पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/४८१

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२१२५ तृण तुस्सा [विब्बती पोश] [वि॰ तुसी ] १. एक प्रकार का उ-तन परिहरि मन दे तुव पद लोक तृगुनता थीनी।- बत उत्तम कन जो हिमालय पर काश्मीर से लेकर नेपाल भारतेंदु य०,भा० २, पृ०५८१। तक पाई जानेवाली एक पहामी बकरी के शरीर पर होता तृच-सञ्ज्ञा ० [सं०] तीन छंदोंवाला पद्य [को॰] । है। पराम। पशमीना। उ०--तूस तुराई में दुरे दुरी तलग-वि० [सं० तिर्यक 1 दे० 'तियंक' । उ०-तृजग जोनि गत जाय न त्यागि!-राम• धर्म०, ५० २३४ । गीष जनम भरि खरि खाइ कुजतु जियो हों। तुलसी विशेष-यह पहाड़ी बकरी हिमालय पर बहुत ऊंचाई तक, पर्फ (शब्द०)। के निकट तक, पाई जाती है। यह ठडे से ठंढे स्थानो मे रह यौ०-तृजग जोनि=तिर्यक् योनि । सकती है मौर काश्मीर से लेकर मध्य एशिया में मलटाई तृण-समा पु० [सं०] १ वह अद्भिद जिसको पेडी या कांड में छिलके पर्वत तक मिलती है। इसके शरीर पर घने मुखायम रोमों की मोर हीर का भेद नही होता पौर जिसकी पत्तियों के भीतर नी मोटी तह होती है जिसके भीतरी ऊन को काश्मीर में केवल समामातर (प्राय लंबाई के बल) नर्स होती हैं, जाल पसली तूस या पराम कहते हैं। यह दुनाखों में दिया जाता की तरह चुनी हुई नही। वैसे, दुव, कुश, सरा त, मूज, बांस, है। खासिस तूस का भी शाल बनता है जिसे तूसी कहते है। ताड़ इत्यादि । घास 13०-कसर बरसे तृण नहिं जामा- कार के मन या रोए से या तो रस्सियौ वटी भाती है या तुलसी (शब्द०)। पद नाम का कृपा बुना जाता है। तसवाली बकरियाँ विशेष-तृण की पेड़ी या काडो के तंत इस प्रकार सीधे क्रम महाख में जाडे के दिनों में बहत उतरती है मोर मारी से नहीं बैठे रहते कि उनके द्वारा महलातर्गत महल धनते जाती है। चार्य, बल्कि वे बिना किसी क्रम के इधर उघर तिरछे होकर २ तुस के कन का जमाया हुमा कबल या नमदा । ऊपर की भोर गए रहते हैं। अधिकाश तृणो के कानों में तूस -सा पुं० [हिं०] भय । पास। उ०-मधम गीठ मुसे प्राय गांठें थोड़ी थोडी दूर पर होती हैं पोर इन गांठों है प्रहर, विविध कुरुवि विण तुस ।-बाकी पं., भा० २, बीच का स्थान कुछ पोला होता है। पत्तियां अपने मूल के पृ०७२। पास डठक्ष को खोली की तरह लपेटे रहती है। पृथ्वी का तूसदान-सहा पुं० पू० कारश+दान (प्रत्य॰)] कारतूस । पधिकाश सल छोटे तृणों द्वारा माच्छादित रहता है। पर्क- तूसना -क्रि० स० [सं० तु] १ सतुष्ट करना। तृप्त करना। प्रकाश नामक वैधक ग्रप में तृणगण के अंतर्गत तीन प्रकार २. प्रसन्न करना। के पास, कुश, कास, तीन प्रकार की दूब, गांडर, नरकट, गूंदी, तूसना'-क्रि० प्र० संतुष्ट होना। मुज, डाभ, मोथा इत्यादि माने गए हैं। तूसा-सदा ० सं० तुप] चोकर । भूसी । मुहा०-तृण गहना या पकड़ना-हीनता प्रकट करना । गिड- तुसा'-वि० [हिं० तूस] तूस के रग का। स्लेट या करज के रप पिडाना। तृण गहाना या पकडाना = नम्र करना। विनीत करना। वशीभूत करना । उ०-कहो सो ताको तृण गहाय का करजई। के जीवत पायन पारों।-सूर (शब्द०)। (किसी वस्तु तूसो-सा पुं० एक रग जो करज पा स्लेट के रण की तरह का पर) तृण टूटना किसी वस्तु का इतना सुंदर होना कि होता है। उसे नजर से बचाने के लिये उपाय करना पड़े। उ०—मानु विशेष--यह रग हर, माजूफल और कसीस से बनता है। की बानिक तृण टूटत है कही न जाय कटू स्याम तोहि स्व-मश पु० [सं०] १ धूल । रेणारज1२मरणु। कणिका। रस ।-स्वा. हरिदास (शब्द०)। ३ बटा। ४. चाप । धनुप । ५. पाप (को०)। विशेष-स्त्रियां बच्चे पर से नजर का प्रभाव दूर करने के लिये दृढ़-वि० [सं• तृएट] १.माहत । २ दुखी। ३ मारा हुपा। टोटके की तरह पर तिनका तोड़ती हैं। तृणवत् = तिनके बराबर । अत्यत तुच्चा कुछ भी नहीं। तृण ८९५ - [सं०] प्राघात, क या दुख देना। २. वष को। बरावर या समान = दे० 'तृणवत्। उ०-प्रस कहि पला इह-पका पुं० [सं०] कश्यप ऋषि । महा अभिमानी। तृण समान सुग्रीवहिं जानी।-तुलसी हनाक-क पुं० [सं० एक ऋपि का नाम । (पाग्द०)। तृण तोडना = किसी सुंदर वस्तु को देख उसे । सुख-एक पुं० [सं०] जातीफल । जायफल । नजर से बचने के लिये उपाय करना । उ०-(8) गोप सुबाकु- स्त्री. [सं० तृपा] दे० 'वृषा'। महामनि मौर मजुल मग सब तृण तोरही।-तुलसी (पाम्द०) पत-वि० [सं० तृपा, हि. तना+वंत] दे० 'तृपावंत' 1 30-- (ख) स्याम गौर सु दर दोउ जोरी। निरखत यषि जननी बम भूख पोत भनाज, तस्खावत जल सेसीकाज ।-दक्खिनी., तृण तोरी ।—तुलसी (शब्द०)। (किसी से) तृण सोड़ना संबंध तोड़ना । नाता मिटाना। ३.-भुजा छुड़ा तोरि तृण गुनवा -- • [सं त्रिगुण+ता (प्रत्य॰)] दे॰ 'त्रिगुणता'। ज्यों हित करि प्रमु निठुर हियो ।-सूर (शन्द०)। निहत (को०)।