पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/२६७

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ठमकना ठलाना ठमकना--कि०म० [स० स्तम्भन ] १. चलते चलते ठहर जाना। ठवनि भली ठई है। -तुलसी (शब्द०)1२. प्रयुक्त होना। ठिठना। रुकना । जैसे,-तुम पलते चलते ठमक क्यों जाते लगना । नियोजित होना। हो । २. ठसक के साथ एक रुफकर चलना। हाव भाव ठरना-कि.म०० स्तब्ध, प्रा. ठड्ढ, हि० ठार+ना (प्रत्य०)] दिखाते हुए चलना। मंग मरोड़ते या मटकाते हप चलना। १ अत्यंत शीत से ठिठुरना। सरदी से पकड़ना या सुन्न लचक के साप चलना। उ०-ठमकि ठमकि सरकाही पालन होना । जैसे, हाथ पांव ठरना। पाठ सामुह मेरे 1-पोद्दार अभि.प्र०, पृ० ३८६ । संयो०कि.--जाना। उमका-सा बी० [हिं० भनुध्व.] मठम को स्थिति या क्रिया। २ पत्यत सरदी पडना । बहुत अधिक ठउ पडना । ठक ठक झंझट बखेडा। उ०-घमण धर्मती रह गई उरकना-कि.म.हि. ठरूका (-ठोकर, टक्कर)] टकराना । सीला पटना मंगार। महरण का ठमका मिथ्या रीताद चले उ०--चकमक ठरकै प्रगनि झरे यूं पच मथि त करि लोहार --रामा धर्म०, पु. १६ ।। लोया। -गोरख०, पृ० २०८१ ठमकार-सचा स्त्री० [देश॰] झोंका | उ.-इसलिये फाग सेठानी ठरमरुया-वि० [हिं० ठार+मारना [ वि० श्री हरमबई ] वह नींद का ठमका ले रही थी।-जनानी०, पु०३८ । फसल जिसे पाला मार गया हो। ठमकाना-कि० स० [हिं० ठमकना ठहराना। चलते चलते ठराना-क्रि० स० [हिं० ठहरना ] टिक जाना। स्थिर होना।। रोकना। ठहरना। उ०-हरि कर चिपका निरखि तियन के नैना ठमकारना-क्रि० स० [हि ] दे० 'ठमकाना'। यिहि ठराई।-नद० ग्र०, पृ० ३८१ । उमठमाना-कि०प०० स्तम्भन ] ठमदना। ठिठकना। ठराना--क्रि० स० { हि० ठढा=(सदाना ( प्रत्य०), या ठहराना ] खड़ा करना। तैयार करना 1 बनाना । ठहराना। 50--दुल्हा डू जरा जरा ठमठमाया-माधी०, पृ० ३१६ ) उ०-जमी के तले यक ठरा कर मकान ।-दक्खिनी०, ठमिकना -क्रि० म. देश०] 'ठमकना। उ०--चौथा पु० ३३६। को लेहंगो भूना को ताव । ठमिक ठमिफ धन देव पाव- ठरारा-वि० [हिं. ठार ] सर्द। ठठा। 10-कवह मनहि मन बो. रासो, पृ० ११४॥ __ सोचत, मोचत स्वास ठरारे ।-नद० ग्र०पू० २०१। ठमकड़ा@f-सश स्त्री० [हिं० ठमुक (= ठमक)+ा (प्रत्य॰)] ठरुआ-वि० [हिं० ठार] [ वि० स्त्री. ठरूई ] फसल जिसे पाला ठक ठक की पावाज। ठपका । ठमका। 30-~धषि पवती मारा गया हो। रहि गई, बुझि गए भंगार। महरणि रह्या ठमुकडा जब ठसका.मक्षा लो. [ हि० ठोकर ] ठोकर । माघात । उ०.- उठि चले लुहार |--कबीर प्र., पृ०७२। जिनसी प्रीति फरत है गाढ़ी सो मुख लावै लूकोरे, जारि बारि ठयना-क्रि० स० [सं० अनुष्ठान ]१ ठानना । दृढ़ संकल्प के तन खेह करेंगे दे दे मॅट ठरूको रे ।-सुधर , भा०२, माप पारभ करना । छेडना । उ०-(क) दासी सहस प्रगट सहर प्रगट . ० ६१०॥ भई हुदलोक रचना भाषि ठई।--सूर (शद०)। ठर्रा-सा ० [हिं० ठड़ा ( खड़ा)] १. इतना कडा घटा हमा (ख) जब नैगति प्रोति ठई ठग श्याम सो, स्याची सखी हठि मोटा सूत जो हाथ में लेने से कुछ तना रहे । पोटा सुत । २. ही बरजी।-तुलसी (पन्द०)।२ कर चुकना। पूरी तरह बड़ी अधपकी इंट। ३. महुवे को निकृष्ट कडी शराब । फूल से करना । (इसका प्रयोग सपो.क्रि. के रूप में हुमा है)। का उलटा । ४. अंगिया का वध | तनी। ५. एक प्रकार का उ०-देवता निहोरे महामारिन सौ कर जोरे भोरानाथ भोरे मद्दा जूता।६ भद्दा और बेडौल मोती। सपनीमा कति है। तुलसी (शब्द०)। ३ मन में ठह- ठरी-समा स्त्री॰ [देश॰] १ बिना अफर उठा हुमा धान का बीज राना निश्चित करना। ३०-तुलसियास कौन पास मिलन जो छितराकर वोया जाता है। २. बिना अकुर उठे हुए को ? कहि गए सो तो एको चित न ठई।--तुलसी (शब्द०)। धान की वोभाई। (स) एहि विधि हित तुम्हार मे एक!-मानस, पू०७१।। ठलवारि -वि• पुं० [हिं० टिल्ला, टल्ल>टल्लेनवीसी (- ठयना-कि०म०१ ठनना । दृढ़ सकल्प के साथ प्रारम होना । २ बहाना, निठल्जापन ] बहाना करनेवाला। किसी बात को मन मे दृढ़ होना । ३ प्रयोग में माना ! फार्य में प्रयुक्त होना । हंसी मे उड़ा देनेवाला । ठट्ठ वाज। उ०---कहा तेरेई मायौ राज लाज तजि शौरत पोरे काज, कहा तोहि ठलवारि व्यना-क्रि० स० [सं० स्थापन, पा० ठादन ] स्थापित करना। घरबसे न जानत बात बिरानी-धनानद, पृ० ४२६ । बैठाना। ठहराना । २ लगाना। प्रयुक्त करना। नियोजित करना। 10--विधिना प्रति ही पोच कियो रो। रोम उलाना-क्रि० स० [फा० ठिल्ल] ठेलना । रखना। -(क) वा रोम लोचन इक टक करि युवतिन प्रति काहे न यो री। पाछे रीति अनुसार सामग्री ठवाइ प्रभुन को पचना स्वाद प्राति करि भनोसर करते ।-दो सौ बावन०, मा०१, पु. सूर (शब्द)। १.१। (ख) पाछे वह सब मन्द तुमकों तुम्हारेपासनन व्यना-क्रि० स०१. हरना। स्थित हाना । बैठना । जमना। में उसाइ देहुँगी।-दो सौ बावन०, भा., पु०२५५। उ०--राज रुख लक्षि गुरु सुर सुभासनन्हि समय समाज की