पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/५१०

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त्रिकालदरी त्रिगुप त्रिकालदर्शी-वि० तीनों कालों को बातों को जाननेशला। त्रिकोणक-सह पुं० [सं०] तीन कोण का पिंड । तिकोना पिंड। त्रिकालज्ञ [को०] । त्रिकोणघंटा--सपु०सं०त्रिकोण घण्टा लोहे की मोटी सलाम त्रिकुट-सया पु० [सं०] दे० 'भिकूट'। फा बना हुदा एक प्रकार का तिकोना बाजा जिसपर खोहे के निकुटा-सा पु० [सं० त्रिकटु ] सोठ, मिर्च पोर पीपल इन तीनो एक दूसरे टुकड़े से प्राघात करके ताल देते हैं। इसका प्राकार वस्तुपों का समूह। ऐसा है-) त्रिकुटाकुर--सबा पुं० [हिं० ] दे० 'त्रिकुटी'। उ०--त्रिकुटा ध्यान त्रिकोणफल-सचा पुं० [सं०] सिंघाड़ा । पानीफल । तीन गुन त्यागे।-प्राण, पृ.२। त्रिकोणभवन--संशा पुं० [सं०] जन्मकुंडली में लग्न से पांचों पौर त्रिकुटायचल -सका पुं० [सं० विकूट+अचल ] त्रिकूट पर्वत। नवा स्थान । त्रिकोण'। उ.-संपातरा सुण वयण सारा गहर नद गाजे । चित्त चाव

  • त्रिकोणमिति-सक श्री. [सं०] गणित शास्त्र का वह विभाग

त्रिकुटा मचल चढ़िया, कुदवा काजे ।-रघु० ., पृ० १६२। " जिसमें त्रिभुज के कोरण, बाह, वर्ग, विस्तार प्राधिको नाप त्रिकृटिनो-वि० स्त्री० [सं० त्रिकूट ] तीन कूट या घोटीवाली। निकालने की रीति तथा उनसे संबंध रखनेवाले अन्य अनेक उ.--यंत्रों मत्रों तत्रों की थी वह विकुटिनी माया सी1- सिवांत स्थिर किए जाते हैं। साकेत, पृ.३८८ । विशेष-भाषकल इसके अंतर्गत त्रिभुव अतिरिक्त चतुर्मुख त्रिकुटो-सका स्त्री॰ [• त्रिकुट] त्रिकूट चक्र का स्थान । दोनों मौर बहुभुज कोण नापने की रीतियां तपा बीजगणित भौंहों के बीच के कुछ ऊपर का स्थाच । उ०-पूरन कुमक संबंधी बहुत सी बातें भी मा गई है। रेचक करहू । उलट ध्यान त्रिकुटो को घरहू।-विश्राम- विक्षार-सका [सं०] जवाखार, सज्जी पौर सुहागा इन तीनों ( शन्द०)। त्रिकुल-सा पुं० [सं०] पितृकुल, मातृकुल मोर श्वसुरकुल । खारों का समूह । निकट-मचा पुं० [सं०] १. तीन शृंगोवाला पर्वत । वह पर्वत जिसकी त्रिदुर-संघा पुं० [सं०] ताल मखाना। तीन चोटिया हो। २ वह पर्वत जिसपर लंका बसी हई त्रिख-संच पुं० [सं०] खीरा। मानी जाती है। देवीभागवत के अनुसार यह एक पीठस्थान त्रिखा-सका सी० [हिं.] दे. 'तृषा'। है और यहाँ पसुदरी के रूप में भगवती निवास करती हैं। त्रिखित-विहिं०1. 'तषित'। उ.-त्रिसित लोचन जुगत उ.-गिरि प्रिकूट एक सिंधु मझारी। विधि निर्मित दुर्गम पान हित अमृतवपु विमल वाविपिन भूमिचारी।-भारतेंदु पति मारी।-सुलसी (शब्द.)।३ सेंधा नमक । ४. एक ग्र०, मा०२, पृ० ५४ । कल्पित पर्वत जो सुमेरु पर्वत का पुत्र माना जाता है। निगंग--स [सं० विगा1 महाभारत के अनुसार एक तीर्थ विशेष-वामन पुराण के अनुसार यह क्षीरोद समुद्र में है। यहाँ का नाम । देवषि रहते हैं और विद्याधर, किन्नर तथा गषवं प्रादि क्रीड़ा निगंधक-सा० सेविगन्धका दे० 'त्रिजातक', करने पाते हैं। इसकी तीन चोटियां हैं। एक पोटी सोने की। है जहाँ सूर्य माश्रय लेते हैं और दूसरी चोटी चादी की जिस- निगंभीर-सबा पुं० [ से निगम्भोर ] वह जिसका सत्त्व [माचरण], पर चद्रमा पाश्रय लेते हैं। तीसरी चोटी परफ से ढकी रहती स्वर पोर नामि गंभीर हो। लोगों का विश्वास है कि ऐसा है मौर वैदूर्य, इद्रनील मावि मणियों की प्रभा से चमकती पुरुष सदा सुखी रहता है। रहती है। यही उसकी सबसे ऊंची चोटी है। नास्तिकों और त्रिगढ़ -संज्ञा पुं० [सं० त्रि+गढ़ ] ब्रह्माह । सहस्रार । 30-कूद पापियों को यह नहीं दिखलाई देता। पर कपट की झपट कुछाडिदे त्रिगढ़ सिर बाय अनहद्द त्रिकूटनवण-एक पुं० [सं०] समुद्री नमक [को०] । तूरा ।-राम धर्म०, पृ० १३७ । त्रिकूटा-सा स्त्री॰ [सं०] तांत्रिकों की एक भैरवी । त्रिगण-सहा पुं० [सं०] 'त्रिवर्ग' । त्रिकर्चक-सबा पुं० [8.] मत अनुसार फोमादि चीरने का त्रिगत-at. [सं०] उत्तर भारत के उस प्रात का प्राचीन नाम एक शस्ल जिसका व्यवहार बालक, वृक्ष, भीक, राजा पापि की जिसमें भाषकल पजाब जालंधर मौर कामा प्राधि नगर प्रस्वचिकित्सा के लिये होना चाहिए । हैं। २ इस देव का निवासी। त्रिकोटील-सका श्री ] दे० 'विकी'। 30-त्रियाविरी निगों-सबा जी• [0] छिनाल स्त्री। पुश्चली। वह श्री जिसे त्रिकोटी पीला ब्रह्मकुर निष पनि |--गोरख०, पृ. १०२। पुरुषप्रसग की इच्छा हो। त्रिकोण-सक्षा पुं० [सं०] १ तीन फोरे का क्षेत्र । विभाका क्षेत्र त्रिगतिक-सका पुं० [सं०] दे० 'विगतं', जैसे, A> २ तीन कोनेवाली कोई वस्तु । ३. तीन विगामी-वि० [सं० त्रि+गामिन् ] तीन लोकों मे बहनेवाली। कोटियोवाली कोई वस्तु । ४ योनि । भग । ५ कामरूप के त्रिपथगा। उ०—त्रिपस्थी त्रिगामी विराजत गंगा। महा भतर्गत एक तीर्थ जो सिद्धपीठ माना जाता है। ६ जन्मकूडली नग्ग लोक नर नारि प्रगा।-पू. रा०,१ । १६२।। मे लग्नस्थान से पापो भौर नवा स्थान । त्रिगुरण - समा यु० [सं०] सत्व, रज, मौर तम इन तीनो गुणों