पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/२९३

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डमर डराडरि पजामी या गोली बंची होती है। डमर-सपा पुं० [सं०] १ भय से पलायन । भगेड । भगवड । २ सिंगरफ से पारा उडाने के लिये घड़ों को खड़े बल नीचे ऊपर हलचल । उपद्रव । ३ गांवों के साधारण संघर्ष (को०)। रखते हैं। नीचे के घडे के पंदे मे माँग लगती है भौर ऊपर के डमरु-सबा पुं० [सं०] दे॰ 'मरू'। उ०-खुनखुनाकर हंसत घड़े के चंदे को गीला कपा भादि रखकर ठंडा रखते हैं। हरि, हर हंसत स्मरु बजाइ ।-सूर०, १०।१६० । मांच लगने पर सिंगरफ से पारा उड़कर ऊपरवाले घड़े के पदे में जम जाता है। डमरुघा-सबा पुं० [सं० डमरू] बात का एक रोग जिससे जोड़ों मे दर्द होता है। गठिया। डयन--सका मुं० [सं०] १ उड़ान। हने की क्रिया। २ पालकी (को०)। यौ०-उमरुप्रा साल = दे० 'इंचरुमा साल। ढर-सपा ० [सं० दर] १ दुखपूर्ण मनोवेग को किसी मनिष्ट या हानि की माशका से उत्पन्न होता मोर उस (प्रनिष्ट वा हामि) डमरुका-सया स्त्री० [सं०] हापों की एक तात्रिक मुद्रा [फो । से बचने के लिये माकुलता उत्पन्न करता है। भय । भीति । डमरू-संशा पुं० [सं० डमरू ] १. एक बाजा जिसका माकार बीच खौफ त्रास । उ०-नाप लखनु पुरु देखन चहह । प्रभु संकोच में पतला और दोनों सिरों की मोर बराबर चौड़ा होता पर प्रकट न कहही ।-मानस, १२२१८ । जाता है। क्रि०प्र०-लगना।-खाना । उ०-पैग पैग मुक्ति पावा। विशेष-इस वाध के दोनों सिरों पर चमड़ा मढ़ा होता है। पखिह देखि सवन्हि डर खावा । -बायसी प्र. (गुप्त), इसके बीच में दो तरफ वरावर बढ़ी हई डोरी बंधी होती है पु. १६५। जिसके दोनों छोरों पर एक एक मुहा०-डर के मारे - भय के कारण। कौड़ी या गोली बंधी होती है। २. अनिष्ट की संभावना का अनुमान । पाशका । जैसे,-हमें पर बीच में पकड़कर जब बाजा है कि वह कहीं भटक न जाय। हिलाया जाता है तब दोनों डरना-क्रि.म.हिं० डर+ना (प्रत्य॰)] १.किसी अनिष्ट या कोहिया चमड़े पर पडती हैं हानि की माशका से भाकुल होना । भयमीत होना!। खौफ पौर शब्द होता है। यह बाजा शिव जी को बहुत प्रिय है। करना । सशक होना । बबर नचानेवाले भी इस प्रकार का एक वाजा अपने साथ रखते हैं। संयो० क्रि०-उठना।-खाना। २ माशका करना ! प्रदेशा करना। २ इमरू के भाकार की कोई वस्तु । ऐसी वस्तु जो बीच मे पतली हो और दोनो भोर बराबर चौही ( उलटी गावदुम) ' डरपक-वि० [हिं. डार+सं० पक्य] डार में ही पका हुमा (फल)। होती गई हो। उ.--किधों सु हरपक माम में मनि मिल्यो मसिव । किषो तनक ह तम रह्यो के ठोढ़ी को विंद।-पपाकर यौ०-मरूमध्य । पं., पृ० १००। ३. एक प्रकार का दरक वृस जिसके प्रत्येक चरण में ३२ लघु डरपना --कि० अ० [हिं० डर] डरना । भयभीत होना। उ०- वणं होते हैं। जैसे,-रहत रजत नग नगर न गज तट गज (क) इहु को कछु दूपन नाही। राजहेतु डरपत मन खल कलगर गरल तरल घर। भिखारीवास ने इसी का नाम माही।-सूर (शब्द०)। (ख) एकहि डर डरपत मन जलहरण लिखा है। मोरा। प्रमु मोहि देव साप मति घोरा।-तुलसी डमरूमध्य-सबा पुं० [सं० म+ मध्य ] परती का वह तग (पान्द०)। पवला भाग जो दो बड़े बड़े भूखडों को मिलाता हो। डरपाना-क्रि० स० [हिं० डरपना] डराना । भयभीत करना। यौ०-अलसमरूमध्य-जल का वह तग पतला माग जो जल डरपुकना-वि० [हिं० डरपोकना] दे० 'डरपोक' । उ-सिपारसी के दो बड़े भागों को मिलाता हो। डरपुकने सिट्ट बोले बात मकासी ।-भारतेंदु प्र., मा० १, डमरुयंत्र-मक्ष पुं० सं०मरू+ यन्त्र ] एक प्रकार का यत्र या पात्र जिसमें पके खींचे जाते तथा सिंगरफ का पारा, कपूर, दरपोक-वि० [हिं० डरना+पोकना] बढ़त डरनेवाला। भीर। नौसारमादि उडाए जाते हैं। कायर । विशेष-यह दो घड़ों का मुंह मिनाकर और कपडमिट्टी से डरपोकना --वि० [हिं० डरना+पोकना] १० 'डरपोक' । जोड़कर बनाया जाता है। जिस वस्तु फा पकं खींचना होता डरबाना'--क्रि० स० [हिं० डर] दे० 'डराना'। है उसे घड़ों का मुंह जोडने के पहले पानी के साथ एक घडे डरवाना--क्रि० स० [हिं० डालना] दे० 'डलवाना'। में रख देते हैं और फिर सारे यत्र को (अर्थात् दोनों जुटे घों को इस प्रकार माहा रखते हैं कि एक घड़ा मौच पर डरा-सका पु० [हि० उला] [खीरी] ढोका । इला। टक। रहता है और दूसग ठढी जगह पर। पाँप लगने से वस्तु उराका--वि० ० डरना] १ बहुत डरनेवाला।मी। मिले हुए पानी की भाप उड़कर दूसरे घड़े में जाकर टपकती डराने या भय उत्पन्न करनेवाला । हैं। यही टपका हुमा जल उस वस्तु का अर्क होता है। डराइरि-संजा सी० [हिं० दर] १० 'डराडरी'। उ०-जब मानि