पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/४९०

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२१२६ धिर तेहर तेहरी-सहा मी० [सं० त्रि+हार तीन ला को सिकरी, करधनी तेतीस-वि० [हिं०] दे० 'तीस' । उ०-सुमी तैतीस जब कटे भुर या जजीर जिसे स्त्रियां कमर मे पहनती हैं। 30-जेहर, बीस । धरि मारू दससीस मन रा रानी। --पलटू. भा. २, तेहर, पाय विछुवन छषि उपजायल।-नद.०, पृ० ३८६ पु.१०८॥ तेहरा--वि० ० [हितीन+हरा (प्रत्य॰)] वि० स्त्री तेहरी] -कि. वि० [सं० तत्] उतना । उस कदर । उस मात्रा का। १ तीन परत किया हुमा। तीन लपेट का। २ जिसकी से,-पर ये नबर के बाद कहिये ते नवर के बाद भापका एक साप तीन प्रतियां हो। जो एक साथ तीन हो । उ०- ताश निकले। --रामकृष्ण वर्मा । शब्द.)। दोहरे तेहरे वोहरे शुषण जाने जात। --बिहारी (शब्द.)। ते२-सम०प्र०1१. समाति खात्मा। ३ जो दो बार होकर फिर तीसरी बार किया गया हा यो०-तैतमाम-मत। सपाति। तेहरी मेहनत । २ चुक्ता। देवाकी (को०)। ३ निर्णय। फैसला । निबटारा । विशेष--इस पर्थ में इस शब्द का व्यवहार ऐसे ही कामों के (को०)। ४ राम्ता चलना । जैसे, मंजिल ते कर लो। 30--- लिये होता है जो पहले दो बार करने पर भी उत्तम रीति बहुतों ने राहत की संभले न पाव फिर भो।-बेला, से या पूर्ण न हुए हों। पु०६०। ४ तिगुना (क्व०)। ते-वि०१ जिसका निवटेराप कैपना हो चुका हो। निर्णीत। तेहराना--क्रि० स० [हिं० तेहग]१ तीन लपेट या परत का २ जो पूरा हो चुका। समा । जेये. मग ते करना। करना । २. किसी काम को उसकी पृष्टि मादि दूर करने भषवा रास्ता ते फरना। उसे बिलकुल ठीक करने के लिये तीसरी वार करना। -सपा पुं० [फा० तह] दे॰ 'वह'। तेहरावा--सच्चा पु० [हिं० तेहरा+भाव (प्रत्य॰)] तीसरी बार को तेकायन-सहा पुं॰ [सं०] विक पिके वशज या शिष्य । क्रिया या भाव। तैक्त--सा [.] तिक्त का प्रभाव । तीतापन । परपराहट । वेहवार-सहा पुं० [ से• तिथि + वार ] दे० 'त्योहार'। तिताई। तिक्तरव । तेहा---मुशा पुं० [हि तेह] १. क्रोध । गुस्सा। २. महकार । शेखो। तेक्षण्य-समा पु० [सं०] १तीक्ष्णता । तीदरण का भाव। २. मयं- पभिमान । धमः। ___करता (को०) । ३. पैनाएन (को०) । ४ निर्वयता (को॰) । यौ०-तेहेदार । तेहेबाज । तेस्त्रानाg-चा पुं० [फ• तहखानह.] ३. 'तहखाना। तेहातेह--त्रि.वि० [हि तह ] तह पर तह । खूब गहरे में। तैजस'-- सक्षा पुं० [सं०] १. धातु, मणि मथवा इसी प्रकार का मौर उ.--त्रीज महर रेण के मिलिया तेहातेह । धन नहि घरती कोई चमकीला पदार्थ । २. घो। ३. पराक्रम । ४ बहुत तेज हुइ रही, कन महावो मेह ।--डोला., दु. ५८४।। चलनेवाला घोडा। ५ सुमति के एक पुत्र का नाम । ६.बो तेहि -सर्व० [सं० ते ] उसको । उसे । --षि सो छबीले स्वयप्रकाश पौर सूर्य मादि का प्रकाशक हो, भगवान् । ७ छैन भेटि तेहि छिनहिं उहावत ।--नव प्र०, पृ. ३६ । वह शारीरिक शक्ति जो माहार को रस तथा रस को धातु में परिणत करती है। एक तीर्थ का नाम जिसका उल्लेख तेही'--सज्ञा पुं० [हिं० तेह + ई (पत्य॰)] १ गुस्सा करनेवाला। महामारत मे है। 8 राजस मवस्था मे प्राप्त महकार जो जिसमें क्रोध हो । कोधी । २ मभिमानी । घमंडी। एकादश इद्रियो मोर पंच तम्मायापो की उत्पत्ति में सहायक तेही --सर्व० [हि ते+हो] उसे । उमी को। होठा है मौर जिसकी सहायता के बिना महकार कमी तेहीज -सर्व० [हिं० तेही+ज ] उसी को। ३०-परध दख सात्विक या तामसी अवस्था प्राप्त नहीं करता। गाडधो रहई, जोग सीरज्यो होई तेहीज साय। -बी० विशेष-दे० 'महकार'। रासो, पृ० ४६ । १. जगम (को०)। तेहेदारी-- सशा पुं० [हि. तेहा+फा० दार (प्रत्य॰)] दे० 'तेही'। तेजस-वि० [सं०१ तेज से उसन। तेज सबधी। जैसे, वैजस सा_ तेहेवाजो-सा पुं० [हिं० तेहा+फा० वाज (प्रत्य॰)] दे० 'तेही। पदार्थ । २ चमकीला। द्यतिमान (को०)। ३.प्रकार से परिपूर्ण तेतिडीक-वि० [सं० तेन्तिीक ] तितिही या इमली की काजी से (को०)। ४. उत्तेजित । उत्साही (को०)। ५ शक्तिशाली। बनाया हुपा या तैयार किया हुमा (को॰] । साहसी (को०)। ६. राजसी वृत्तिवाला। रजोगुणो (को०)। ता -कि० वि० [हिं० त], मे । दे० 'ते' उ-कूज से कई सनि तैजसावतेनी-समा सी० [सं०] पांवो सोना गजाने की परिया। मुषा। कत को गमन सखि प्रागमन तेसो मनहरन गोपाल को तैजसी-संघा की• [सं०] गजपिप्पली। पाकर (शब्द०)। तैविक्ष-दि० [सं०] धैर्यवान् । सहनशील [को०] । त -सर्व. [सं० स्वम् तू। उ.--त्रिय सम जरहिन भट रिपु डे -सर्व राजा तेरा। उ.-नागर तट ते देखे बिन मेकसिया मगनी । बक मम भ्राता हैं मम भगनी-गोपाल (सन्द०)। दिसमू-नट.,पू. १२६ } तवालीस-वि० दे० [हिं०] तेंतालीस । विर-संहा पुं० [सं.तोवर] वीतर।