। कि नहीं। जैसे,--धान की बई लेना, गेहूँ की बई लेना, जलि-कि. वि० [सं० यत्र] दे॰ 'जहाँ"। उ०-वालू ढोला श्रादि। देसखट, मई पाणी कूवेण ।-ढोला०, १.६५७ । ४. उन फलो की पतिया या फली जिनमें बतिया के साथ फूल जडg+- बी-1 संजय, हि० ] दे० 'जय'। 10---निय भी लगा रहता है। जैसे, स्वीरे को जई, कुम्हडे की जई। मासा पप्पई, साहस कपर, बहसरा बह पाण्डीधा 1-फीति०, उ०-(क) सख घरजि तरजिए सरजनी कुम्हिलेहूँ कुम्हढे की गई है।-तुलसी (शब्द०)। जइस+-वि० [सं० यारश] [अन्य रूप अइसन, जइसे] दे० 'जैसा । क्रि० प्र०-निकलना । -लगमा। उ०-वचन सुपत्र मुकुल 3.-(क) गए मृपप्ति हसन की पाती। ता मध्ये उन जइस प्रवलोकनि, गुननिधि पहप मई। परस परम अनुराग सीषि मनाती।-बीर सा०, पृ० ६५ । (ख) बेघि सरोरुह ऊपर मुख, लगी प्रमोद जई।-सूर०,१११७६२ । देखम बासन इतिम चवा ।-विद्यापति, पु० २४। (ग) जई-वि० [सं० जयिन्, प्रा. जई] दे० 'जयो' । सुनात रस कण पापए पीत । जइसे कुरदिनी सुनए सगीत । -विद्यापति०, पृ. ४०९। जईफ-वि० [म. जईफ़] [वि० स्त्री० जईफा] बुढा । धूद्ध । जई-बाबी. [सं० यव, प्रा. जय, हि. बौ] १ जो की जाति म जईफी-पका स्त्री० [फा० उईफो ] बुढापा । घुद्धावस्था। उ०- ज का एक मन्न। जबानी का कमाया अईफो में काम पायगा।-मीनिवास विशेष-इसका पौषा जौ के पौधे से बहुत मिलता जुलता है ग्र०, पृ० ३४ और जौ के पौधे से अधिक बढता है। जौ, गेहूँ मादि की जन-सज्ञा स्त्री० [सं० यमुना] दे॰ 'जमुना' 1 30-सब पिरथमी ज तरह यह अन्न भी वर्ग के अत मे बोया जाता है। बोने के प्रसीसह, जोरि गरि के हाय । गाग जउँन जो लहि जल, प्राय' एक महीने बाद इसके हरे इठल काट लिए जाते हैं तौ लहि अम्मर माय।-जायसी (गुप्त), पृ० १३० जो पशुर्मों के चारे काम पाते हैं। काटने के बाद हठल जउवा-सया पुं० दिश०] एक तरह का रोगफीट । १०-अउवा फिर बढ़ते हैं और थोडे ही दिनो में फिर काटने के योग्य नारू दुखित रोग !-दरिया वानी, पृ. ५०। हो जाते हैं। इस प्रकार जई की फसल तीन महीने में तीन जऊ -क्रि० वि० [ मे० यद्यपि ] जो। अगर । यदपि । यद्यपि ।