पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/३९९

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सविड़ी २०४५ तारे ताँतदो-सका सीहि तांत का पल्पा०] तात। बहुत पतला पत्तर करके भाग में तपाकर लाल कर डाले। मुहा०—तांतडी सा-तात की तरह दुबला पतला। फिर उसे क्रमश तेल, मट्ट, कांजी, गोमूत्र और कुलथी की तिवा-सज्ञा पुं० [ हि यात ] प्रांत उतरने का रोग। पीठी में तीन तीन चार बुझावे । विना शोधा हुमा ताबा विष ताँता-सका पुं० [सं० तति (=श्रेणी) अपवा सं० ताति (=क्रम)] से अधिक हानिकारक होता है। श्रेणी। पक्ति । कतार। पर्या-तम्रक । शुल्व । म्लेच्छमुख । द्वयष्ट । वरिष्ठ । उदुंबर। मुहा०—तांता बांधना = पक्ति में बड़ा होना। तांता लगना - विष्ट । प्रवक। तपनेष्ट । भरविंद । रविलौह । रविप्रिय। रक्त । नैपालिक। मुनिपित्तल । मक। लोहितायस । वार न टूटना । एक पर एक बराबर चला पहना। ताति--सहा स्त्री० [हितात ] दे० 'वात'। साँवार-सबा पुं० [म. तपमह. ] मास का वह टुकडा जो बाज मादि शिकारी पक्षियों के पागे स्वाने के लिये डाला जाता है। तातिया-वि० [हिं० तांत ] तौत की तरह दुबला पतला। तविया-संज्ञा स्त्री-[हिं०] दे॰ 'ती'। तातिया--सबा पुं० [वि.] ताँत बजानेवाला । तंतुवादफ । उ०- कई ऋषीर मस्तान माता रहे, रिना कर तांतिया नाद तवी-संशा लो•[हि. तवा], चौडे मुका साँव का एक छोटा परतन । २ तौवे की करछी। गावै। करीर व., भा०पू०६५ ताँबेकारी-सबा सी-[देश॰] एक प्रकार का लाल रंग। बने। पौवाद। वाम-क्रि० वि० [?] सम। 3. विव निसान गज्जिव सु ताँती-संशपु० जुला पड़ा बुननेवाला। वाम -ह. रासो, पु. ५०1 ताँतीसचा स्त्री० [हिं०] 'सात'। उ०—उनमनी तांती व तविता--क्रि० वि० [सं० तावत् ] ३० तावत्' । उ०-जैत फूल पाजन लापी, यही विधि तृप्नो पारी गोरख०, पृ० १०६ । फल पत्रिय पाही। तावत मागमपुर मों पाही!-इंद्रा, पृ० १४1 वॉन -सका स्त्री० [हिं०] दे० 'तान'। उ०-गोपी रीमि . रही रस मानन सो सुघ वृघ सर विसराई।-पोद्दार प्रमि० तॉवर-संवा सौ. [ से. ताप, हिं० ताव] १ ताप । ज्वर । हरारत । २. बाडा देकर मानेवाला बुखार। जूडी। ३ मुळ । ०, पृ० १५१॥ पछाड । घुमटा । चक्कर। ताँवा-मंशपुं० [सं० ताम्न ] लाद रंग की एक पातु जो खानों में क्रि०प्र०-माना। गधक, घोहे तथा पौर द्रव्यों के साथ मिली हुई मिलती है। . ताँवरि -सका स्त्री० [हिं०] दे० 'ताघर'। १०-फिरत सीस विरोप-यह पीटने से बढ़ सकती है मौर इसका तार भी खींचा घखु भा मंधियारा । तावरि प्राइ परी बिकरारा ।-चित्रा०, जा सकता है। ताप और विद्युत के प्रवाह का संचार व पर पृ. १२३ । बहुत मधिक होता है, इससे उसके सारों का व्यवहार टेनिग्राफ . तावरी-संवा स्त्री० [हिं० ] दे० 'तावर'। प्रावि में होता है। तवे में घौर दूसरी पातुर्मों को निर्दिष्ट तॉवरो-सवा पु० [हि.1दे० 'तावर'। उ०-ज्यो सुफ सेव मास मात्रा में मिलाने से कई प्रकार की मिश्रित धातुएं बनती है। बैसे, रोगा मिलाने से कमा, बस्ता मिलाने से पीतल । फई लगि निसि पातर हठि चित्त लगायो। रीती परचो जबै फल प्रकार के विलायती सोने भी ताव से बनते हैं। खूब ठही। घाल्यो, उहि गयो तुल तावरो प्रायो।-सूर०, ११ ३२६ । जगह में ताना पोर जस्ता बरावर बराबर लेकर गला शले। वासना-क्र० स० । स. नास हाटना। पास देना। फिर गली हुई धातु को खूब घोटे मौर थोडा सा जस्ता और धमकाना । माल दिखाना । २ कुव्यवहार करना । सताना। मिला दे। घोटो घोटने कुछ देर में सोने की तरह पीला हो जैसे, साम का बहू को तोसना । जायगा। तवे की खाने ससार मे घडत स्थानों में है जिनमे तसा -समा पुं० [ देश० ] एक प्रकार का बाजा । झाम। भिन्न भिन्न पौगिक द्रों के अनुसार भिन्न भिन्न प्रकार तोह-सर्व०-[सं० तत् ] वो । सो (वह) सर्वनाम के कर्मकारक को ताबा निकलता है। कही घूमले रंग का, कही बैंगनी रंग का बहुवचन : उ०-पाडा डूंगर वन घणा, ताह मिलिज्जइ का, फही पीले रत का। भारतवर्ष में सिंहभूमि, हजारीबाग, कम ।-ढोला०, दू०, २१२ । जयपुर, अजमेर, कच्छ, नागपुर, नेल्लोर इत्यादि मनेक चाँही-कि० वि० [हिं० ] दे० 'ताई' । उ०-जो प्रतरजामी. स्थानो में तथा निजता है। जापान से बहुत अच्छे तीये के दिंग माही। का करि सके इव्र इन ताही।-नक्ष. १०, पत्तर बाहर जाते हैं। पृ० १६२। हिंदुओं को यह तादा पहुत पवित्र पातु माना जाता है, पत. ता'-प्रत्य० [सं०] ए भाग्वाचक प्रस्पय जो विशेपण पौर सज्ञा उसफे परधे, पचपान, कलश, झारी प्रादि पूजा के बरतन धब्दों के मागे लगता है। चणे,-उत्तम, उत्तमता, सत्रु, बहुत बनते हैं। डाक्टरी, हकीमी और वैद्यम दीनो मत की शत्रुता, मनुष्य, मनुष्यता। रिकिश्यामों में बिका व्यवहार भनेक रूपों में होता है। तार--मन्प.[फा०] ठक। पर्यंत । उ०-(क) फेस मेघावरि पायुर्वेध मे ताया शोधने की विधि इस प्रकार है। तदेका सिर ता पाई । चमहिं दसन दोजु की नाई।—जायसी ४-४९ स