पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/२७

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एका २१ जगजोनि जतण जक्षण- सं ० [सं०] भक्षण। भोजन । खाना। Ho- जख्म-सक्षा पुं० [फा० जख्म ] . 'जखम'। सधु पन्द की सची जक्षण । नानक कहे उदासी लक्षण - यौ०--जख्मखुर्दा = घायल। जख्मी। जरुमेजिगर = दिल की प्रारण, ५० १६८। पोट । इएक का धाय । प्रेम की पीटा। जक्ष्मा-सच्चा सी० [सं० यश्मा ] दे० 'यक्ष्मा' या 'षयी जर्गद-सहा स्त्री० [फा० जगद] छलाँग । चौकडी । कुदान [को०] । जखा-सक्षा श्री . पाका, हिजक] सुख । पैन । 10-उन जग-सहा पुं० [सं० जगत् ] १. ससार । विश्व । दुनिया । 10-- सतन के साथ से जिवड़ा पावै जख । दरिया ऐसे साध के चित तुलसी या जग भाई के सबसे मिलिए धाय । का जाने केहि चरनो ही रख ।-दरिया० धानी, पृ०२॥ भेष में नारायण मिलि जाय |----तुलसी (शब्द०)। २. ससार के लोग। जनसमुदाय । उ०-सांच कही तो मारन घावै, जखनई-क्रि.वि [हिं० जिस+सं०क्षण ] जिस समय । जब। मुठे जग पतियाना !--कबीर (शब्द॰) । १०-जपने चलिय सुरतान लेख परि सेष जान को। -कीर्ति०, पृ०६६। जग -सा पुं० [सं० यज्ञ, प्रा० जम्म, जग्ग] दे० 'यश' 130- जसानो-सचा बी० [सं० यक्षिणी प्रा. जक्खिनी ] दे० 'यक्षिणी' सुन्यौ इद्र मेरो जग मेटा। यह मदमरत नद को वैटा। नद. प्र०, पृ.१८१ । जखनी- सहा सी० [अ० यखनी ] ६० मखनी'। जखम-सचा पुं० [फा० पाल्म, मि० सं० यक्ष्म 1१. वह क्षत जो जगकर-सवा पुं० [हिं० जग+कर ] दे० 'जगकर्ता' । शरीर में मापात या प्रस्त्र प्रादि के लगने के कारण हो जगकतो-सज्ञा पुं० [हिं० जग+फर्ता] ससार के निर्माता। जाय । घाव । २. मानसिक दुख का भाघात । सदमा । ईश्वर। उ०-वे जगकर्ता सब कढ़ महही । वेद शास्त्र सब क्रि० प्र०-करना ।हाना!-वेना |--पूजना। मरना ।---- तिन कह कहहीं।-कबीर सा०, १०४०२ । लगना ।-होता। जगकारन-सहा पुं० [हिं० जग+कारन] जगत के कारणमृत। परमात्मा। १०-जगफारन तारन भव भजन घरनी भार, मुहा०-जसम ताजा या हरा हो माना-पीते हए कष्ट का फिर लौट पाना। गई हुई विपत्ति का फिर मा जाना । जखम पर -मानस, ५१। नमक छिड़कना- दु.ख बढ़ाना । जगपख -सशपुं० [हिं० जग+० चा ] दे० 'जगच्चर'। जनमो-वि० [फा० जख्मी] जिरे वषम लगा हो। घायल । पुटखा। उ०-भादू ऊतन घाम भजोध्या जगचस्व वस मस हरि जोषा।-रा००, पृ०११। जीर-सहा पु०प० जखीरह, हिजखीरा ] खजाना । कोष । सग्रह। १०-किल्ला में पाया और जेता जखीर । साबक जगधार-सपुं० [हिं० जग+पार (प्रत्य.)] लौकिक ही खटपुर में कीनां वहीर ।-शिखर०, पृ. २३ ! रस्म । नेग | To---किया ज्यो जो समुख हो जगचार ममीर । नले फुच की जब फिर चल्या वह फकीर -दक्खिनी०, सीरा-सञ्ज्ञा पुं० [५० शखीरह, ] १ वह स्थान जहाँ एक ही पू० १३७ । प्रकार की बहुत सी चीजों का संग्रह हो। कोष । खजाना। जगच्चसु-मह पुं० [सं० जगत् + चक्षु ] सूर्य । २ समह। देर । समूह । उ०-हे जखीरा गढ़ के जेता।-छ० जगजंतर-सपा पुं० [सं० जगत् + यन्त्र ] जगतचक्र । उ.- रासो, पृ०५६। कृपा धन मानद प्रधार जगजत है। -धनानद, पृ० १६५ । क्रि० प्र०—करना ।—लगाना। जगजगासमा पुं० [ जगमग से अनु० ] पीतल मादि का बहुत यो०-जखीरा प्रदोज = दे० 'जखीरेवाज। पनीरामयोजी पतला चमकीला तश्ता जिसके छोटे छोटे दुक काटकर टिफुलो ६० 'जखीरेवाजी'। भोर ताजिये मादि पर चिपकाए जाते हैं। पन्नी। १ वह बाग का स्थान बहा विलिये तर वरपर पौधे जगजगा-वि० षमकीला । प्रकाशित । जो जगमगाता हो । मौर बीज मादि मिलते हों। जगजगाना-कि०म०[पनु.] चमकना । जगमगाना । जखीरवाज-वि० पुं० [म० जखीर+झापाल (प्रत्य॰)] वषीरे- जगजननि -सा पी० [.अगत् + जननी ] दे० 'जगज्जननी'। बाजी करनेवाला । मनमादि का अपसषय करनेवाला। उ०-ग सती जपवननि भवानी -मानत । जसोरेयाजी-संवा श्री.फा. जखीरेबाज+fav पापि था। उपयोग में पानेवाली पौर विफनेवामी पस्तमो का इस विचार जगजामिनि-पा श्री० [सं० जगत् +यामिनी] भयनिशा। से सचय करना कि जब महंगी होगी सब इसे बेचेंगे। संसाररूपी रात्रि । उ०-एहि जगजामिनी जागहि जोगी। मानस, २०६३ । जखेडा-सञ्ज्ञा पुं० [फा० जखीरहहि. लसीरा] १ दे० 'जखीरा। जगजाहिर-वि० [हि जग+म. जाहिर] व्यक्त । स्पष्ट । सर्व- २ जमाव । यूय । समूह । ३. दे० 'बखेड़ा। ज्ञात. सर्वविदित । उ०-यो वह जगजाहिर हो [-सुनीता, जखैया-माझा पु[सं० यक्ष, प्रा. अक्ल ] एक प्रकार का पु० ३१०॥ कल्पित भूत जिसके विषय में यह प्रसिद है कि वह लोगो को जगजोनि -सञ्ज्ञा पुं० [सं० जगयोनि ] ब्रह्मा। उ०—सोक पधिक कष्ट देता है। कनकलोचन मति छोनी। हरी विमल गुनगन जगजोनी।- जरुख -सदा पुं० [सं० यक्ष, प्रा. जरख ] दे० 'यक्ष'। मानस, २२२६६ ।