पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/४५०

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तिलौंमा २०१४ सिवा तेल लगाकर चिपना करा। उ०-पुनि पोंछि गुलाब तिगेखि कफ द्वारा प्लीहा को बढ़ाता है, तब दिल्ली धड़ पाती फुलेन मंगोछे मे पाछे मंगौछनि के-धव ०, पृ.२.1 पौर मंदाग्नि, जीणं ज्वर पारि रोग साथ मग पाते। तिौछा-वि० [हिं० तेन+मौछा (प्रत्य॰)] जिसमे तेन का जवाखार, पलास का क्षार, शस की भस्म प्रादि बीहा। सा स्वाद या रंग हो । वैसे, तिोंछा फल । पायुर्वेदोक्त मौपष हैं। डाक्टरी में दिल्ली बढ़ने पर कू तथा पार्सेनिक ( पंबिया) और बोहा मिली हवाएँ तिलौनील-वि० [हिन] सुगषित। १०-पाछी तिमौनी नाती है। म अंपिया गसि पोवा की बेनि विरामति मोइन ।- पो०-प्लीहा । पिलही। घनानंद, पृ०२७। तिलौरी-समा श्री. f. तिसरी उद या मूग की वह विन्तोमा मी० [सं० तिल ] तिल नाम का प्रश्न या वेलहन वि० दे० 'तिल'। परी जिसमें कुछ दिन भी मिला। विशेष-इसमें चमन भी पड़ा रहता और या घी में तबार वित्ती-पका सौ. [ देश ] प्रकार का वास वो मामाम परमा में ऊंची पहाड़ियों पर होता है। पाईबानी है। विल्य-महापुं० [सं० ] तिल का । -विनय, बिशेष- येर पचास साठ फुट तक ऊंचे होते है और हर ममसी पपौर पीना घेतों को कम वित्य देषीन... गाँठे दर दर पर होती है, इस ये घोंगे रवा काम कहते थे।-सपूर्ण अभि.प्र., पृ. २४ । पषिक पाते। तिव्य-वि० तिब की खेती योग्प [को०] । तिल्ली- बो• [हिं.] दे० पीबी'। तिम्लना-सह पुं० [?] तिसका नाम सा वसूवृत्त । तिल्लोतमाल-सबा श्री.[हिं०1३. सिबोत्तमा'। उ.- तिलार-सहा पुं० [देश॰] एक प्रकार की पोर चिपिया पिसे वर प र विल्बोतमा धारबई गोवारी . ..पा.' भी कहते है। तिन्ता-सा पु. . विमा] १ बावजया वादये पावि विल्व- पुं० [सं०] मोघ । बोध । तिल्पक-सशपु० [सं.] 1. लोध । २ विविध । बी०-तिलवार । विल्हारी -समसौ. [?] झालर की तरह का वह परदा २ पबड़ी दुपट्टे या पानी माविका वह पंचर विपमें कवायत्त घोडो के माथे पर उनकी प्रारों को मविक्षयों बचावे पाबावले पाविना काम किया हो। । वह सुपर पदार्थ बो बियेफा पाता है। नुकता । किसी वस्तु की शोभा बढ़ाने के लिये उसमे जोर दिया जाय । तिवहारल-सबा पुं० [हिं०] दे० 'त्योहार'। उ.--होली विवहा यौ०-बसरा तिलवा। की रयत पञ्चमी है।-प्रेमपन०, भा० २, पृ० 116 तिमा-सा पुं० २० "तिलका' (वयबस)। विवादी-सशपुं० [हिं०] २० "विवारी' सिस्ताना--सबा पु० [.] दे० 'बराना'-11 तिव -पप. fro] दे० 'तिमि'। १०-उछ पाणीज माचली बिव गांगु तिष उठ्छु झवि ।-धी. रासो तिल्ली'- बी.[• तिषक, खमीय प्र. विहान(-विल्बी)] पृ० ४। पेट भीतरमा प्रवयव बो मारकी पोली गुठती प्राकार तिवरल-सहा को• [सं० मी ] श्री । फा होता है पोर पसलियों के नीचे पेठ की पाईपोर होता है। तिगईल-सभा सौ. [ सं० श्री ] श्री। विशेष-इसका सब पापायय होता है। इसमें साप र परार्थ का विशेष रस छ बाबतक पता।बबटक पर तिवाना--मिल पा [हिं०] दे० 'वेवाना'। .--64 जुन रस रहता है, पवन तिमी फबार पपड़ी हर राती मन किग विवाना ।-मवीर सा०, पृ.७४। । फिर पब इससको रसमोर येता, फिर तिवार-~पण्य. [] वा । तपासबार र समय । 3.- क्यों की त्यो हो पाती है। तिम्ची में पहुंचकर रहकगिकापों पम राज पब्धि पी तिवार। नपराज प्रभुत विधार का रंग बैगनी हो पाता है। ---पृ० रा०, २४१ १ ज्वर के चार तारा तिम्लीबह बावीसमे रक्त तिवारी'-- पुं० [सं०रिपाठी ] [स्त्री० तियराइम ] त्रिपाठी' मविपा जाता है पौरभी कपी ने पीश भी होती है। ऐसी प्रवस्या में उसे छेदने से उसमे से लास रक्त तिवारी सका श्री• [हिं० तिवारा ] वह घर या कोठरी जिस निकलता है। उपर मादि के कारण बार बार अधिक रक्त तीन द्वार हों। उ०-फूलनि के खभ फूलनि नी तिवारी।- बाते रहने से ही दिल्ली बढ़ती है। इस रोग में मनुष्य दिन छीत. पु२७ दिन दुबला होता जाता है, उसका मुंह सूखा रहता है और तिवासा-सक्षा पुं० [सं० प्रिवापर ] तीन दिन । उ०-मन फाद पेठ निकल माता है। वैद्यक के अनुसार जब दाहकारक तथा बाय बरे मिटै सगाई साक। बेठे दूध तिवास को उलाद कफकारक पदार्थों के विशेष सेवन से रुधिर कुपित होकर . हुमा जो भाक।-कबीर (शब्द॰) ।