पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/४४१

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विरकना २०६५ तिरदेव तिरकना -क्रि० म० [ मनु० ] तहकना । घटखना । फट जाना। विशेप-बद लोगों की दृष्टि बचाकर किसी भोर ताकना होता विरकसा-वि० [२० तिरस् ] टेढ़ा । है, तब लोग, विशेषत प्रेमी लोग, इस प्रकार की दृष्टि से सिरकाना-क्रि० स० [मनुध्व.] 1. ढोला छोड़ना। -(लश०) । २. देखते हैं। रस्सी ढीली करना । लहासी छोडना ( लश.)। तिरछी नजर-दे० 'तिरछी चितवन' । उ-हुए एक मान में विरकुटा-सक्षा पुं० [सं० त्रिकट ] सोंठ, मिर्च, पीपल इन तीन करई जख्मी हजारो। जिधर उस यार ने तिरछी नजर की। --- मोपषियों का समूह । कविता को०, भा.४, पृ० २६ । तिरछी बात या तिरछा विरकटी-सशास्त्री० [हिं० दे० 'त्रिकुटी'130-झिलिमिलि वचन = कटु वाक्य । पप्रिय शब्द । उ.--हरि उदास सुनि झल के नूर तिरकुटी महल मे।-पलटू०, पृ. ६४ । तिरीछे। -सबल (शब्द०)। २ एक प्रकार का रेशमी कपडा जो प्राय प्रस्तर के काम मे तिरफोन --सहा पुं० [हि. ] दे० "त्रिकोण' । १०-त्रिगुन रूप भाता है। तिरकोन यत्र पनि मध्य विदु शिवदानी !-प्रेमघन॰, भा.२, 1.पा.७ तिरछाई-सहा-सी० [हिं० ठिरया + ई (प्रत्य०) तिरछापन । पु. ३४६ । तिरछाना-क्रि० स० [हिं० तिरछा] तिरछा होना। तिरखा -सा सी० [सं० तृषा ] दे० 'तृषा' । तिरछापन-सहा पुं० [हिं० तिरछा+पन (प्रत्य०)' तिरछा होने विरखित -वि० [सं० तृषित ] दे॰ 'तृपित' । का भाव। तिनस टा–वि० [सं० वि+हिं० खूट] [वि. बी. तिरखूटी] जिसमें तिरळी-विवाहतिरछा 10 तिरछा। तीन ठूट या कोन हों। तिकोदा । तिरछी-सवा स्त्री॰ [देश॰] मरहर के वे अपरिपक्व दाने जिनकी विरगण -वि० [हिं०] दे० 'निगुण' । ७०-नौ गुण सुत दाल नहीं बन सकती। इनको मलगाने के बाद चूनी बनाकर संयोग बखान तिरगुण गांठ दवानी |--कवीर ग्रं., रोटी बनाते हैं या जानवरों को खिला देते हैं। पृ. १७५। तिरछी बैठक साहा स्त्री० [हिं० तिरछो+बैठक] मालसुम की एक विरच्छ-सक पुं० [सं०] तिनिस वृक्ष । कसरत जिसमें दोनों पैर रस्सी की ऐंठन की तरह परस्पर चिरछही-सहा स्त्री० [हिं० तिरछा ] तिरथापन । गुथकर ऊपर उठते हैं। विरछ उड़ी-सह श्री० [हिं० तिरछा + उड़ना ] मालखम की एफ विरह तिरछे-क्रि० वि० [हिं० तिरछा] तिरछेपन के साथ । तिरछापन कसरत जिसमें खेलाडी के घरीर का कोई भाग जमीन लिए हुए। पर नहीं लगता, एक कषा मुकाकर मोर एक पाव उठाकर तिरछौहाँ-वि० [हिं० तिरछा+ौहाँ (प्रत्य॰)] [वि० श्री. तिरछौंही। वह पारीर को चक्कर देता है। इसे छलांग भी कहते हैं। कुछ तिरछा । जो कुछ तिरछापन लिए हो। जैसे, तिरछोही डीठ। तिरछन -वि० [हिं०] दे० 'तिरथा'। १०-हंस उबारं मी तिरलो हल-क्रि० वि० [हिं० तिरछौहाँ] तिरछापन लिए हुए। भ्रम टार तरनी तिरछन सो पारिए ।-स. दरिया०, तिरछेपन के साथ। वक्रता से । जैसे, तिरछौ ताकना । पृ. १०1 र विरणिका-सहा पुं० [सं० तृण] दे० 'तिनका'। उ०-तिरणिका तिरछा-वि० [सं० तिर्यक या तिरस् ] [स्त्री० तिरछी 1 जो मोट सिष्ट का करता जुग देपि लुकाना।-रामानद०, पृ०१६॥ अपने पाधार पर समकोण बनाता हमान गया हो। जो न बिलकूल खडा हो पौरन बिलफूल प्रादा हो। जोन ठीक विरतालोसा-वि० [हिं०] दे० 'सैतालीस'। ऊपर की पोर गया हो और न ठीक बगल की भोर । जो तिरतिराना-कि०म० [अनु० ] वूच बूद करके टपकना। ठीक सामने की पोर न जाकर इधर उधर हटकर गया हो। तिरथ -सक्षा पुं० [सं० तीर्थ ] दे० 'तीर्थ' । उ.-पहली मवरिया जैसे, तिरछी लकीर। बेद पढ़ मुनि ज्ञानी हो। दुसरि भंवरिया तिरथ, जाको निरमल पानी हो।-फबीर श०, भा०४, पृ०४।। विशेप-'देवा' और 'तिरछा' में अतर है। टेढ़ा वह है जो अपने लक्ष्य पर सीधा न गया हो, इधर उधर मुड़ता या घुमतामा तिरदंडी समापुं० [हिं० ] दे० 'त्रिदली-२'उनेम प्रचार पया हो। पर तिरछा वह है जो सीधा तो गया हो, पर करे कोउ कितनी, कवि कोविद सब खुक्खा तिरदडी सरवगी जिसका लक्ष्य ठीक सामने, ठीक ऊपर या ठीक बगल में न नागा, मरे पियास प्री भुक्ख ।-पलटू०, भा०३, पृ०११ । हो। (टेदी रेखा ~ तिरछी रेखा /)। तिरदश-सधा पुं० [सं० त्रिदश ] दे॰ 'त्रिद-21 1०ताकी यो...बाँका तिरमा-छबीला । जैसे, बांका तिरछा बवान । कन्या रूक्मिनी मोहे तिरदशे।-मकवरी०, पृ. ३३४ । महा०-तिरछोटोवी बगल में कई झकाकर सिर पर रखी विरदेवा-सा पुं० [हि०] दे० 'त्रिदेव' । उ०-निराफार यम टोपी। तिरछी चितवन =बिना सिर फेरे हुए बगल की तहा न पाई। तिरदेवन को फोन पलाई 1-कबीर सा०, मोर दृष्टि। पु०४१२।