पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/२६२

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ठकुराल १९०८ उगवाय. ठकुराला-संश पुं० [हिं० ठाकुर +माल (प्रत्य॰) ] दे० 'ठाकुर। ठगण-संघापु० [सं०] मात्रिक छदों के गणों में से एक। यह पाँच उ.-चल्या ठकुराल्या न लावीय वार। भोज तो मात्रामों का होता है भोर इसके उपभेव हैं। मिलिया असवार ।-वी. रासो., पृ०१६। ठगना-क्रि० स० [हि. ठग+ना (प्रत्य॰)] धोखा देकर मार ठकुरास-सया श्री० [हि.] ठकुराइस । अधिकारक्षेत्र । रियासत । लूटना। छल और धूर्तता से धन हरण करना। २. भोला उ०-तुम्हें मिली है मानव हिय फी यह चपल ठकुरास । पर, देना। छल करना। धूर्तता करना । भुलावे में डालना। हमको तो मिली प्रचंचम मस्ती की जागीर।-अपलक, मुहा०-ठगा सा, ठगी सी-घोसा खाया हुमा। भूला हमा। पु० ७३ । चकित । भौचमका। माश्यं से स्तम्ध । दय। उ०-(क) ठकोरा-संघा पुं० [हि ठक+मोरा (प्रत्य॰)] टकोर। भाघात । करत कछु नाही पाजु बनी। हरिमाए हों रही ठगी सी जैसे चोट । उ०-कजर के पहर गजर ठकोरा बगे।-रघु.. चित्र धनी।-सूर (शब्द॰) । (ख) चित्र में काढ़ी सौ ठाड़ी पृ० २३८ । ठगी सो रही कटु देस्यो सुन्यो न सुहात है।-सुंदरीसर्वस्व ठकोरी-सा स्त्री० [हिं० टेकना, ठेकना+मौरी (प्रत्य॰)] १. (शब्द०)। सहारा लेने की लकड़ी। उ०-(क) भक्त भरोसे राम के ३. उचित से अधिक मूल्य सेना। वाजिब से बहुत ज्यादा दाम निधरक कैपी दीठ। तिनको फरम न लायई राम ठकोरी लेना। सौदा वेपने में बेईमानी करवा । जैसे, यह दुकानदार पीठ ।-कबीर (शम्द०)। (ख) देखादेखी पकरिया गई लोगों को बहुत ठपता है। छिनक मे धूटि। कोई बिरला जन ठाहरे जामु ठकोरी पूठि।- संयो०क्रि०-सेना। कबीर (शब्द०)। ठगना-क्रि० स० १. ठगा जाना। घोसा साफर लुटना । २. विशेष-यह लकड़ी मड़े के माकार की होती है। पहाड़ी। घोखे में माना । चकित होना। भाश्वयं हे स्तब्ध होना। लोग जब मोम लेकर चलते चलते यक जाते हैं तब इस लकड़ी ठक रह जाना । दंग रहना । उ०--(क) तेठ यह परित देखि को पीठ या कमर से मिलाकर उसो बल पर थोड़ी देर ठगि रहीं ।--तुलसी (शब्द०)। (अ) दिनु देखे बिन ही खड़े हो जाते हैं। साधु लोग भी इसी प्रकार की लकड़ी सहारा सुने ठगत न कोउ नाच्यो ।--सूर (चन्द०)। लेते लिये रखते हैं और कभी कभी इसी के सहारे बैठठे ठगनी--बाबी.[हिं० ठग] १ ठगको स्त्री। २. ठगनेवाली हैं। इसे वे वैरागिन या जोगिनी भी कहते हैं। स्त्री । ३. धूतं स्त्री । छलनेवाली स्त्री । ४. कुटनी। ठक्क-सधा पुं० [सं०] व्यापारी को०] । ठगपन-सा पुं० [हिं० ठग+पन (प्रत्य॰)] दे० उगपना'। ठक्कर-सका स्त्री॰ [हिं०] २० टक्कर। ठगपना --सज्ञा पुं० [हि. ग+पन+मा (प्रत्य॰)] १ ठगने ठक्कर'-सका पुं० [सं० ठक्कुर ] गुजरातियों की एक जातीय का काम या माष । २. धूर्तता । छल । चालाकी। उपाधि या पहल। क्रि० प्र०-करना।-- होना। ठक्कुर--सधा पु० [सं०] १. देवता । ठाकुर । पूज्य प्रतिमा। २ री-सम बी. [ हिं. ठग+गरि ] वह नशीली जडी बूटी जिसे मिथिला के ब्राह्मणों को एक उपाधि । ठग लोग पथिको को बेहोश करके उनका धन लुटने के लिये ठग-सा पुं० [सं० स्था ] [ श्री. ठगनी, ठगिन ठगिनी ] १. खिलाते थे। धोखा देकर लोगों का धन हरण करनेवाला व्यक्ति। वह मुहा०-ठगमूरी खाना-मतवामा होना। होसहवास में न लुटेराबो छन और धूर्तता से माल लूटता है। मुलावा देकर रहना। 30-(क) काहू तोहि ठगोरी लाई। बूझति सखी लोगों का माल छीननेवाला। उ०-जग हटवारा स्वाद ठग, सुनति नहिं नेकह तुही कियों ठगमूरी खाई।-सूर (शन्द०)। माया वेश्या लाय । राम माम गाढा गहो जनि कहे पाह (१)ज्यो ठगमूरी खाइके मुखहि न बोले बैन । टुगर टुगर देष्या ठपाय । -कवीर (चन्द०)। करे सुपर बिरहा ऍन ।-सुवर.०, मा० १,३०६८३। विशेष-गकू और ठप में यह अंतर है कि सकू प्राय जबरदस्ती ठगमरी-विक श्री. ठगमरी से प्रमावित । उ०-टक टक ताकि बस दिखाकर माल छीनते हैं पर ठग भनेक प्रकार की धूतंता रही ठगमूरी पापा पाप दिसारी हो।-पलटू०, भा० ३, करते हैं। भारत में इनका पक अलग सप्रदाय सा हो पु० ८४ गया था। ठगमोवफ-सरा पुं० [हि ठग+ सै० मोथक ] . 'ठगमाय'। मुहा.-ठग जगना- ठगों का माक्रमण करना या पीछे पड़ना। 3.--पलत पित मुसकाय के मृदु बचन सुनाए । तेही जैसे,—उस रास्ते में बहुत ठग लगते हैं। ठग लाइ-देव ठगमोदक भए, मन धीर न, हरि तन छूछो घिटकाप।-सूर 'ठगला'। (शम्द०)। यौ०-ठगमूरी | ठगमोदक । ठगमार, । ठगविद्या । ठगलाड़-मा पु० [हि. ठग+ लार (बड्डू)] ठगों का लड्डू २ अली । पूर्व । घोखेबाज । वचक । प्रतारक । जिसमें नशीली या बेहोशी करनेवाली चीज मिली रहती थी। ठगई।-रात्री० [हिं० ठग+१ (प्रत्य॰)]१ ठगपना । ठग विशेष-ऐसा प्रसिद्ध है कि ठग लोग पथिकों से रास्ते में मिलकर का काम । २. धोखा। छ। फरेव । उन्हें किसी बहाने से अपना लड्डू सिसा देते थे जिसमें विष