पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/३५८

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सदनुसार २००४ पपता वदनुसार-वि० [सं०] उसके मुताबिक । उसके अनुकूल । बह कमलि नाल। नहिं पार मझो तद्दपि मुहाल ।-१० तदन्यपाधितार्थ-सा पुं० [सं०] नभ्य न्याय में, तर्फ के पांच प्रकारों रासो, पृ.४। में से एक। तद्धन-संज्ञा पुं० [सं०] कृपण । कंजूस । तदपि-पव्य० [सं०] तो भी । तिसपर भी। तथापि । तबमें-वि० [सं० वधर्मन् ] जिनका वह धर्म हो । उस धर्मवाला। तरवीर-सपा बी० [१०] अभीष्ट सिद्धि करने का साधन । सक्ति। च०-किंतु पाप कहेंगे कि यद्यपि जाति का तदर्मस्व नहीं है तरकीबीयत्व। तयापि तीष्णव और झपिसत्व का पग्निजाति से प्रविनामाव तदर्थ-पथ्य. [सं०] उसके लिये । उसके वास्ते [को०] । है।--पूर्णा० प्रमि.०, . ३३७ । तद्धित-सपुं० [सं०] १. व्याकरण में एक प्रकार का प्रत्यय तरर्थी-वि० [सं० सदथिन] दे० 'तदर्थीय'। जिसे संका पत में लगाकर शब्द बनाते हैं। तदर्थीय-वि० [सं०] उसके प्रथं की तरह प्रर्थ रखनेवाला। विशेष-यह प्रत्यय पोप प्रकार के शब्द बनाने के काम में प्राता समानार्थक [को०] । है-(१) प्रपत्यका बक, जिससे प्रपत्यता या मनुयायित्व प्रादि तदा-कि० वि० [सं०] उस समय । । तिस समय। का बोध होता है। इसमें या तो सथा के पहले स्वर की वृद्धि तदाकार-वि० [सं०] 1 वैसा ही। उसी माकार का। उसी कर दी जाती है पश्वा उसके पंत में 'ई' प्रत्यय जोड़ दिया पारुतिवाला। तद्रूप । २ तन्मय । जाता है। जैसे, चिव, शैव, विष्णु से वैष्णव, रामानद से पदारक-या पुं० [40] १,बोई हई चीज या पागे हर अपराधी रामानदी प्रादि। (२) हृवाषफ-जिससे किसी क्रिया के प्रावि फी खोष या फिसी दुर्घटना माहिट सबंध में बार। फर्ता होने का बोध होता है। इसमें 'वाला' या 'हारा' प्रयवा २ जिसी दुर्घटना को रोकने लिये पहले से किया हमा इन्हीं का समानार्थक भौर कोई प्रत्यय लगाया जाता है। से, प्रघष । पेयपदी । दोषस्त । ३ सपा । दछ। कपड़ा से कपड़ेवाला, गाड़ी से गाडीवाला, लकड़ी से लकड़ीवाला तदिल-कि० [हिं०] सदा । सर। उस समय । उ०-उदि करपो या लकडहारा। (0) भाववाचक-जिससे भाव का बोध होता वोष बहु विधि सुताहि । -ह. रासो, पु० ४६ । है। इसमें 'भाई', ', 'त्व', 'ता', 'पन', 'पा', 'वट', हट, सदीय-स[सं०] उससे सबष रखनेयामा । उसका। पाधि प्रत्यय लगाते हैं। जैसे, ढीठ से ढिठाई, ऊँपा से यो०-सदीय समाज । सदीय सर्वस्व । ऊँचाई, मनुष्य से मनुष्यत्व, मित्र से मित्रता, लड़का से बढ़कपन, घुड़ा से बुढ़ापा, मिलान से मिलावट, चिकना से चिकनाहट तदुप्तर-वि० [सं०] उसी बाद । उरा पतिरिक्त । उ०-कठिन पादि। (४) नवाचक-जिससे किसी प्रकार की न्यूनता या हैपपना सर्फ तुम्हें समझाना। यह मेरा है पूर्ण, वदुत्तर लघुता पादिका बोष होता है। इसमे समा के प्रत में 'क', परलोको का फोन ठिकाना ।-इत्यलम्, पृ०२१८। 'इया' मावि लगा देते है और 'पा' को 'ई' से पदल देते हैं। तदुपरांत--क्रि० वि० [सं० सद्+उपरान्त] उसके पीछे । उसके बाद वैसे,-सूक्ष से पक्षक, फोडा से फोडिया, डोला से होगी। तदुपरि-वि० [सं०] ससके ऊपर । उसने बाद । उ०-कष्टों में पल्प (५) गुणवाचक-जिससे गुण का दोष होता है। इस सज्ञा उपसम भी पलेपा को है घटाना। षो होती है तदुपरि व्यया * अंत में 'मा', 'इक', 'इत', 'ई', 'ईला,' 'एला', 'ल', 'वन', सो महादुमंगा है।-प्रिय०, पृ० १२२॥ 'वान', 'दायक', 'कारक', मादि प्रत्यय लगाए जाते हैं । जैसे, तद्गत-वि० [सं०] १ उससे संबष रखनेवाला । उस सब का। ढढ से ठढा, मैल से मैला, शरीर से शारीरिक, मानद से २ उसके भतर्गत । उसमें व्याप्त। आनंदित, गुण से गुणी, रंग से रंगीला, घर से घरेलू, पया से सद्गुण--संशा पुं० [सं०] एक पालकार जिसमें किसी एक वस्तु दयावान्, सुख से सुखदायक, गुण से गुणकारक मादि। का प्रपना गुण त्याग करके समीपवर्ती किसी दूसरे उत्तम २ वह पान्द जो इस प्रकार प्रत्यय लगाकर बनाया जाय। पदार्थ का गुण प्रहण कर लेना वर्णित होता है। जैसे,—(क) तद्धित-वि० एसके लिये उपयुक्त (को०] मघर धरत हरि के परत मोठ वीठ पट जोति । हरित तबल-सक पुं० [सं०] एक प्रकार का राण। बस की बांसुरी इंद्रधनुष सी होती।-विहारी (पन्द०)। तदभव-धा [सं०] भाषा में प्रयुक्त होनेवाला सस्कृत का वह इसमें बांस की बांसुरी का पपना गुण छोड़कर इधनुष का शब्द जिसका प कुछ विकत या परिवर्तित हो गया हो। गुण पहण करना वरिणत है। (ख) बाहिरै बागत सी जमुना सस्कृत के शब्द का प्रम्र थप। जैसे, इस्त का हाय, षम पुरेपहम यह नी । यो पदमाकर होर हारन गग प्रश्र का पासू, मषं का पाषा, काष्ठ का काठ, कपूर का तरगन को सुख देनी। पायन के रंग सौ रंगि पात सुभातिहिं कपूर, हत का धी। स्वात पना। पर पहा हा पहा वह बाल वहा वह तद्यपि-प्रध्य० [सं०] तयापि । तो भी। तास में होत पिबेनी।-पाकर (शब्द॰) । यहाँ तालक तदप-वि० सं०1 समान । सध्या वैसा ही। उसी प्रकार का। जल का पासों, हीरे, मोतीहारों पोर तलवों के ससर्ग, तापता-सावी. [सं.] सादृश्य । समानता। उ.-जानि जुग कारण त्रिमेणी का रूप धारण करना कहा गया है। जूप में सूप तद्रूपता बहुरि करिहै कलुष भूमि भारी।-सूर वपि-प्रम्य० [हि.] दे वपि'। उ०-पप उब अम्यो (सम्ब०)।