पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/२६

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नकंद १६६६ जन उ.---धन तन पानिप को जक, छमत रहे दिन राति। तक जकन-सहा पुं० [अ० जान ] ठही। ठोठी। उ०-जब से चाहा ललन लोयननि की, नैसुक प्यास न जाति ।---स० सप्तक, है तेरा चाहे जकन, पन चश्मो से मेरे जारी है। कविता पु० २४७ । को०, भा० ४, पृ. २१ ॥ जफंद -सहा श्री० [फा० जनव ] छलाँग । उछाल । चौकड़ी। जकना-कि.म० [हि छक या पकपकाना अपवा देश॰] [वि० जकंदना -क्रि० स० [हिं० जकद +ना (प्रत्य॰)] १. कूदना । षकित] अचमे में पाना। भौचक्का होना । चकपकाना । उछलना । १०-सजोम जमदत जात तुरग । चढ़े रन सूरनि उ०--(क) तकि तकि पहूँ पोर जकि सी रही पकि, बकि रग उमग ।-हम्मीर०, पृ०५.। २ टूट पड़ना । १०- बकि उठ छकि छैल की लगन में !-दीनदयालु (शब्द०)। जमन जोर करि घाइया तब भरत जकदे। मानो राहु सपट्टिया (ख) तरु दोउ घरनि गिरे भहराया• 'कोउ रहे पाकाश भन्छन नू चदे।-सूदन (शब्द०)। देखत, कोस रहे सिर नाइ। घरिक लौं जकि रहे तह तह देह जक-सञ्ज्ञा पुं० [सं० यक्ष, प्रा० जक्स] १ धनरक्षक भूत प्रेत । यक्ष । गति बिसराइ । —सूर०, १०.३८७ । (ग) दूत दबकाने, २ कजूस मादमी। चित्रगुप्त हू चकाने मो जकाने जमलाल पापपुंज लुज स्वै जक-समा बी० [हिं० झक] [ वि० भक्की ] १ जिद्द । हठ। गए। पद्माकर ग्र०, पृ० २५६ । अड़। १०-हुती जिती जग मैं मधमाई सो मैं सबै करी। जकर-सष्ठा पुं० [अ० जकर ] शिश्न । पुरुषंद्रिय । २. नर। मघम समूह उधारन कारन तुम जिय जक पकरी1-सूर., ३. फौलाद [ फो०]। २१३.। जकरनाल-क्रि० स० [हिं जकडना ] दे० 'जकहना'। 10-- क्रि०प्र०-पकड़ना। श्यामा तेरे नेह की डोर बकरि जिय मोर।-श्यामा०, २. घुन । रट । ज०-जदपि नाहि नाहि नहीं बदन लगी जक पू० १७१। जाति । तदपि मौह हासी भरिनु, हाँसी पैठहराति ।-बिहारी . जकरियासमा पुं० [अ० जकरिया ] एक यहूदी पैगवर या भविष्य- (शब्द०)। वक्ता जो मारे से चीरे गए थे। उ०-योहन पकरिया भविष्यवक्ता का पुत्र था।-कबीर म०, पृ० २६५ । जि०प्र०-लगना । जकात'-सज्ञा स्त्री० [५० पाकात ] दान । खैरात । मुहा०-जक बंधना=रट लगना। घुन लगना । उ०-तव पद चमक चकचाने 'पद्रवर चख चितवत एफ टक जक बंध गई चितव न मा क्रि०प्र०-देना ।—करना ।-पाना । है। चरण (शब्द०)। जकात-[म. सका(= वृद्धि ?)] कर । महसूल । उ०-(क) सस जक-सद्या स्त्री. [फा० जक] १ हार। पराजय । १०-यही हैं समय उडीसा में कोरियों के द्वारा क्रय विक्रय होता था। मकसर कजा के जिनसे फरिश्ते भी, जक उठा चुके हैं।- यहाँ की मुख्य प्राय जमीदारी भौर जकात से थी।-शुक्ल ___ भारतेंदु प्र., भा॰ २, पृ० ८५७ । २ हानि । घाटा । टोटा। अभि०० (इति.), पृ० ११५।। क्रि०प्र०--उठाना ।-पाना । जकाती-सज्ञा पुं० [हिं० जकात ] दे० 'जपाती'। ३. पराभव । लज्जा । ४ डर । खौफ 1 भय । जति वि० [हिं० चकित ] चकित । विस्मित । स्तमित । उ०-हरिमुख किधी मोहिनी माई। जक-सबा श्री० [म. जका] सुख । शाति । चैन । उ०-सुख "सूरदास प्रभु पदन बिलोकत जकित थकित चित प्रगत म जाई।- चाई पर उद्यमी जक न परे दिन राति ।-सुदर म०, भा. सूर (शब्द॰) । १, पृ. १७४। जकुट-सज्ञा पुं० [सं०] १ मलयाचल । २ कुता । ३. बैगन का जकड़-सा श्री० [हिं० जकड़ना ] जकड़ने का भाव । कसकर 3 फूल । ४ जोड़ा । युग्म (को०)। बांधना। जक्की -सज्ञा स्त्री॰ [देश॰] खुलदुल की एक जाति । मुहा०-जकडबद करना=(१) खूब कसकर बांधना। (२) पच्छी तरह फंसा लेना। पूरी तरह अपने अधिकार में विशेष-इस जाति की बुलबुल माकार में छोटी होती है मौर जाडे के दिनों में उत्तर या पश्चिम हिंदुस्तान के अतिरिक्त कर लेना। सारे भारतवर्ष में पाई जाती है। गरमी के महीनो में यह जकड़ना-क्रि० स० [सं० युक्त+करण या शृङ्खल (= सिफडी)] हिमालय पर चली जाती है। कसकर बांधना । जैसे,—उसके हाथ पैर जकड दो। जक्की-वि० [हिं० झक ] दे० 'भयको'। संयो० कि०-देना।-डालना । जक्त -सधा पुं० [सं० जगत् ] दे० 'जगत' । उ.-भोर ते छोर अकड़ना-कि०म० अकडने घादि के कारण भर्गों का हिलने ले एक रस रहत हैं, ऐसे जान जक्त में विरले प्रानी।- गुलने के योग्य न रह जाना । जैसे, हाथ पैर जकडना । कबीर० रे०, पू० २७ । संयोकि-जाना।-उठना । जन -सचा पुं० [सं० यक्ष ] 'यक्ष' । ४-२