पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/४८३

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सुगजिन तृपक्ष तांजन-संज्ञा पुं० [सं० तृणाजन] एक प्रकार का गिरगिट [को०] 1 तृतीय सवन--सम्रा पु[सं० मग्निष्टोम मादि यज्ञों का तीसरा तृणाग्नि-सत्री० [सं०] १ घास फूस की ऐसी पाग जो जल्दी सवन जिसे साय सवन भी कहते हैं। दे० सवन'। बुझ जाय । २. जल्दी वुझनेवाली भाग । ३. घास फूस की पाग तृतीयांश-पश पुं० [सं०] तीसरा भाग। से अपराधी को जलाकर दिया जानेवाला वरको०] । तृतीया-सशा ली[सं०] १. प्रत्येक पक्ष का तीसरा दिन । तीज। तणाव्य-स० [सं०] १. एक प्रकार का तुरा जो मौषध के २ व्याकरण में करण कारक । काम में प्राता है। पवं तृण। २ जगल जो तृणबहुल तृतीया तत्पुरुष-सका पुं० [१०] तत्पुरुष समास का एक भेद । तृतीया नायिका-समा श्री० [सं० तृतीया+नायिका ] नायिकामेव तणाग्न-मुझा ०६०] तृणधान्य । तिनी [को०)। के अनुसार प्रघमा या सामान्या नायिका । दे० 'नायिका' । तृणाम्ल- पुं० [स०] लवण तृण । नोनिया । पमलोनी । उ०-वास्तव में पश्चिमीय सभ्यता पमी वाला पौर तृतीया तृणारणि न्याय-सचा पुं० [सं०] तृण पौर भरणी रूप स्वतत्र नायिका वा वेश्या-वृत्ति-धारणी है। प्रेमघन०, भा० २, कारणों के समान व्यवस्या । पृ० २५९। विशेष-मग्नि के उत्पन्न होने में तण और प्ररणी दोनो कारण तृतीयाश्रम-पुझा पुं० [सं०] तीसरा माधम । वानप्रस्य । तो है पर परस्पर निरपेन प्रर्यात मलग अलग कारण हैं। तृतीयी-वि० [सं० तृतीयिन् ] १, तीसरे का हकदार। जिसे हैं। मरण) से माग उत्पन्न होने का कारण दूसरा है और तृण किसी सपत्ति का तृतीयाश पाने का स्वत्व हो ( स्मृति)। में प्राग लगने का कारण दुसरा । २ तीसरी श्रेणी प्राप्त करनेवाला (को०)। तृणावर्त-सबा पुं० [सं०] १ चक्रवात । बवडर । २ एक दैत्य तृन ---सञ्ज्ञा . [ सं तृण] दे० 'तृण'। का नाम । मुहा०-तृन सा गिनना- कुछ न समझना ! तृन मोट पहार छपाना- विशेप-से कस ने मथुरा से श्रीकृष्ण को मारने के लिये (१) मसमव कार्य के लिये प्रयत्न करना। (२)निष्कल गोकुल भेजा था। यह पक्रवात ( दवडर) का रूप धारण चेष्टा करना । उ.-मैं तृन सो गन्यो तीनहू लोकनि, तू तृन करके माया था और वालक कृष्ण को ऊपर उहा ले गया पोट पहार छपावै।-मति०प्र०, पृ. ४३४ । तृन तोड़ना = या। कृष्ण ने कपर जाकर जब इसका गला दबाया तब यह दे० 'तण तोड़ना। 3.---अलत में लोट पोट होत दोकग गिरकर चूर चूर हो गया। भरे निरखि छवि नददास वलि बलि तृन तौरे ।--नंद० प्र०, तृसेंद्र-सहा . [ म तृणेन्द्र ] वाड का पेड । पृ० ३७७ । तृणेनु-सबा [मुं०] वल्बजा । मागे वागे । तृन -वि० [हिं०] दे० 'तीन' । उ०—तृन मम वृश्चिक के इला- तृणोत्तम-पा० [सं०] उखदल । ऊखल तृण । नद ससि बीस नद प्रज मंस मद।-ह. रासो, पृ० १४॥ तृणोद्मव-मा. [सं०] मुन्मन्न । तिनो धान । पमही। तृन जोक -मक्षा स्रो० [हिं० तृन जोक] तृणजलोका । दे० 'तृण- तृपोल्का-मक श्री [H] पाम फूस की मशाल । जलौकान्याय' । उ० --ज्यों तुन जोक तृनन पनुसरे । मागे गहि पाछे परिहरे।-नद० प्र०, पृ० २२२ ।। तृणोक - मुद्रा पुं० [सं० तृणोकस ] घास फूस की झोपड़ी ।को०] । तृनगुमाए-सया स्त्री० [हिं०] दे० 'तृणद्रुम' । उ०-ताल खजुरी, तृणोषध-मधा पुं० [0] एनुमा। एलुवालु नामक गघद्रव्य । तृनद्रुमा, केतकि एक रति पाइ1-नद००, पृ० १०५। तृपण -वि० [सं०] १ काटा हुमा । २ कटा हुमा [को०] ! तनावत -सथा पुं० [हिं०] दे० 'तृणावर्त'। उ०-पुनि अब एक तृण्या-मुगा श्री [सं०] पास या तिनको कार (कोः । बरप को मयो। तृनावत्तं न ले नम गयो । नद००, तृतिया-वि० [हिं० दे० 'तनीय'। उ,मृतिय प्रतीप वखा. पु० ३१०॥ नहीं, वह कविकुल सिरमौर !-भूपण ग्र०, पृ०८। तपत्-सचा पुं० [सं०] १ चद्रमा । २. छाता (को०] । तृतिया-वि० [हिं०] दे० 'तृतीया' । उ.--तृतिया अनुसयना तृपतनाए-कि०म० [सं० तृप्ति ] तृप्त होना। सतुष्ट होना। कही, हो न गई पछिनाय |--मति०प्र०, पृ० २६०। अघाना। उ०-निरवधि मधु की धारा पाहि । सु को जु तृपते तृतीय-वि० सं०] तीसरा। पीवत ताहि ।---नद० प्र०, ५० २७६।। हवीय-सबा १ किसी वर्ग का तीसरा व्यंजन वर्ण । २ संगीत तृपतावि० [हिं०] दे० 'तृप्त' । उ०-दादू जव मुख माहे मेलिये, का एक मान । सवही तृपता होइ ।-दादू०, पृ० १८७ । नायक-सपा पुं० [सं०1१.तीसरे दिन पानेवाला ज्वर । तिजार। तपतिgt--सका सी० [हिं०] दे० 'तृप्ति'। उ.---भोजन करे तृपति यौ०-तृतीयक ज्वर = तिजरा। 'सो होई। गुरू शिष्य भावै किन कोई 1-सुपर० प्र०, भा. २ सीसरी बार होने वाली स्थिति (को०) । ३ तीसरा क्रम (को०)। पृ. ३६ । एतायप्रकृति-मा श्री० [20] पुरुष और स्त्री के अतिरिक्त एक तृपत'-वि० [सं०] १ प्रसन्न। खुश । २ सतुष्ट । ३ बेचैन । तीसरी प्रकृतिवाला । नपुसक । क्लीव । हिजड़ा । व्याकुल [को०)।