पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/५०७

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प्रवाणि त्रापुष प्रयाशि- सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम जो भागवत सियो-कि०म० [हिं० प्रसना ] भय खाना । हरना । उ०- के पनुसार सोमहर्षण ऋषि के शिष्य थे। प्रसिबो सदाई नटनागर गुरू जनते-नट०, १०५८। अषेद-वि० [सं० तृषि ] तृपायुक्त । प्यासा । उसीग..-वि० [सं० त्रासक?1 जबरदस्त । उ०--राजा सिंहस अष्टा-सा पुं० [?] दे० 'तष्टा' (तश्तरी)। उ०-अष्टा पर दीपरे तोनू वीष असींग।-बांकी०प्र०, भा०३, पृ०७२ । माधार भतं के बहत खिलौना। परिया टमरी प्रतरदान रूपे सुर-वि० [सं०] भीररपोक । के सौना।-सूदन (शब्द०)। त्रस्त-वि० [सं०] १ भयभीत । डरा हुमा । 30-एक बार मुनिवर स- पुं० [सं०] १. जैन मत के अनुसार एक प्रकार के जीव । कौशिक के तप से सुरपति अस्त हमा।-शकुं०, पृ.२। इन जीवों के पार प्रकार हैं-(क) दीद्रिय अर्थात दो २ पीड़ित । तुखित । जिसे कष्ट पईचा हो । ३ चकित । इद्रियोंवाले जीव । (ख) बींद्रिय पर्थात् तीन इद्रियोंवारे जिसे प्राश्चर्य हुमा हो। जीव । (ग) परिद्रिय अर्थात् चार इद्रियोवाले जीव पर प्रस्तु-वि० [सं०] दे० 'सुर' [को०] । (घ) पंचेंद्रिय प्रर्यात् पांच इद्वियोवाले जीव । २. जंगल। हकना-कि० प्र० [सं० त्राहि त्राहि त्रादि करना। त्रस्त वन । ३.मंगम । ४. सरे । होना । उ०—सरे यों लुहान पभग जुवान । बसवंत पोरं प्रस-वि० सबस । जगम [को०] । अहस्केति घोर ।-प.रा, ४१३० । त्राटक -सधा पुं० [हिं० ] दे. 'नाटक'। उ०-पाटकन की सन-सा पुं० [सं०], भय । डर । २. उद्वेग । उपमा इतनी । जु कही कवि चद सुरग घनी ।-पृ०रा०, प्रसना -क्रि.प. [सं०सन भय से काप उठना । डरना। २११७६। सोफसाना। 30-(क)कछु राजत सूरज प्रपन खरे। त्राटक-सपा पुं० [सं०] योग के षट्कर्मों मे से छठा कर्म यो जनु सक्ष्मण के भनुराग भरे। चितवत चित्त कुमुदिनी पसे । साधन । इसमें अनिमेष रूप से किसी विदु पर दृष्टि रखते हैं। पोर पकोर चिता सोलसे ।-पाय (शब्द०)। (ख) मामिला_RATी. 1 to 11 वाटिका-सबा खी० [सं० पाटफ ] योगियों की एक क्रिया। नवस मनंगा होय सो मुग्या केशवदास । खेले बोलें बाल विधि उ०---रुद्र प्रगनि का वाटिका नाम ।-गोरख०, पृ. २४६ । हसे त्रसे सवितास।-सव (शम्द)। प्राण-सम [सं०] १ रक्षा। बचाव । हिफाजत । २ रक्षा असर-सबा पुं० [सं०] जोलाहों की तरकी । तसर। का साधन । कवष। वसरेणु'- सम पुं० [सं०] वह चमकता हुमा कण जो छेद में से विशेष-इस पर्थ में इसका व्यवहार यौगिक शब्दों के पत में पाती हई धूप में नाचता या घूमता दिखाई देता है। होता है। जैसे, पादत्राण, भगवाए। सूक्ष्म कण । ३ त्रायमारण लता। विशेष-मनु के मनुसार एक प्रसरेणु तीन परमायुमो से त्राण-वि० जिसकी रक्षा की गई हो। रक्षित [को॰] । मिलकर पौर वैद्यक के अनुसार तीस परमाणुमो से मिलकर प्रारणक-सका पुं० [ से० ] रक्षक । बना होता है। माणकर्ता-वि० पुं० [सं० जारणकर्तृ] रक्षा करनेवाला! रक्षक [को० । वसरणु-सबा श्री. पुराणानुसार सूर्य की एक स्त्री का नाम । चाणकारी-वि० [सं० त्राणकारिन् ] रक्षा करनेवाला । रक्षक [को०)। सरनिकु-सहा श्री० [हिं॰] दे० सरेण'। उ०-पदपकोर की प्राणदाता-सपा पुं० [से० प्राण+बातृ] पारण देनेवाला। रक्षा चाह करे, धनमानंद स्वाति पपीहा को धावै। त्यो सरेनि के करनेवाला । त्राएकपाता। उ०-दयाशील पाणदाता ऐन बसे रवि, मोन पे दीन ह सागर मावै।-घनानद, मिलने से प्रेमघन, भा० २, ३० ३६७ । पृ० ६५। त्राणा-सधा सी० [सं०] पायमारण लता। नसाना+--क्रि० स० [हिं० प्रसना ] डरवाना ! घमफाना । प्रमझाना। त्राव-वि० [सं०] बचाया हुमा । रक्षित [को०] । भय दिखाना। उ०-(क) सूर श्याम वा खल गहि माता सातव्य-वि० [सं०] रक्षा करने के योग्य । बचाने के लायक । डरत न प्रति हिसायो।-पूर (शब्द०)। (ख) त्राता--सक्षा पुं० [ त्रातृ ] रक्षक | बचानेवाला । 30-तप रस जाको शिव घ्यावत निसि नासर सहसासन जेहि गावै हो। रचे प्रपच विधाता। तप वल विष्णु सकल, बगनाता ।- सो हरि राघा बदन चद को नैन पोर असावे हो!-सुर तुलसी (पान्द०)। (शब्द०)। नावार-सहा पुं० [सं०] रक्षक । उ०-मोक्षप्रदा भरु धर्ममय मयुरा त्रसित -वि० [सं० प्रस्त , भयभीत । डरा हुषा । उ०-सव मम त्रातार ।-गोपाल (शब्द०)। प्रसग महिसुरन सुनाई। ग्रसित पर्यो प्रवनी पकुलाई।- विशेष-सस्कप में यह बातृ (प्राता) शब्द का बहुवचन (शब्द०)। २. पीडित | सताया उमा। उ०-सीत त्रसित कहें अग्नि समाना। रोग असित कह पौषधि जाना!- त्रापुष'-- सदा पुं० [सं० ] रांगे का बना हुमा चरतन या पोर गोपाष (सन्द०)। कोई पार्ष।