पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/३२४

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ढयना १९५० ढयना-कि०म० [सं० ध्वंसन, हिं. ढहना] १. किसी दीवार, (ख) ऊपर ते दषि दूध, सीसन गागरि गन ढरे।--नद. मकान प्रादि का गिरना। व्यस्त होना। २ पस्त होना । पं०, पृ० ३३४ । शिथिल होना। उ.-ढीले से ढए से फिरत ऐसे फोन पै दरनिसमा श्री० [हिं० ढरना] १ गिरने वा पहने की क्रिया। ढहे हो।-नद० ०,१० ३५६ । पतन । उ०-सखी बचन सुनि कोसिला लखि सुदर पासे सयो० क्रि०-जाना ।-पड़ना। ढरनि ।--तुलसी (शब्द॰) । २. हिलने डोलने की क्रिया । मुहा०-ठय पड़ना = उतर पडना । सहसा पाकर टिक जाना। गति । स्पदन । उ०-कठसिरी दुलरी हीरन की नासा मुक्ता एकबारगी भाकर डेरा डाल देना (व्यग्य)। दरनि ।स्वामी हरिदास (शब्द०)। ३ चित्त की ढरकना-क्रि० स० [हिं० ढार या ढाल] १ पानी या मौर किसी प्रवृत्ति । झुकाव । उ०-रिस मो रुचि हौं समुझि देखिहीं द्रव पदार्थ का प्राधार से नीचे गिर पड़ना । ढलना। गिरकर वाके मन की ढरनि, वाकी भावती वात चलाय हो।-सूर बह जाना । 30-वाके पानी पत्र न लागै ढरकि चले बस (शब्द०)। ४. किसी की दशा पर हृदय द्रवीभूत होने की पारा हो।-कवीर श०, भा० १, पृ. २७ ॥ क्रिया । दीन दशा दूर करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति। स्वामा. सयोकि०-जाना।-पहना। विक करुणा। वाशीलता। सहज कृपालुता । उ०-(क) २. नीचे की मोर जाना। 30-(क) सकल सनेह शिथिल राम नाम सो प्रतीत प्रीति राखे कपक तुलसी ढरेंगे राम रघुबर के ।गए कोस दुइ दिनकर ढरके।-तुलसी (शब्द॰) । अपनी ढरनि ।-तुलसी (शब्द०)। (ख) कृपासिंधु (ख) परसत भोजन प्रातहि ते सब। रवि मापे ते दरकि गयो कोसल पनी सरनागत पालक ठरनि मानी ढरिए।-तुलसी पब ।—सूर (शब्द०)। (शब्द०)। मुहा०-दिन ढरकना = सूर्यास्त होना । दिन इयना । ढरहरना -क्रि० प्र० [हिं० ढरना] ससफना। सरकना। ढलना। मुकना। उ०--दोनदयाल गोपाल गोपपति गावत ३ पाराम करना । शय्या पर चयन करना । लेटना । गुण प्रावत ढिग ढरहरि ।-सूर (शब्द॰) । ढरका-सा पुं० [हि. ढरकना] १.पोख का एक रोग जिसमें माख से मौसू बहा करता है। २ मौख से पा रहना। ढरहरा-वि० [हिं० ढार + हार (प्रत्य॰)] [श्री. ढरहरी ] डालुवा । ढाल। क्रि०प्र०-लगना। ढरहरी -सका सी० [देश॰] पकौड़ी। उ.--रायभोय लियो भात २ सिरे पर कलम की तरह छोली हुई बॉस की नली जिससे पसाई । मुग ढरहरी हींग लगाई।-सूर (शब्द०)। चौपायों के गले में दवा उतारते है। वाँस की नली से चौपायों के गले में दवा उतारने की क्रिया । ढरहरी२-वि० सी० [हिं० ढरहरा ढाल । ढालुवा । क्रि०प्र०-देना। ढराई- सना खी० [ हि. ] ३० 'ढलाई। ढरकाना-क्रि० स० [हि. ढरकना ] पानी या और फिसी व ढराना-क्रि० स० [हिं०] १. दे० 'ढलाना'। उ०-वैचि खराय पदार्थ को भाषार से नीचे गिराना । गिराकर बहाना । जैसे, चढ़ाए नहीं न सुढार के द्वारनि मध्य ढराए ।-सरदार पानी ढरकाना। ( शब्द०)।२ दे० 'ठरकाना'। संयो०क्रि.--देना। ढरारा-वि० [हिं० ढार] [वि०सी० ढरारी] १. ढलनेवाला । ढरकने- इरकी-सक्ष श्री० [हिं० दरकना ] जुलाहों का एक औजार जिससे वाला। गिरकर बह जानेवाला । २ लुढ़कनेवाला । पोडे वे लोग पाने का पुत फेंकते हैं। उ०—सबद ढरकी चले नाहि माघात से पृथ्वी पर मापसे माप सरकनेवाला। जैसे, गोली। छीनै ।-पलटू०, पृ० २५ ।। यौ०-ढरारा रवा - गहना बनाने मे सोने चांदी का वह गोल विशेष-उरकी की प्राकृति करतात की सी होती है और यह दाना जो जमीन पर रखने से लुढ़क जाय। भीतर से पोली रहती है। खाली स्थान में एक कोटे पर ३ शीघ्र प्रवृत्त होनेवाला। झुक पढ़नेवाला। पाकर्षित होनेवाला। लपेटा हुमा सूत रक्खा रहता है। जब ढरकी को इधर से उधर चलायमान होनेवाला। 30---जोवन रग रंगोली, सोने से फेंकते हैं तब उसमें से सूत खुलकर बाने में भरता जाता है। ढरारे नैना, कंठपोत मखतुली।-स्वामी हरिदास (शब्द॰) । इसे भरनी भी कहते हैं। ढरैया-सा पुं० [हिं० ढारना] १ डालनेवाला। २ ढलनेवाला । यो०-जुलाहे को ढरकी-अस्थिरमति मादमी। कभी इधर किसी मोर प्रवृत्त होनेवाला । कभी उधर होनेवाला व्यक्ति। ढर्रा--सधा पुं० [हिं० या देश-१ मार्ग। रास्ता । पथ । २ किसी रकोला-वि० [हिं० ढरकना+ईला (प्रत्य॰)] बह जानेवाला । कार्य के निर्वाह की प्रणाली शैली । ढग । तरीका । ३. मुक्ति । ढरक जानेवाला। 30--रजनी के श्याम कपोलो पर ढरकीले उपाय । तदवीर । जैसे,--कोई ढर्रा ऐसा निकालो जिसमें इन्हें श्रम के कन । यामा, पृ०१६। ' भी कुछ बाभ हो जाय। रना -कि०म० [हि ढलना ] १. दे० 'दखना। २. बहना । क्रि०प्र०-- निकालना। प्रवाहित होना । उ०-(क) मलिन कुसुम तनु चीरे, ४ माचरणपद्धति। चाल चलन । जैसे,--यह लडका बिगड़ करतल कमल नयन ढर नीरे।-विद्यापति, पृ० ५५४ । रहा है, इसे अच्छे ढर्रे पर लगानो।