पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/४०९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

वानर २०५४ सापत्र तनी। बंद। उ०--कंचुकि चूर, चूर भर तानी । टूटे हार बनाया गया है जिसके भीतर पारा रहता है जो भाषिक परमा मोति छहरानी।-जायसी (शम्द.)। पाने से ऊपर चढ़ता है और गरमी कम होने से नीचे गिरता है। तानूर-पापु० [सं०] १. पानी का भंवर । २ वायु का भंवर । २. पाँच । लपट । ३ ज्वर । युसार। वानो-संह पुं० [ देश०] जमीन का ट्रकहा जिसमें कई खेत क्रि०प्र०-पदना। हो। पक। यो०-तापतिल्ली। वान्व-सहा पुं० [सं०] १. तनुज । पुत्र । २ एक ऋषि का नाम ४ कष्ट । दुख । पीड़ा । जो तनु के पुत्र थे। विशेष-ताप तीन प्रकार का माना गया है-पाध्यात्मिक, ताप-सहा पुं० [सं०] १ एक प्राकृतिक शक्ति जिसका प्रभाव माधिदैविक भोर माधिभौतिक। वि० दे० 'ख'। उ०- पदायों के पिघलने, भाप बनने मादि व्यापारो में देखा जाता है वैहिक, दैविक, भौतिक तापा। रामराज काहि नहि। पौर जिसका अनुमव भग्नि, सूर्य की किरण मादि के रूप में व्यापा।-तुलसी (शब्द०)। इद्रियो को होता है । यह मग्नि का सामान्य गुण है जिसकी ५ मानसिक कष्ट । हृदय का दुख (जैसे, शोक, पछतावा अधिकता से पदार्थ जलते या पिघलते हैं। उता। गर्मी। पादि) । उ.-एकही प्रखर जाप ताप हरतु है।- सेज। संतवाणी०, पृ० १०७। विशेष-ताप एक गुण मात्रा है, कोई द्रव्य नहीं है। किसी वस्तु सापक-पश्चा पुं० [सं.] १ ताप उत्पन्न करनेवाला । उ.-तापक को तपाने से उसकी तौल में कुछ फर्क नही पड़ता । विज्ञाना- जो रवि सोषत है नित कज ज्यू ताहि देख्या विकसाहीं।- नुसार ताप गतिशक्ति का ही एक भेद है। द्रव्य के प्रणुमों में राम धर्म०, पृ. ६२ । २. रजोगुण । जो एक प्रकार की हलचल या क्षोभ उत्पन्न होता है, उसी का विशेष-रजोगुण ही ताप या दु.ख का प्रतिकारण माना मनुभव ताप के रूप में होता है। हाप सब पदार्थों में थोड़ा जाता है। बहुत निहित रहता है। जब विशेष अवस्था में वह व्यक्त होता है, तब उसका प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। जब शक्ति के ३ ज्वर । बुद्धार। संचार मे रुकावट होती है, तब वह ताप का रूप धारण तापक्रम- पु० [सं० तापक्रम ] १ शरीर के तापमान करती है। दो वस्तुएं जब एक दूसरे से रगड़ खाती है तब का पढ़ाव उठार। २ वायुमाल की गरमी का उतार जिस शक्ति का रग में व्यय होता है, वह उष्णता के रूप चढ़ाय [को०] । में फिर प्रकट होती है। ताप की उत्पत्ति कई प्रकार से होती तापढ़ना-क्रि० स० [ हि० ताप] सताप देना। 30-सेन है। ताप का सबसे बड़ा भागार सूर्य है जिससे पथ्वी पर ममगर तापढ़े पाप गयो खह मग ।-रा०४०. प.1001 धूप की गरमी फेवती है। सूर्य के अतिरिक्त ताप सघर्षण तापति-मव्य० [सं० तसश्चात् ] उसके बाद । तत्पश्चात् । उ.- (ड), वाइन तपा रासायनिक योग से भी उत्पन्न होता सुरत रस सुचेतन बालमु तापति सवे प्रसार ।--विद्यापति, है। यो जटियों को रगड़ने से मोर पक्रमक परपर पादि पृ०२३६।। पर हथौड़ा मारने से भाग निकलते बहुतों ने देखा होगा। तापतिल्ली-संभा को [हिं० ताप (=ज्वर)+तिल्ली ] ज्वरयात इसी प्रकार रासायनिक योग से मत एक विशेष द्रव्य प्लीहा रोग। पिलही पढ़ने का रोग। साथ दूसरे विशेष द्रव्य के मिलने से भी भाग या गरमी पैदा तापती-सका श्री० [सं०] १ सूर्य की कन्या तापी। २, एक नदी हो जाती है। सूने की पली में पानी हासने से, पानी में का नाम जो सतपुडा पहाड से निकलकर पश्चिम की भोर वेषाव या पोटाश डालने से गरमी या लपठ उठती है। को बहता हुई खभात की खाड़ी में गिरती है। पापका प्रधान गुण यह है कि उस पदापों का विस्तार कुछ विशेष-स्कदपुराण के तापी खंड मे तापती के विषय में यह बढ़ जाता है पर्यात् वे कुछ फैल पाते हैं। यदि खोहे की कया लिखी है। अगस्त्य मुनि के शाप से वरुण सवरण नामक किसी ऐसी घ7 को में जो किसी थेर में कसकर बैठ सोमवशी राजा हुए। उन्होंने घोर तप करके सूर्य की कन्या जाती हो और उसे तपावें तो वह उस व में बहीं घुसेगी। तापी से विवाह किया जो भत्यत रूपवती पौर तापनाशिनी परमी में किसी सेष बलती हुई गाली पहिए की थी। वही तापी नाम से प्रवाहित हुई। जो लोग उसमें हाल जव ढोबी मालुम होने लगती है, तब उसपर पानी स्नान करते हैं, उनके सब पातक छूट जाते हैं। प्राषाढ़ मास पालवे, जिसमें उसका फैलाव घट बाय। रेख की में इसमें स्नान करने का विशेष माहात्म्य है। तापीखड में लाइनों के जोड़ पर वो थोड़ी सी जगह छोड़ दी जाती है, तापती के तट पर गजतीर्थ, अक्षमाला तीर्थ मादि अनेक वह इसीलिये जिसमें गरमी में साइन लोहे फैबफर ठन तीर्थों का होना लिखा है। इन तीर्थों के मतिरिक्त १०८ जार्य। जीवों को जो ताप का अनुभव होता है वह उनके महालिंग भी इस पुनीत नदी के तट पर भिन्न भिन्न स्थानों शरीर को प्रवस्या के अनुसार होता है. भ. पणेंद्रिय द्वारा में स्थित बतलाए गए हैं। ताप का ठीक ठीक अपाज सदा नहीं हो सकता। इसी से तापत्रय-संवा पुं० [सं०] तीन प्रकार के ताप-प्राध्यात्मिक, माथि पाप की मात्रा नापने के लिये पर्मामीटर वाम का एक पत्र दैविक, पौर प्राधिभौतिक।