पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/४५१

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दिवासी २०१५ विसाया दिवासी-वि० [हिं०1०"तिबासी। तिष्षिय-वि० [हिं०] दे॰ 'तीक्षए । उ०-मसिय मुष्प ववलिय विविक्रम-मा. [सं० त्रिविक्रम ] दे॰ 'विविक्रम' | उ.---दुज तरुन तिष्यिय पाषारिप-पु० रा०२१५३। कनौज कुल कस्यपी, रतनाकर सुत धीर। बसत तिविक्रम पुर तिस--सर्व [सं० तस्प, पा. विस्सं, मा. छ, तिस्स ] 'ता'का सदा, तानि तनूजा तौर-भूषण, पृ० १८ । एकपको से विभक्ति बाने के पूर्व प्राप्त होता है। वैसे, तिबी-संचाबी [दे० ] सारी। तिसने, तिसको, तिसरे इत्यादि । विशनाला-संवा पुं० [म. तथनी (नुरा भला कहना)] ताना। विशेष-अब इस पनप्रकार का व्यवहार गय में नहीं होता, मेहना। स्यल तिसपर' का प्रयोप होता है। किप्र०-देना।-मारना । पहा --तिस पर-(1) उसके पीछे । उसके उपरांत । (१) पौ०-ताना तिशना। इतना होने पर। ऐसी पयस्मा मे।से,-(क) हमारी पोष विरावा'--[फा०विशनह ] 1. प्यासा | तृषित। २. प्रतृप्त । बोले पए, तिसपर हमी को बातें मी सुनाते हो। (ख) मसंतुष्ट। इतना मना किया, तिसपर भी वाचला पया। बो०-विपना काम- (१) तृपित। (२) सफजमनोरथा तिसली . [सं० तृप] ३. 'तपा'। ३०-रिव हितमब सिपा भिमर- (1) प्रसफलकाम। (२) अफ्लिापी। उहार पार्नेगर र परस्ट पार विस तेरे। -पाय, विना सू-खुर का प्यासा । भारमा पाइ। विपर पृ० १९४। रोदार दर्शन की तृषा। दिसखुटा-संच मी. [हिं० तीसो+खूटी] तीसी पौषों बोटे विरानावर -वि० [फा• हिमानहबब] १.बहुत प्यासा । तृषित। छोटे ठल वो फसबकटने पर जमीन मे गढ़े रह जाते है। २. इच्छुक । उ०—मारजु प पश्मए कौसर नहीं। विषनाज वीसी की छूटो। हूं सरबते दोदार का। कविता को०, मा. पृ० । विसखुर-साडी. [हिं.] दे॰ 'तिसमुट'। विश्नाह संवा नी. [हि.] दे० 'तृष्णा'। उ०-यह तरंग तिसरना--कि. [सं. तिष्ठस्थित रहना। उ.--ज्योर तिलाइ राग बह ग्रेड कुरवी।-पृ. रा०, ११७६७। पोड़ा सैण जग, वैरीपणा वसंत। विसट दिन पोड़ा तिथे, विषम भी . Eि.] दे॰ 'तृषा'। -जप सूखे तव ही पाखै पत प्रसत ।-की• पं.भा. पृ०११।। विष वायै।-प्राया, पृ० १५॥ विसडीला--वि० [हिं. तिस+हो(प्रत्य॰)] सी। सवयी । सिष्टीक. ए० [सं० तिष्ठित ] स्पापित । निमित। 30- उ.-नारी इस वीर उमें नर में, विसी न सबी सुपनतर कोडकर यह कान उपावत कोटक यह ईश्वर तिष्टी।-- में।---रघु००,१०१३३ । सुवर... मा० ३, पृ. ६१९ । विष्ठद्गु-सपु०सै० बहकान पिसमें गौएँ परकर प्रपने खटे विसना-सा बी० [सं• तृष्णा] दे० 'तृष्णा'। पर मा वाती है। पध्या । सायंकामा गोधुली । तिसरा- विहिं० दोसरा ] [वि.सौ.तिसरी ] दे० 'तीसरा। विष्टदोम-समा० [सं०] एक होम या यह विसमें पुरोहित बरा उ.-सो प्रगटिव पिजप करि हि तिसरे मध्या- राकर पाहुति प्रचार करता है (को०)। ब. पु. २३१॥ तिष्ठना-- किस तिष्ठा ठहरला। उ.-चौदा भुवन एक तिसराना--कि• स० [हि. तिसरा से नामिक धातु ] तीसरी बार . पति होई । भूत द्रोह तिष्ठ नाई कोई । —तुलसी (शब्द॰) । करना। तिष्ठा-य . .] विस्ता नाम की बदी बो हिमालय के तिसराय--कि० वि० [हिं० ठिसरा ] तीसरी बार। पास से निकचकर नवागज के पास गया से मिलती है। तिसरायव--सा गै० [हिं० वीसरा+मायत (प्रत्य॰)] तीसरा विष्य'-सा पुं० [सं०] १ पुष्य नक्षत्र । २. पौष मास । ३. होने का भाव । गैर होने का भाव । २. मध्यस्प । बिरसा । कलियुग।४ प्रयोकभाई का नाम (को०) I n tीसरात प्रत्य11ोपामियों विम्य-विक मांगल्य । कल्याणकारी। २. माग्यवान (को०)। ३. झपर से प्रलप एक तीसरा मनुष्य । तठस्य । मम्ममा तिन्य नक्षत्र में उत्पन्न (को०)। २.तीसरे हिस्से का मालिक। विष्यक-मा.[0] पौष मास । तिसा- साहि01. 'तृषा' । उ-ता विसा मनी, विष्यकेतु-सका पुं० [सं० ] शिष [को०) । मिपारे । विषयन दोन देव प्रतिपार।--नद.प्र.पू. २१२॥ विप्यपुष्पा--का-[] मामलको । तिसाना-क्रि० प्र० [सं० तृपा ] प्यासा होना । तृषित होगा। विष्यफला-सबा बी. [सं०] भामलको (को०] । १० देसि विभुति सुख उपज्यो भभूत को पस्यो मुख तिघ्या-संशोस.] १ पामलको । २ दीप्तिमको माधुरी के लोपन विसाये है।--प्रिया (चन्द०)। विष्षन-वि० [से. तीण] ३. 'तीक्ष्ण' । १०-लष्य में पप्पर विसाया --वि•सहि. विसाना] तृषित । प्पासा । -गम, तिम्पन तेज जे सूर समाज में पान गने हैं। -तुलसी पहिल्या सल्मा में कहाया। सारा कामपानी सून मेटाका विसाया।-हिसार, पु.५७ ।