पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/२६३

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उगलोला १६०५ ठटना या कोई नशीली चीज मिली रहती थी। जब लडडू खाकर उ.-जुरे सिद्ध साधक ठगिया से बढो बास फेखायो ।- पयिक भूछित या बेहोश हो जाते थे तब वे उनके पास जो भारतेंदु , भा॰ २, पृ.net कुछ होता या सब ले लेते थे। ठगिया-वि० ठगनेवाला। छलनेवाला। उ०-ठगिया तेरे नैन ये महा०--ठगलाह खाना = मतवाला होना। होमहवास में न छत बल भरे किठेव ।-स० समक, पृ.१३। रहना । देसुध होना। उ०—सूर कहा ठालाह खायो । इत ठगी-सश श्री.[हिं० ग+ई (प्रत्य॰)] १. ठग का काम उत फिरत मोह को मातो कवई न सुधि करि हरि चित धोखा देकर माल लुटने का काम । २. ठगने का भाव । ३. लायो।-सूर (शब्द०)। ठगलादू देना=बेसुध करनेवाली घूर्तता। धोखेधाजी । चालबाजी। वस्तु देना । उ.-माह दीन ठगलादू देख माय तस मीच ।- ठगोरी-सच्चा श्री० [हिं० ठा+बोरी] ठगो की सी माया। मोहित सायनी (शब्द०)। करने का प्रयोग । मोहिनी। सुपचुप भलातेवाली शक्ति। टगनीला-सधा सी० [हिं० ठग+ लीला ] ठगों का मायाजाल । टोना । बाद । उ०—(क) जानह लाई काहु ठगोरी। खन वंचना । धोखाघडी। उ०-सूटेगी जग को ठगलीला होंगी पुकार सन बावे बौरी।-जायसी (शब्द॰) । (ख) दसन प्रांखें अंत शाला -देला, पु.७६ ।। चमक पधरन परुनाई देखत परी ठगोरी।—सूर (शब्द॰) । ठगवा --सया पुं० [हिं०] दे० 'ठग'। उ०-कोनो ठगवा नगरिया क्रि० प्र०-डालना [-पड़ना ।—लगना । - लगाना। ल्टल हो ।-कवीर० स०, भा०पू०२। ठगौरी -सच्चा सौ. [हिं० ठगोरी] दे० 'ठगोरी'। १०-रूप ठगवाना-फि० स० [हिं० ठगना का प्रे० रूप] दूसरे से किसी ठगौरी डार मन मोहन लेगो साप। तब ते सांस भरत हैं को कोखा दिलवाना। नारी नारी हाथ। -स० सप्तक, पृ० १८५।। ठाविद्या-सरत स हि ठग+० विद्या ] ठगो की कता। ठट-सक्षा ० [सं० स्याता ( जो खड़ा हो ), या देख०] १. एक धूर्तता । घोखेबाजी : छत्र । वचकता। स्थान पर स्थिा नहुत सी वस्तुओं का समूह । एक स्थान पर उगहाई-सहा मी० [हिं० ठग+हाई (प्रत्य॰)] गपचा। खडे बहुत से लोगो को पक्ति। ठगहारी-सवा नौ [हिं० ठग+हारी (प्रत्य॰)] ठगपना । मुद्दा०-ठट के ठट-मुड मु। बहुत से। उ०-रात का ठगाइनि-सशस्त्री० [हिं०] ठगनेशली स्त्री। ठगिनी । ३०- वक्त था मगर ठट टट लगे हुए थे।—फिसाना०, भा०२, यदि परे नर काल के बुद्धि उपाइनि बानि । कबीर००, पृ० १.४ । ठव लगना % (१) भीड़ जमना। भीड़ खरी ___ भा•४, १०८६। होना । (२) ढेर लगना । राशि इकट्ठी होना। ठगाई-सघा मी हि ठर+प्राई ( प्रथम 'ठगपना'! २. समूह । मुड पंक्ति । उ०-प्रवर ममर हरखत वरखत फूल सनेह सिथिल गोप गाइन के ठट हैं ।-तुलसी (शब्द०)। ठगाठगी-महा श्री.हि. गोधोनेवाली। उठा । घोखाधड़ी। ३ बनाय । रचना। सजावट । उ०—परखत प्रीति प्रतीति ठगाना- शिम.हि ठगना १ जाना। धोटे में भाकर पैव पन रहे काज टट ननि है। तुलसी (शब्द०)। हानि सहना । २ मिमी हरतु बर अधिक मूल्य दे देना। यो०-ठटवारी = सजावनाली । बनाव वाली। टूकानदारी बातों में धाकर जादा दाम दे देना । से,- समाद मतम ठगा गए।३.firi पर पामत होना। ठटकालाव ह याटवि० मी. ठटकोनी सहायता ठाटदार । सजीला । सहरू भहकवाला। उ०-~-माछी चरननि मुन्ध होना। कचन सकुट ठटकील बनमाल कर टेके महार टेढ़े ठाढ़े संयोक्रि०-दाना! नदलाल छवि छाई घट घट । सुर० (शब्द०)। ठगाहो?--गौर दि 10 गाई, 'ठगहाई। उ०-नाहक हटना'---क्रि० स० [सं० स्याता ( जो खड़ा या ठहरा हो । नर सूती धरि दीन्हों। दिन मन माहि ठपाही कोन्हों।- हिं० ठाट, ठाढ] १.ठहराना। निश्चित करना। स्थिर विधाम ( द०)। करना। ३०-होत सु जो रघुनाथ ठटी। पचि पपि रहे ठगिन-सा गोठा +इन (प्रत्य॰)] १ घोखा देकर सिद्ध, साधक, मुनि तक बढ़ी न घटी। -तुर (ब्द.)। २. लूटनेयाली थी। लुटेरिन। २ टप की यो। ३ घूर्व सी। सजाना । सुसज्जित करना । तैयार करना। 80-(क) नुप पाल्पाज पौरत। बन्यो विकट रन ठाट उटि मार मारु पर मार रट।-- ठगिनी-सपा बी० [हिं० ठग+पनी (प्रत्य॰)] १ लुटेरिन । गोपाल (घब्द०)। (ख) कोक करि जलपान मुरेठा ठटि धोखा देकर लूटनेवाली ली। उ०-ठरति फिरति ठगिनी ठटि वान्हत ।-प्रेमघन॰, भा० १, पृ० २४० 1 तुम नारी। जोइ भादति सोइ सोइ कहि रति जाति मुहा०-ठटकर घातें फरना-बना बनाकर बातें करना । एक जनाति दे देगारी।--सुर (पाटद०)। २. ठपकी स्त्री। एक बन्द पर जोर देते हुए बातें करना । ३. धूर्त स्त्री। पालनाज ली। ३. (राग) छेसना । पारम करना । उ०---नव निकुंज गृह नवल मागे नवल वीना मधि राग गौरी ठटो।-हरिवास (शब्द०)। ठगिया-समा यु० [हिं० ठग+इया (प्रत्य॰)] दे० 'ठग'। ४-३२