पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/३४१

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तंत्रवाय तंतुसंतत तंतुसंवत-वि० [सं० तन्तुसन्तत] बुना हुधा [को॰] । मावि का वर्णन मोर विधान है तथापि माधुनिक तत्र का तंतुसंतति-सशास्त्री [सं० तन्तुसन्तति] बुनाई [को॰] । उसके साथ कोई सबध नहीं है। कुछ लोगों का विश्वास है कि कनिष्क के समय मे पोर उसके उपरात भारत में तंतुसतान--सन्म पं० [सं० तन्तुसन्तान] बुनाई [को०)। . पाधुनिक तत्र का प्रचार हुपा है। चीनी यात्री फाहिपान तंतुसार-सदा ० [से० सन्तुसार] सुपारी का पेट । मौर हुएनसान ने अपने लेखों में इस शाल का कोई उल्लेख तंत्र-सक्षा पु० [सं० तन्त्र] १ ततु । तात । २ सूत । ३. जुलाहा । ४. नही किया है। यद्यपि निश्चित रूप से यह नहीं कहा पा कपडा बुनने की सामग्री। ५ कपडा । वस्त्र। ६ कुटुरक सकता कि तत्र का प्रचार कर से हमा पर तो भी इसमें भरण और पोषण मादि का कार्य । ७ निश्चित सिद्धांत । सदेह नहीं कि यह ईसवी चौथी या पाचवी शताब्दी से ८ प्रमाए। ६. औषध । दवा। १० झाड़ने फूंकने का मधिक पुराना नहीं है। हिंदुपो को देखादेखी बौद्धों में भी मत्र । ११. कार्य । १२ कारण। १३ उपाय । १४ राज तत्र का प्रचार हुमा भौर तत्सवपी पनेक ग्रंथ बने हित कर्मचारी। १५ राज्य। १६ राज का प्रवध। १७. सेना। वात्रिक उन्हें उपतत्र कहते है। उनका प्रचार तिब्बत या फौज । १८ अधिकार । १६. कार्य का स्थान। पद 1 २०, चीन मे है। वाराही तत्र में यह भी लिया है कि जैमिनि, समुह । २१ प्रसन्नता। प्रानदा २२ घर। मकान । २३. कपिल, नारद, गर्ग, पुलस्त्य, भृगु, शुक्र, बृहस्पति मादि घन । सपत्ति । २४. अधीनता। परवश्यता । २५. श्रेयी । ऋषियों ने भी कई उपतत्रों की रचना की है। ।। वर्ग । कोटि । २६ दल । २७. उद्देश्य । २८ कुल । शानदान । तत्रक-सका पुं० [सं० तन्त्रक] मया कपड़ा। २६ सपष। कसम । ३० हिंदुषो का उपासना सबंधी तंत्रकाष्ठ-या पुं० [सं० तन्त्रकाष्ठ] दे॰ 'ततुकाष्ठ' (को०)। एक शास्त्र। तंत्रण-सचा पुं० [सं० तन्त्रण] शासन या प्रवष प्रादि करने का काम ।' विशेष-लोगों का विश्वास है कि यह शास्त्र शिवप्रणीत है। तत्रता-सवा सौ. [• तन्त्रता] कई कायों के उद्देश्य से कोई एक कार्य यह शास्त्र तीन भागों में विभक्त है भागम, यामल पौर करना। कोई ऐसा कार्य करना जिससे अनेक उद्देश्य सिद्ध मुख्य तत्र। वाराही तर के पनुसार जिसमें सृष्टि, प्रलय, हो। जैसे, यदि किसी ने अनेक प्रकार पाप किए हों तो देवतापों की पूजा, सब कार्यों के साधन, पुरश्चरण, षट्कर्म- उनमें प्रत्येक पाप के लिये प्रायश्चित्त न करके एक ऐसा प्राय- साधन और चार प्रकार के व्यानयोग का वर्णन हो, उसे पिषत करना जिससे सब पाप नष्ट हो जाये पथवा बार बार आगम भौर जिस में सृहितत्व, ज्योतिष, नित्य करय, क्रम, प्रस्पृश्य होने की दशा में प्रत्येक बार स्नान न करके सबके सूत्र, वर्णभेद मौर युगधर्म का वर्णन हो उसे यामल कहते प्रत में पफ हो घार स्नान कर लेना। (धर्मशास्त)। है, और जिसमे सृष्टि, लय, मत्रनिर्णय, देवतामों से सस्थान, यत्रनिणंय, तीर्थ, प्राथम, धर्म, कल्प, ज्योतिष संस्थान, व्रत- तत्रधारक-सधा पुं० [सं० तन्त्रधारक] यज्ञ मादि कार्यों में वह मनध्य षो कमफाइ धादि की पुस्तक मेकर याशिक पावि के साय कथा, पौष पौर प्रशौच, स्त्री पुरुष-लक्षण, राजधर्म, पान- बैठता हो। धर्म, युवाधर्म, व्यवहार तथा प्राध्यात्मिक विषयों का वर्णन विशेष-स्मृतियों के अनुसार यज्ञ मावि में ऐसे मनुष्य का होमा हो, वह सत्र कहलाता है। इस साल का सिद्धात है कि कलि- युग में वैदिक मत्रों, जपों मोर यशो मादि का कोई फल नहीं पावश्यक है। तंत्रमंत्र-सा पुं० [सं० तन्त्रमन्य] जादूगौरी। बाद टोना । तप्रशास्त्र में वणित मनो मौर उपायों पादि से ही सहायता २ उपाय । युक्ति । ढव । ३. साधक द्वारा साधना में प्रयुक्त मिलती है । इस शास्त्र के सिद्धांत बहुत गुप्त रखे जाते हैं मौर तत्रादि। इसकी शिक्षा लेने के लिये मनुष्य को पहले दीक्षित होना तंत्रयुक्ति-सका बी० [सं० तन्नयुक्ति ] वह युक्ति जिसकी सहायता में पड़ता है। माजकल प्राय मारण, उच्चाटन, वशीकरण पादि किसी वाक्य का पर्थ प्रादि निकालने या समझने में सहायता के लिये तथा भनेक प्रकार की सिद्धिया मादि साधन के ली बाय । लिये ही तत्रोक्त मत्रो मोर क्रियापों का प्रयोग किया जाता। विशेष-सुथुत सहिता में तत्रयुक्तियाँ इस प्रकार की बताई मई है। यह शास्त्र प्रधानत शाक्तो का ही है और इसके मात्र प्राय है--प्रधिकरण, योग, पदार्थ, हेत्वयं, प्रदेश, पतिदेय, अपवर्ग, पर्यहीन पोर एकाक्षरी हुमा करते हैं। जैसे,-ह्रीं, पली, श्री, वाक्पशेष, पर्यापत्ति, विपर्यय, प्रसग, एकांत, पनेकांट, पूर्व स्यी, शू, फंपादि। वात्रिों का पचमकार--मद्य, मास, पक्ष, निर्णय, पनुमत, विधान, प्रतापतवेक्षण, प्रतिक्रांताबेक्षण, मत्स्य, मुद्रा मोर मैथुन और चऋपूजा प्रसिद्ध है। तांत्रिक साय, व्याल्यान, स्वसज्ञा, नियंपन, निदर्शन, नियोग, विकल्प, सब देवताओं का पूजन करते हैं पर उनकी पूजा का विधान समुच्चय पौर ऊप। सबसे भिन्त और स्वत होता है। चक्रपूजा तपा अन्य तत्रवाद्य-समापुं० [तन्त्रवाद्यवारवाले वाघ यत्र । वैसे.बीता मनेक पूजामों में तांत्रिक लोग मद्य, मांस पोर मरस्य का सारगी मादि। बहत प्रधिकता से व्यवहार करते हैं और धोबिन, तेलिन तंत्रवाप-समा पु० [सं० तन्त्रवाप] १. ततुवाय दी। २. मकरी। मादिलियों को नगी करके उनका पूजन करते हैं। यद्यपि तत्रवाय-स्या पुं० [सं० तन्त्रवाय] १. ततुवाय । वाती। २. अथर्ववेद संहिता मे मारण, मोहन, उच्चाटन मौर वशीकरण मकड़ी । ३. तात। -