पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/३७८

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तरजनी' २०२४ तरन । अपटमा । उ०-गरपति तरपनिन्ह तरजत बरषत सयन नयन तरणिधन्य-सका पुं० [सं०] शिव [को०] । कोए।-नसी (पन्य.) २ भला बुरा कहना । बिगड़ना। तरणिपेटक-सफा पुं० [सं० ] वह पात्र या कठोता जिससे नाव का। ३ गरजना। उ.-सिंह व्यानोका तरजना जिसे सुन पानी उलीचा जाता है [को०] । विचारी कोमल भालामो मे हषय का लरजना-इस दुर्ग के तरणिरत्न-सक्ष पुं० [सं०] मारिणक्य [को०] । or Ho Taimarti गुर्षोही बैठेठे सुभदो।-श्यामा०,१०७१! तरणिमत-सज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य का पुत्र । २. यम । ३. शनि।। तरजनी'-सा बी०सी ] अंगूठे के पास की पली। 10- ४ कणं। (क) पहा कुछ पतिया कोट नाहीं। जे तरखनी देखि मरि तरणिसुता-सझा स्त्री० [सं० ] सूर्य को पुत्रो । यमुना (को॰] । जाहीं।--तुलसी (शब्द.) (ख) सरख परजि जिय तरपनी तरणी-सहा पी० [सं०] १. नोका । नाय । २. पीकुमार । ३. स्थल फुम्हिली शुम्हा को जई है।-तुलसी (शब्द०)। कमलिनी। तरजनी-सशा मी. [सं० तर्जन ] भय । उर । उ०-ग्रहो रे , तरतर-सधा पुं० [ मनु० दे० 'तमवर। उ.-वरखे प्रलप को विहगम पनवासी। सेरे बोल ठरजनी वाति थवनन सुनत पानी, न जात काहू पे बनानी, प्रजहू ते भारी टूटत है तरतर । नोंदक नासी ।—सूर (शब्द॰) । -नद० प्र०, पृ० ३६२ । तरजीला-वि० [सं० सर्जन+हिं० ईला (मस्म०) ] १ तर्जन करने- तरतराता-वि० [हिं० तर] घी में अच्छी तरह इवा हमा (पकवान)। वाला । २. कोष में मरा हमा।३ मच। तेज । उप्र । जिसमें से घी निकलता या बहता हो (वाद्यपदाय)। तरजीह-शा स्त्री॰ [म० तर्जीह ] वरीयता प्रधानता । श्रेष्ठता । उ.-वे व्यापकता के ऊपर गहराई को तरजीह देते हैं।- तरतराना'-सशा सो [ मनु० ] तस्तष्टाना । उ०-- फहरान पुजा मनु असमानु, कै तडित चहूँ दिख तरतरान-सुजान, इति० मोर पालो०,१०८। पू० १७1 सरजुई-सक्षा पौ• [ फा• तराज ] छोटो तराजू । तरतराना -क्रि० प्र० [अनु.] तड़तड़ शब्द इरना । तोडने का तरजुमा-पुं० [अ० तर्जुमह ] पनुषाद । भाषातर । उल्था। सा शब्द करना। तड़तड़ाना। उ.-घहरात तरतरात सरजुमान- '• [प० तर्जुमान] पद्द षो मनुवाद करता है [को०]। । , गररात हहरात पररात झहरात माथ नाये ।.सूर (चन्द०) । तरजहार-वि० [हि.] दे० 'तरजीला'। तरतीब---सबा खी. [१०] वस्तुभो की पपने ठीक ठीक स्थानों तरण-सपा पुं० [सं०] १. नदी मादि फो पार करने का काम । पर स्थिति । यथास्थान रखा या लगाया जाना । क्रम । पार फरवा। २ पानी पर तैरनेवासा तस्ता वेडा । ३ सिलसिला। पैसे,-किता तरतीब से लगा दें। पिस्तार । नखार । ४ स्वर्ष । ५ नौका (को०) ३६ पराजित क्रि०प्र०-करना ।—लगाना ।-सजाना। करना । (फो०)। मुहा०-तरतीव देना=क्रम से रखना या भगाना ! सजाना। तरणतारण-वि० [सं०] १ ससार सागर से पार करनेवाला ७०- तरत्समदीय-सरा खौ० [सं० रत्समन्दीय ] वेद के पवमान सुक्त । मोफ पारण फरण कारण. तरण तारण विष्णु शकर ।- अर्चना, १०५८ । २ नदी या जलाशय से पार करनेवाला। के प्रतर्गत एक सूक्ता विशेष---मनु ने लिखा है कि मप्रतिग्राह्य धन ग्रहण करने या | तरणाक्षप-सज्ञा पुं० [हिं० तरण+सं० पातप] सूर्य को धूप । निपिद्ध अन्न भक्षण करने पर इस सक्त का जप करने से दोष उ तरणातप टोप वगत्तरय । प्रतयब धमक्कत पक्खरियं । मिट जाता है। -रा०६०, पृ० ८१। तरदो-सना खी० [सं०] एक प्रकार का फंटोला पेड । तरणापत-सा पुं० [सं० तरुण, राज. तरण+भापत, हि. तरणा तरदीद-सा धौ० [अ०] १ काटने या रद करने का किया । प्रा० प3 ] ३० तारुण्य' । उ--जिम जिम मन ममले किया मंसूखी। २ खडन । प्रत्युत्तर । सार पळती जाए। तिम तिम मारवणी तपइ, तन तरणापर क्रि० प्र०-फरना ।-होना। याए ।-ठोला०, दु. १२ । तरदुद-सा पुं० [१०] सोच । फिका अंदेशा । चिता खटफा। तरणि-सक्षा ० [सं०] १ सूर्य । २ मदार । ३ किरन । उ०-एक कमरे तक सीमित रहने पर भी माने बानेवाले तरणि'-संश स्त्री० [सं०] ३० 'तरणी। यात्रियों मोर मुझे भी तरदुद रहता 1---किन्नर०, पू०५९ । तरणिक्षमार--संवा पु० [सं०] ३० 'तरणिसुत' । मि०प्र०-फरना।--होना। तरणिजा-सा बी० [सं०] १ सूर्य की कन्या, यमुना। २ एफ मुहा०-सरदुप में पड़ना-निता मे पडना । वर्णवृत्रा का माम बिसफे प्रत्येक घर मे एफ नगण और तरनतो-सजा कौ० [सं०] एक प्रकार का पकवान जा पा मार एक गुरु होता है। इसका दूसरा नाम 'सती' है। जैसे,- वही पे साथ मा ए पाटे की गोलियो को पकाने से नगपती- परसती। बनता है। तरणितनय-सक्षा पुं० [सं०] दे० 'तरणित'। तरन@'- पु. हि.] दे० 'तरण' । तरणितनूजा-शा स्त्री० [सं०] सूर्य की पुत्री, यमुना। सरन-प्रशाहिं॰] दे० 'परीता'।