पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/३७६

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तयारी २०११ तरंडा, सरंडी-साको [• तरएडा, तरण्डी] १. नौका । नाव । २. बेडालिका तरंत-संकस तरन्त] १. समुद्र। २. मेढक । ३. राक्षत। ४. और की वर्षा (को०)। ५ भक्त (को०)। । तरंती-सा मो०/[सं० तरन्ती] नाव । किश्ती। वरंतुक-सा पुं० [सं० तरन्तुक ] कुरुक्षेत्र के अंतर्गत एक स्थान का नाम। तरंबुज-सच्चा पुं० [सं० तरम्बुज] तरबूज । तरहुत-क्रि० वि० [हि. तर + हुँत (प्रत्य॰)] १. नीचे । २ नीचे की तरफ रॅहत-वि०१ नीचेवाला। नीचे की तरफ का। २. नोचा। तर-वि० [फा०] १. भीगा हुमा। मा। गीला । जैसे, पानी से तर करना, तेल से तर करना। यो०-तर पतर-भीगा हमा। २. शीतल । ठढा। जैसे,--(क) तर पानी, तर माल। () तरबूज खालो, तबीयत तर हो नाप । ३ जो सुखा न हो। ७ तयारी -सहा सो• [हिं० ] दे० 'तयारी'। तय्यार-वि० [हिं०] ३० 'तयार'। उ.-कोर्मा ऐसा लपीज तैयार हमा-ममम, भा० २,५०८४। वरंग-सबी० [सं० वरङ्ग] १. पानी की यह उछाल जो हवा लगने के कारण होती है। बहर । हितोर । २ मौष। क्रि० प्र०-उठना। पर्या-भंग । कमि । उर्मी। विपि । वीपी। हप्ती । सहरी। भृपि । उत्कलिका । जललता। २ सगीत में स्वरों का चढ़ाव उतार । स्वरलहरी । उ.- वह भांति तान तरग पुनि गषवं फिन्नर लाजही। -सुलसा (शब्द०)। ३. चित्त की उमग। मन की मौज। उत्साह या पानद की अवस्था में सहसा उठनेवाला विचार । जैसे,- ( क ) भग की तरंग उठी कि नदी के किनारे चलना चाहिए । ४. वस्त्र । कपड़ा । ५. घोड़े पादि को फलांग या उछाल । हाय में पहनने की एक प्रकार की चूलो जो सोने का ठार उमेठकर बनाई जाती है । ७. हिलना डलना। इधर उधर घूमना (को०)। (८) किसी ग्रंथ का विभाग या पध्याय जैसे-कथासरित्सागर में। तरंगक-सा पुं० [सं० तरङ्गक ] [ सी० तरगिका] १. पानी की लहर । हिलोर । २ स्वरबहरी । तरंगभीरु-सहा पुं० [सं० तरङ्गभीरु ] चौदहवें मनु के एक पुत्र का नाम । । तरगवती-सहा पु० [सं० तरङ्गवती ] नधी । तरगिणी। तरगायित--वि० [सं० तरङ्गायित] दे० 'तरगित'। उ०-सुदर बने तरङ्गायित ये सिंधु से, लहराते जब वे मारुतधश झूम है!-करुणा०, पृ०२। तरंगालि-सका बी० [सं० तरङ्गालि ] नदी। तरगिका-सहा खौ• [सं० तरङ्गिका] १. लहा। हिलोर । २. स्वर- सारी । उ.- स्वर मद वाजत घाँसुरी गति मिलत उठत तरगिका ।- राधाकृष्ण दास ( शब्द०)। तरंगिणी'-सका स्त्री [सं० तरङ्गिणी ] नदी । सरिता। यौ०-तरंगिणीनाथ, तरगिरणीभा-समुद्र । तरगिणी-वि० तरगवानी। तरंगित-वि० [.तरङ्गित] हिलोर मारता द्वधा । लहराता हुआ। नीचे ऊपर उठता हुमा । तरंगिनी-सा सं० [सं० तरङ्गिणी ] नदी। तरंगी-वि० [सं० तरङ्गिन् ] [स्त्री हरपिरिण] १ तरगयुक्त। जिसमें लहर हो। २ जैसा मन में भावे, वैसा करनेवाला। मनमौजी। पानयो। लहरी। बेपरवाह। उ०-नाहि गावहिं गीत परम तरगी भूत सघ ।--मानस, १ । ६३ । तरंड-Hधा पुं० [सं० तरएड] १ नाव। नौका । २ मछली मारने की डोरी में बंधी हुई लकडी को पानी के ऊपर तैरती रहती है । ३. नाव खेने का डाँडा। ४ वेडा (को०) 10 यौ०-तरडपावा-एक प्रकार की नाव । यौ०-तर व ताजा = टटका | तुरत का। ४. भरा पूरा । मालदार । पैसे, तर असामी । तर-सबा पुं० [सं०] पार करने की च्यिा । २ 'मग्नि । ३ बुक्ष। ४ पथ। ५ गति 1 नाव की उतराई। ७. घाट को नाव (को०)। ८ बढ़ जाना (को०)। पराजित करना । परास्त करना (को०)। त -क्रि०वि०० तल] तले । नीचे। उ...--कौन बिरिष्ठ तर मीजत होइ राम लपन दुनो भाई।-गीत (शब्द॰) । तर-प्रत्य [0] एक प्रत्यय जो गुणवाचक शब्दों में लगकर दूसरे फो अपेक्षा प्राधिक्य (गुण मे) पिन करता है । जैसे, गुरुतर, पधिकतर, श्रेष्ठतर । तरई-सक्षा श्री• [सं० तारा] नक्षत्र । तरक-सपा स्त्री० [सं० तएडक] दे॰ 'तडक' । तरक-मश स्त्री [हिं० तकना] दे० 'तड़क' । तरक-सच्चा पुं० [सं० त] १. विचार। सोच विचार। उधेड़बुन । राम रचि राखा । को करि तरक बढ़ावदि साना ।-तुलसी (शब्द०)। क्रि० प्र०-करना। २. उक्ति । तर्फ । पतुराई का वचन। घोजकी बात । उ०-- (क) सुनत हंसि पले हरि प्रफुचि भारी। यह को पाग हम प्राइहें गेह'तुव तरफ जिनि रहो हम समुभिडारी।-सूर (शब्द०)।(ख) प्यारी को मुख धोई के पट पॉछि सवारपो तरफ वात बहुतै कही कछु सुधि न संभारयो।-सूर(शब्द०)। सरक-सशा स्त्री० म० तर ( = पथ)] वह अक्षर या शब्द जो पृष्ठ या पन्ना समाप्त होने पर उसके नीचे किनारे की भोर मागे के पृष्ठ के प्रारम का अक्षर या शब्द सूचित करने के लिये लिया जाता है।