पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/४७

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जप १६६० अफौरी जप-महा पुं० [सं०] [वि० जपतव्य, अपनीय, जपी, जप्य] १. किसी जपमाला-सझा स्त्री॰ [सं०] वह माला जिसे लेकर लोग जप करते हैं। मन या वाक्य का बार बार धीरे धीरे पाठ करना। २ पूना विशेष-यह माला संप्रदायानुसार, रुद्राक्ष, कमलाक्ष, पुत्रजीव, या संध्या मादि में मत्र का सख्यापूर्वक पाठं फरना । स्फटिक, तुलसी आदि के मनको की होती है। इनमे प्रायः एक विशेष-पुराणों में जप तीन प्रकार का माना गया है-मानस, सौ पाठ, चौवन या भट्ठाईस दाने होते हैं और बीच में वहाँ उपांशु और याचिका कोई कोई उपाशू मौर मानस पके गांठ होती है यह एक सुमेरु होता है। हिंदुओं के प्रतिरिक्त वीच 'जिह्वाजप' नाम का एक चौथा जप भी मामले हैं। वौद्ध, मुसलमान मौर ईसाई प्रादि भी माला से जप करते हैं । ऐसे लोगों का कपन है कि वाचिक जप से दसगुना फल जपयज्ञ-सज्ञा पुं० [सं०] जपात्मक यश । जप। इसके तीन भेद उपांशु में, पातगुमा फल जिह्वा रूप में मोर सहनगुना वाधिक, उपाशु भोर मानसिक हैं। फल मानस अप में होता है। मन ही मन मत्र का विशेष-दे० 'जप-२'। प्रथं मनन करके उसे धीरे धीरे इस प्रकार उच्चारण जपहोम- सज्ञा पुं० [सं०] जप । मत्र का होमात्मक रूप में जप । करना कि बिह्वा मोर मोठ में गति न हो, मानस अप जपा-सक स्त्री० [सं०] जवा पुष्प । मड़हल । १०-को इनकी कहलाता है। जिह्वा मोर मोठ को हिलाकर ममों के पर्थ छवि कहि सके, को इनकी छवि लाल। रोचत ते रोधन कहा, का विचार करते हुए इस प्रकार उच्चारण करना कि कुछ जावक, जपा, गुलाल |--स. सप्तक, पृ० ३५७। सुनाई पडे, उपांशु जप कहलाता है। जिह्वाजप भी उपांशु के यौ०-जपाकुसुम प्राहुल का फूल ।-अनेकार्थ, पृ. ४१ । ही मंतर्गत माना जाता है, भेद केवल इतना ही है कि जिह्वा जप में जिह्वा हिलती है, पर मोठ मे गति नहीं होती और म जपालत, पालतक-- जपाकुसुम सा गहरा लाल महावर । उच्चारण ही सुनाई पड़ सकता है। वौँ फा स्पष्ट साधारण जपा -सद्या पुं० [सं० जप] वह जो जप करता हो । जप करना याचिक जप कहलाता है ! जप करने में मात्र की संख्या करनेवाला व्यक्ति । १०-मठ महप चई पास सेंवारे । तपा का ध्यान रखना पड़ता है, इसलिये जप में माला फी भी जपा सव भासन मारे ।-वायसीम., पृ० १२ । मावश्यकता होती है। जपाना-क्रि० स० [हिं० जप या जपना] जपने का प्रेरणार्थक यो०- जपमाला । जपयज्ञ । अपस्थान । रूप । जप कराना। ३ जापफ । जपनेवाला । जैसे, कर्णेजप । जपिया -वि० [हिं॰] जप करनेवाला। जपजी-संघा पुं० [हिं० जप] सिक्खों का एक पवित्र धर्मग्रंथ, जिसका जपी-ससा पुं० [सं० जपिन हि जप+ई (प्रत्य॰)] जप करनेवाला। नित्य पाठ करना वे अपना मुख्य धर्म समझते हैं। वह जो जप करता हो। जपतप-सहा पुनहि. जप तप] सध्या, पूजा, जप और पाठ मादि। जप्त--सका पुं० [म. जब्त] ६० 'जन्त। पूजा पाठ । उ०--जपतप कछुन होइ तेहि काला। है विधि जप्तव्य-वि० [सं०] जो जपने योग्य हो । जपनीय । मिला कवन विधि वाला—मानस, १११३१1 जप्ती-सा सी० [अ० जस्ती] दे० 'जन्ती'। जपत --स ० [म. अन्त] दे० 'अन्त' । २०-भपत करी बन जप्य'--वि० [सं०] जपने योग्य । जपनीय । की लता, जपत करी द्रुम साज । दुध वसत को कहत हैं कहा। जप्य-स मत्र का जप । मानि ऋतुराज । सु० सप्तक, पृ० ३८२ । जफर'---सचा सौ. [म. ज़फ़र] जय । विजय । सफलता। उ०-दो जपतव्य-वि० [सं०] ६० 'जपनीय' । तीन गरातिद वह लश्कर । जग उससे किए नई पाए जफर । जपता-संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जप करने का काम । २ जप करने -दक्खिनी०, प. २२१ ।। का भाव। जफर-साक्षा पुं० [५० उफ ] एक विद्या जिससे परोक्ष ज्ञान प्राप्त जपन-समा पुं० [सं०] जपने का काम । जप । होता है (को॰] । जपना--क्रि० स० [सं० जपन ] १ किसी वाक्य या वाक्याश को जफा-सझा स्त्री॰ [फा० जफ़ा ] अन्याय मोर अत्याचारपूर्ण व्यव. बराबर लगातार धीरे धीरे देर तक फहना या दोहराना होर । सख्ती। उ०-गया बहाना भूल जफा में मर गंवाया। उ.-राम राम के जपे से जाय जिय की जरनि !-सुलसी --पलट्र०, पृ०२। (शब्द०) 1२ किसी मत्र का सघ्या, यज्ञ या पूजा प्रादि के यौ०--जफाकार, जफाकेश, जफाशिधार - प्रत्याचारी । मन्यायी। समय संख्यानुसार धीरे धीरे बार बार उच्चारण करना। ३ क्रूर । जालिम। सा जाना । जल्दी निगल जाना (बाजारू)। जफाकश - वि० [फा. जफाकश] १ सहिष्णु । सहनशील । २. जपना@r...क्रि० स० [सं० यजन ] यजन करना। जश करना। मेहनती। परिश्रमी। 3०-चहत महामूनि जाग जपो । नीच निसाचर देत दुसह जफाकशी–समा श्री० [फा० जफाकशी सहिया मोर परिश्रमी दुख कुस तनु ताप सपो-तुलसी (शब्द॰) । स्वभाव का होना [को०] । जपती-सशा स्त्री० [हिं० जपना] १. माला । २ वह पैली जिसमें जफीर-सक्ष श्री० [म० जफोर] दे॰ 'जफील'। माखा रखकर जप किया जाता है। गोमुली । गुप्ती। जफीरी--संशश की. म. जफीर+फाई (प्रत्य॰)] १ एक प्रकार जपनीय-वि० सं०] जप करने योग्य । जो जपने योग्य हो। की कपास बो मिन्न देश मे होती है। २ सीटी (को०)।