पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/५०५

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श्रण लुहिज-वि० [हिं॰] दे० 'त्यों' । उ०—करनहरी खेमन, बाँध गुही वेनी लखें गुहिवे के त्यौनार । लागे नोर घुबावने नीठि महबात न बोले। वले जग्गै केहरी, त्यु हिज वोले खा तोले। सुखाए वार।-बिहारी (शब्द०)। किसी कार्य को विशेष -रा. २०, पृ. १५७ । कुशलता के साथ करने की योग्यता। त्य-किवि० [हिं० दे० 'त्यो' । त्यौर--सच्चा पुं० [हिं०] दे० 'त्योरी' 1 30-(क) द्यौसक ते पिय परसा-सा पुं० [हिं०] दे० 'त्योरुस'। चित चढ़ी कह चढ़ी है त्यौर।-विहारी (शन्द०)। (ख) त्याँ'-कि. वि० [सं० तत् + एवम् या हि.] १. उस प्रकार । उस तेह तरेरो स्योर करि फत करियत दृग लोल । लीक नहीं तरह। उस मांति। उ.-ये मलि या बलि के प्रघरानि में यह पीक की सूति मणि झनक कपोल-विहारी (गन्द०)। मानि बढ़ी का माधुरई सी। ज्यों पद्माकर माधुरी त्यो कुच त्योराना-क्रि० प्र० [हि. तोवर] माया घूमना। सिर मे दोउन की बढ़ती उनई सी। ज्यों कुच त्यों ही नितब बढ़े कछु चक्कर माना। ज्यों ही नितर त्यो चातुरई सी। जानी न ऐसी चढ़ाचढि में त्यौरी-सच्चा सौ० [हिं० दे० 'त्योरी'। किहिधी कटिबीच ही लुटि सई सी।—पद्माकर (शब्द०)। त्यौरुस-सचा पुं० [हिं०] दे० 'त्योस' । २ उसी समय । तत्काल । वैसे,-ज्यों मैं वहाँ पहुँचा त्यों वह। त्यौहार-सच पुं० [हिं॰] दे॰ 'त्योहार' । उठकर चल दिया। विशेष-इसका व्यवहार जनों के साथ सवध पूरा करने के लिये त्योहारी-सधा बी० [हिं॰] दे० 'त्योहारी' । होता है। बंग-मचा पुं० [सं० ] एक प्राचीन नगर का नाम जो पहले राजा त्योहार-सबा श्री.सं०वन] ओर। तरफ। उ.-सादर बारहि हरिश्चद्र का राजनगर था। पर सुभाष चित तुम त्यो हमरो मन मोहैं। पूति ग्रामवधू त्रंबक-सचा पुं० [हिं०] दे० 'त्र्यंबक' । उ०—नयो सिर नाग सिय सो कही सावरे से सखि रावरे को हैं।-तुलसी सुमडिय जग, धुरे सुर जोरय प्रबक संग।--पु. रा०, २४६२२० । त्योरा-सा पुं० [हि० (ति)+बरस] १ पिछला तीसरा त्रंबकसखा--पञ्चा पुं० [सं० श्यम्बक+सखा ] शिव के मित्र । वर्ष। वह वर्ष जिसे बीते दो बरस हो चुके हो । जैसे, हम कुबेर । उ.--गुह्यक पति वा सखा राजराज पुनि सोह। स्योरुस वहाँ गए थे। २. मागामी तीसरा चर्प। वह वर्ष पो ---अनेकार्थ०, पृ. २१। दो वर्षों के बाद मानेवाला हो। वकी -सहा नौ० [राज. पवाल] छोटा नगाड़ा। उ०-उमय विशेष-इस सम्द का प्रयोग कभी कभी विशेषण के रूप में भी सहस वाजित्त । ढोल प्रवकी सुमत गुर ।—पृ. रा०, होता है। जैसे, त्योरुस साल । २५३३२०। त्योरी-सक श्री [हिं० त्रिकुटी, सं० त्रिकूट (= चक्र)] अवलोकन । वक -सथा पुं० [हिं०] दे० 'श्यवक' । उ०-कलस बक ग्रंबक चितवन । दृष्टि । निगाह। लोह संकर बर बध्यो।-पू. रा०, २४.४५ । मुहा०-स्योरी चढ़ना या बदलना - रष्टि का ऐसी अवस्था में बागल--सहा पुं० [ राज. वाल ] नगाडा । उ०प्रवागल हो जाना जिससे कुछ कोध झलके । मेखि चढ़ना । स्योरी मे रिणतूर बिहद्दा बाजिया ।-रघु० रू०, ५० ६३ । बल पड़ना = स्पोरी चढ़ना । स्योरी चढाना या बदलना = त्र-वि० [सं०] १, तीन । २. रक्षा करनेवाला। रक्षक ( समासांत भौहें चढ़ाना। प्रखें चढ़ाना । दृष्टि या पाकृति से क्रोष के में प्रयुक्त ) । चिह्न प्रकट करना । श्योरी मे बल डालनात्योरी चढ़ाना। छाना २-प्रत्य. एफ प्रत्यय जो सप्तमी विभक्ति के रूप में प्रयुक्त त्याहार--सका पुं० मि तिषि+धार] वह दिन जिसमें कोई बड़ा धार्मिक या जातीय उत्सव मनाया जाय । पर्व बिन । जैसे, घइय -सक्षा स्त्री० [हिं०] दे० 'त्रपो"। उ.-चद्र ब्रह्म मख हिंदुओं के त्योहार दसहरा, दीवाली, होली मादि, मुसल- महि प्रश्य सुनि श्रवननि पारहि। -40 रासो, पृ. ३६ । मानों के त्योहार-इद, शव बरात आदि, ईसाइयों के त्योहार, ई -वि० [हिं०] दे० 'त्रय'। 30-मरन काल कई लोक में, बड़ा दिन, गुस्माइडे प्रादि । प्रमर न दीप कोय ।कबीर सा०, पु. ६६२ । मुहा०-त्योहार मनाना--पर्व या उत्सव के दिन प्रामोद प्रमोद करना। त्रकाल -मश पुं० [हिं॰] दे० 'त्रिकाल'। उ०-साहाँ उर अहावती, राजावा रखवाल । जो जसराज प्रतप्पियो, तो त्योहारी-सधा श्री० [हिं० त्योहार+ई. (प्रत्य॰)] वह धन जो सुर पूज प्रकाल।-रा० रू., पृ० १६ । किसी त्योहार के उपलक्ष में छोटो, लड़कों या नौकरों भादि को दिया जाता है। त्रकुटाचल-सञ्ज्ञा पुं० [सं० त्रिकूट+मचल] लंकास्थित त्रिकूट पर्वत । त्या-किवि० [हिं०] दे० 'त्यो । उ०-घिर जोषोणी घेरियो फिर कुटाचल कीस -- रा००,०५७। त्योनार-सा पुं० [हिं०, (देश०) 1. ढग । तर्ज । उ०-(क) त्र --सहा पुं० [सं० त्रि] दे० 'तीन'। उ.-तरुणी री पोसाक प्राए हैं मनहारि हित धारिमपुर यहार । लखि जीके नीके पण, जीवन मुली जाण ।-वौकी० ग्र., भा॰ २, पृ० २२। सुपर ये पीके त्योनार ।--१० सत० (अब्द०)। (ख) रहो