पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/५०६

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त्रयाण २१५२ ब्रदस प्रदस -या पुं० [हिं०] २० 'त्रिदश' । उ.सत्रियाँ रा खटतीस फुल, पदस कोड तेतीस । -चाकी० प्र०, भा॰ २, पृ. १०५1 प्रनल-सबा पुं० [हिं०] दे॰ 'तुन'। मुहा०-जन तोरना-दे. 'तृण तोड़ना' ('तृण' में)। उ०- तोरिन तरुनिय कहत । घरनि सही तुम भार ।-पु. रा०, १८१६४। प्रपित -वि० [हिं०] दे० 'तृप्ति'। उ.-उमा प्रपति रुधिरं भई घनि सूरन भुज दंड।-पृ० रा०, २५७४४। उपच-वि० [हिं०] दे॰ 'तृप्त' । ३०-तन ग्रीष महासद मन प्रपत्त । पूरिया रहे नित संगतपत्र ।-रा०६०, पृ०७४ । अपनाना-वि० [सं० तर्पण] तर्पण। मध्या करनेवाले । उ०- तो पडित भाये वेद भुलाये षटक रमाये अपनाये। सुदर० ग्र•, भा० १, पृ० २३७ । प्पवर -वि० [सं० पा] लज्जालु । लज्जाशील । उ०--कि करे न तसकर प्रप्पवर अवुध इष्ट सत्तहु सुमन। पृ० रा०, १०।१३३ । त्रपा-सक्षा सी० [सं०] [वि०पमान] १. लज्जा। लाज। शर्म। हया। उ.-ही लज्जा बीग पा सकूच न करू विनु काज। पिय प्यारे पै बलिय बलि पौषध सात कि लाज |-नंददास (शब्द०)।२ छिनाल ली। पुश्चली। यौ०-प्रपारा-१ छिनाल ली। २ वेश्या ! रंडी। ३ कीति । यश । त्रपा-वि० लज्जित । शरमिंदा । उ०—भवधनु दसि जानकी विवाही भये विहाल नेपाल प्रपा है।-तुलसी (शब्द०)। पानिरस्त-वि० [सं०] निर्लज्ज । घृष्ट [को०]। पाहीन–वि० [सं०] निलंज । धृष्ट [को०] 1 त्रपारंडा-का बो• [सं० पारएडा ] वेश्या । रहो [०] । त्रपित-वि० [सं०] १. लज्जित। शरमिंदा। २ लज्जालु । लज्जा- शीष (को०)। ३ विनीत । विनम्र (को०)। त्रपिष्ठ-वि० [सं०] मत्यत तृप्त । परितृप्त [को॰] । त्रपु-संज्ञा पुं॰ [सं०] १ सीसा । २ शंगा। पुकर्कटी-सका औ० [सं०] १. खीरा।२ ककरी। त्रपुटी-सहा स्त्री० [सं०] छोटी इलायची। पुल-सा पुं० [सं०] रोगा। पुष-सचा पुं० [सं०] १. रांगा।२ खीरा। पुषी-सच जो [सं०] १. ककड़ी। २. खीरा। पुस-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] १ राँगा । २. ककड़ी। त्रपुसी-सहा मी० [सं०] १. ककसी । २ खीरा । ३. बड़ा । इवायन । त्रप्सा--सहा मौ० [सं०] जमी हुई श्लेष्मा या कफ । त्रप्स्य-सहा पुं० [सं०] मा [को०) । वाटल-तज्ञा पुं० [हिं०] नगारा । ३०-दलबल सज दुगम चढ़िय सुत पवरष सहक तरल पत रुडत पाट!-रघु.६०, पृ. ११९ । त्रभंगी-संसा पुं० [हिं॰] दे० 'त्रिभगी'। उ०--प्रभगी छंद पढ़े वु चंद गुन वहि वंदं गुन सोई। -पृ. रा०, २४ । २४८ । त्रभवण -सा पुं० [हिं०] दे० 'त्रिभुवन' । ३०-भुवण तले। रहियो विखे, प्रभवण हृदो राक।-रा० रू०, पृ. ३६१। भुयण -संक्षा पुं० [हिं० ] दे० 'त्रिभुवन' । उ०-मासस तज निज गरज पब, मज भुयण भूपाल ।-बांकी नं, मा. २, पू. ४० त्रमाला-सा पुं० [हिं० प्रवागल नगाडा। उ०—रिण बलवंता रूप परमसंता प्रतिपाला। तुझ भुजा हरित तहक वाजंत प्रमाला !-रघु० रू०, पृ०४। त्रय-वि० [सं०] १ तीन । उ.-महापोर त्रय ताप नजर!- तुलसी (शब्द०)।२ तीसरा। यहर-सका श्री० [हिं० ] दे० 'त्रिया' । उ०-त्रय जोरै कर हश्य को बील समरि वै राइ।-पु. रा. २५ । ७३०। त्रयदेव -सबा पुं० [हिं० ] दे० 'त्रिदेव' 1 30-~-मब मैं तुम से कहो चिताई । त्रयदेवन की उत्पति भाई। कबीर सा०, पु०८१७॥ त्रयबिंसत-वि० [सं० प्रयोविंशति ] तेईस । तेईसवा। 30-मन सुनि प्रयविंसत मध्याइ। द्विज भरु द्विजपतिनिन के भाइ। -नंद०प्र०, पृ०३००। त्रयलोकी--वि० [हिं० त्रिलोकी 1 प्रिलोकपति। तीनों लोकों के स्वामी । उ.-रामपद्र वर्णन करू, त्रयलोकी हैं नाय ।- कबीर सा०, पृ०५१३। त्रयी-सबा सी० [सं०] १ तीन वस्तुपों का समूह। तिगुह । तीखट । जैसे, ब्रह्मा, विष्णु पौर महेश । उ०--(क) वेद त्रयी भरु राजसिरी परिपूरनता शुभ योगमई है।-केशव (शब्द॰) । (ख) किौं सिंगार सुखमा सुप्रेम मिले पले जग चित वित लेन । मदत त्रयी फिौं पठई है विधि मग लोगन सुख देन -तुलसी (शब्द०) २ सोमराजी लता। ३ दुर्गा। ४ वह स्त्री जिसका पति और बच्चे जीवित हों (को०) । ५ बुद्धि । समझ (को०)। त्रयोतनु-सक पुं० [सं०] १, सूर्य । २ शिव (को०)। त्रयीधर्म-सका पुं० [सं०] वैदिक धर्म, जैसे, ज्योतिष्टोम यज्ञ मादि। त्रयीमय-सबा पुं० [सं०] १. सूर्य । २ परमेश्वर । त्रयीमुख-सा पुं० [सं०] ब्राह्मण । प्रयीविद्या-सका खी० [सं० त्रयी+विद्या ] ऋग्वेद, यजुर्वेद मौर सामवेद ये तीन वेद । १०-ऊपर की पक्तियो में त्रयीविद्या पथवा प्रथम तीन वेदों के दर्शन एक कर्मकार के सिद्धांतों की सक्षिप्त विवेचना की गई।-स०एरिया, (भू०)पृ०५५ । त्रयोदश-वि० [सं०] १ तेरह । २. तेरहवा (को०)। त्रयोदशी-साको [सं०] किसी पक्ष की तेरहवी तिथि तेरस । विशेष-पुराणानुसार यह तिथि पार्मिक कार्य करने के लिये बहुत उपयुक्त है। प्रयारण-सका पु० [सं०] पद्रहवें वापर एक भ्यास का नाम ।