पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/४४२

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हिरन विरश्चीन गति तिरन सक्ष पुं० [हि तिरना] तैरने की क्रिया या भाव। जहाँ बराबर से ऐसे तीन बडे फाटक हौं जिनसे होकर हाथी, उ०-वृडवे के डर ते तिरन को उपाइ कार।-सु दर० प्र०, घोडे, केट इत्यादि सवारियां प्रच्छी तरह निकल सके। मा० २, पृ०६५५। । विशेष- ऐसे फाटक किलों या महलों के सामने या बड़े बाजारों तिरना-क्रि.म. [ सं० तरण] पानी के ऊपर माना या के बीच होते हैं। ठहरना। पानी में न दूवकर सतह के ऊपर रहना। विरफला-सहा . [ से० त्रिफला 1 दे० 'त्रिफला'। उतराना। उ.--जन तिरिया पाहण सुजह, पतसिय नाम तिरवेनी-मश पी० [सं० विवेणी ] दे० 'त्रिवेणी'। प्रताप-रघु० रू०, पृ.२ । २ वेरना । पैरना। ३ पार विरवो-सबा बी० [हि. विरना ] सिंघ देश की एक प्रकार की होना। ४ तरना। मुक्त होना। नाद का नाम । संयो० किक-बाना तिरवो -सन्ना [हिं. तरना ] तिरने की क्रिया। मुक्ति- चिरनी-संधाश्री. [ देश० या हि तिन्नी १ वह डोरी जिससे प्राप्ति । मोक्ष। उ.-जपं समुझ नित जाय, सागरभव तिरको घाघरा या धोती नाभि के पास बँधी रहती है। नीवी। सहल-रघु० रू०, पृ०२। तिन्ली । फबती । २ स्त्रियों के घाघरे या पोती का वह भाग तिरभंगी.-वि० [हिं० 1 दे० 'त्रिभंगी'।-उ०-फा पहपाना जो नाभि के नीचे पड़ता है। उ०-वेनी सुभग नितबनि कित्ति कंत धीरज तिरमंगी।-पृ० रा०, १ । ७६७ । किति त श्रीम डोलन मंदगामिनी नारी । सथन जघन वाषि नाराबंद तिरनी तिरमिरा-सक्षा पुं० [सं० तिमिर ] १ दुर्वलता के कारण दृष्टि पर यदि भारी।-सूर (पाब्द०)। का एक दोष जिसमें प्रांखें प्रकाश के सामने नहीं ठहरती पोर विरप-सका बी० [सं० त्रि] नृत्य में एक प्रकार का ताल जिसे ताकने में कभी अंधेरा, कभी अनेक प्रकार के रग, मौर कभी त्रिसम या तिहाई कहते हैं। 10-~-तिरप लेति चपला सी छिटकती हुई चिनगारियां या तारे से दिखाई पड़ते हैं। २. चमकति झमकति भूषण पंग । या छवि पर उपमा कह नाही कमजोरी से ताकने में जो तारे से छिटकते दिखाई पड़ते हैं, निरपत विवस प्रमग!-सूर (शब्द०)। उन्हें भी तिरमिरे कहते हैं। ३ तीक्ष्ण प्रकाश या पहरी क्रि० प्र० लेना। चमक के सामने दृष्टि की अस्थिरता। तेज रोशनी में नजर तिरपटा-वि० [ देश०1१ तिरछा। टेढ़ा टिइविडगा। २ का न ठहरना । चकाचौंध । मुश्किल । कठिन । विकट। क्रि०प्र.--लगना। तिरपटा-वि० [देश॰] तिरछा ताफनेवाला। भंगा। ऐंचाताना। तिरमिरा-सधा पुं० [हिं. तेल + मिलना ] थी, वेन या चिकनाई तिरपद -वि. हि.] दे० 'तृप्त'। उ०दरिया पीवै मौत कर, के छोटे जो पानी, दूध या भौर किसी द्रव पदार्थ (पैसे, दाम, सो तिरपत हो जाय !-दरिया० वानी, पु०३१ रसा मादि) के जपर तैरते दिखाई देते हैं। तिरमिराना--कि० माहि. तिरमिरा ] (दृष्टि का) प्रकार के विरपति--सपा स्त्री० [हिं०] दे० 'तृप्ति-१ | उ.---पायो पानी सामने न ठहरना। तेज रोशनी या चमक सामने (पाखौ बुद चोंच ते तिरपति प्यास न जाई !-जग० था. पु० ६६ । का) झपना । पौधना । चौषियाना। तिरपन--वि० [सं० त्रिपञ्चाशद, प्रा. तिपएण] जो गिनती में। तिरमुहानी--सवा स्त्री॰ [हि.] दे० तिमुहानी'। पचास से तीन मोर मधिक हो । पचास से तीन ऊपर। तिरलोक-~-सचा पुं० [सं० त्रिलोक ] दे॰ 'त्रिलोक'। उ०-सकल तिरपन-संगा पुं०१ पचास से तीन मधिक की संख्या का सूचक तिरलोक लौ गावै।-घट०, पृ. ३६६ । " मक जो इस प्रकार लिखा जाता है. -५३ । तिरलोकीसचा क्षी० [हिं० तिरलोक ] ३० त्रिलोकी' 1 . तिरपाई-प्रथा स्त्री. [ से० विपाद या त्रि+पदी] तीन पायो की विरवट-संशा [ देश ] एक प्रकार का राग जो तराने या तिल्लाने ऊपी चौकी । स्टूल । फा एक भेद है। तिरपाल-सधा कुं० [सं० तृण+हि० पालना (=विछाना)स या तिरधर- विहितिरवराना झिनमिल। चकाचौष उत्पन्न सरकडो के लवे पूले जो छाजन मे सपड़ों के नीचे दिए जाते करनेवाला। उ०-दादू जोति धमकै तिरवर ।---दादू., है। मुठ्ठा। • तिरपाल-सा [म. टारपालिन ] रोगन चढ़ा हुप्रा कनवस । तिरवराना-क्रि० प्र० [हिं०] दे० 'तिरमिराना' । राल चढ़ाया हुमा टाट ! तिरवा-सक्षा पुं० [फा०] उतनी दूरी जहाँ तक एक तीर जा सके। तिरपित -वि० [ तुम ] दे॰ 'तृप्त' । तिरवाहा-सा पुं० [सं० तीर+वाह ] नदी के तीर की भूमि । तिरपुटी-सन्ना श्री. [सं० त्रिपुटी] दे० 'त्रिकुटी'। उ.- सिरवाह'-क्रि० वि० किनारे किनारे । तट से विरपुटिय भाल शिल कमल मूर । इह माति सावता तपनि तिरश्चीन-पि० [0] १ तिरछा । २ टेढ़ा । फुटिल। जूर ।-प० स०, १।४५६ । तिरश्चीन गति-सा पुं० [सं०] मल्लयुद्ध को एक गति । कुश्ती सिरपौलिया- ० [सं० विहिं० पोल ( - फाटक)] वह स्यान का एक पैतरा।