पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/५११

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'त्रिगुण २१५७ विदना का समूह । तीन मुख्य प्रकृतियो का समुह । दे० 'गुण' । तनु घर। तह तह राम भजन अनुसरऊो-तुलसी (शब्द॰) । उ.-त्रिगुण प्रतीत जैसे, प्रतिबिच मिटि जात !-सत (ख) यहि विधि जीव घराचर जेते । निजग देव नर असुर बाणी०, पृ० ११५1 समेते। मखिल विश्व यह मम उपजाया। सब पर मोरि त्रिगुण-वि० [सं०] १. तीन गुना । तिगुना। २ तीन घागोंवाला। चरावर दाया।-तुलसी (शब्द॰) । जिसमें तीन घागे हो (को०)। ३. सत, रज, तम इन तीन न त्रिजगर--सचा पुं० [सं० त्रिजगत तीनों लोक--स्वर्ग, पृथ्वी पौर मार.. गुर्गोवाला (को०)। पाताल । उ०--किहिं विधि त्रिपथगामिनि ग्रिजग पावनि त्रिगण -- समा नो.1 सं०] १ दुर्गा। २. माया। तत्र में एक प्रसिद्ध भई भले ।---पद्माकर (शब्द॰) । प्रसिद्ध पीज। त्रिजगत-सचा पुं० [सं० त्रिजगत् ] प्राकाश, पाताल भौर पृथ्वी ये त्रिगुणात्परा-वि० [सं० त्रिगुणाद+परा] त्रिगुणों से परा। तीनो लोक (को॰) । उ.-इस पग्निदेवता का निवास है त्रिगुणमयी यह निखिल सृष्टि। पर प्रथम चरम मालोकधाम त्रिनयन की त्रिगुणात्परा । निजगती-सा सो• [सं०] माकाश, पाताल और पृथ्वी ये तीनों लोक को०] । दृष्टि ।-अग्नि०, पृ. ४.. त्रिजट-सबा पुं० [सं०]१ महादेव । शिव। २ एक ब्राह्मण का त्रिगुणात्मक-वि० पु.सिं०] श्री त्रिगुणारिमका ] तीनों गुणयुक्त। जिसमें तीनों गुण हों। उ०---नारी के नयन! त्रिगुणात्मक नाम जिसको वनयात्रा के समय रामचद्र जी ने बहुत सी गाएँ दान दी थी। ये सन्निपात किसको प्रमत्त नहीं करते।-लहर, पु०७१। त्रिगुणित-वि० [सं०] तीन गुना किया हमा। तिगुना किया । माना किया त्रिजटा-सा स्त्री० [सं०] १ विभीषण की बहन जो प्रशोक- हुमा (को। वाटिका में जानकी जी के पास रहा करती थी। २. बेल त्रिगुणी-सहा सी० [सं०] वेल का पेड़। का पेड़। विशेष-बेल के पत्ते तीन तीन एक साथ होते हैं इसी से इसका त्रिजटी-सका पुं० [सं० विजटिन या त्रिजट ] महादेव । शिव । यह नाम पठा। त्रिजटी-संञ्चा सी० [हिं० ] दे॰ 'प्रिजटा'। त्रिगुन--वि• [ सं त्रिगुण ] सत. रज तम इन तीन गुणोवाला। विजड़-सहा पुं० [०ि ] १ कटारी । २ तलवार । उ.--फयो पुरन ब्रह्म घ्यावी विगुन मिथ्या भेष ।-पाहार निजमा-सधा बी० [हिं० ] दे० 'भियामा' । उ०—तेही विजमा प्रमि०प्र०, पृ० ३१८ । राय सरेखा । पहिली रात कि मूरत देखा । - द्रा०, पृ०१०॥ विगूढ-मा० [सं० निगृढ स्त्रियों के वेष में पुरुषों का मुत्य । निजात-सया पुं० [सं०] दे० 'प्रिजातक। विदक-सहा पुं० [सं० त्रिगृढक दे० 'निगूढ़ । त्रिजासक-सा पुं० [सं०] इलायची (फल), दारचीनी निगगनापु-सहा पुं०1० त्रि+गण ] तीन का समुदाय । ३०-- (छाल ) मोर तेजपत्ता (पत्ता ) इन तीन प्रकार के यह विवेक कल मान ताल मई विगन सुर!---पु० रा., पदार्थों का समूह जिसे निसुगधि भी कहते हैं। यदि इसमें २५४ १५७ नागकेसर भी मिला दिया जाय तो इसे धतुर्जातक कहेंगे। त्रिघंटा-सशास्त्री० [सं० बिघण्टा ] एक कल्पित नगर जो हिमालय की चोटी पर अवस्थित माना जाता है। कहते हैं, यहाँ विशेष—वैद्यक मे इसे रेचक, लक्षा, तीक्ष्ण, उष्ण्वीयं, मुह विद्याधर मादि रहते हैं। की दुर्गध दूर करनेवाला, हलका, पित्तवर्धक, दीपक तथा बायु मोर विषनाशक माना है। घट–सञ्चा पुं० [ भि+घट] स्यूल, सूक्ष्म और कारण रूप तीन शरीर । उ०-थू गनि गनि थु गनि युगा विघट उघटितत निजामाबुन-सहा श्री० [ मै० प्रियामा ] राषि। रजनी। उ०- तुरिय उतगा!-सुदर० प्र०, भा० १, पृ०८३४। ( क ) युग चारि भए सब रेनि याम | पति दुसह विथा तनु निघाइए-मि०वि० दे०1घिराति। चार बार । उनले करी काम । यहि ते दयाइ मानो विरचि । सव रैनि विजामा नद्द नंदो विघाई विधावै ।--१०रा, २५ २२४ । कीन्ह सचि।-गुमान (शब्द०)। (ख) छनदा छपा विधाना(पु-~-क्रि० प्र० [सं० तृप्त ] तृप्त होना । संतुष्ट होना । उ०- तमस्विनी तमी तमिधा होय। निशियी सदा विभावरी रात्रि नचें कर बेताल विघाई। नारद नद्द कर किला ।- क्जिामा सोय |---नददात ( शब्द०)। पृ० रा०, १९ । २१४॥ त्रिजीवासमा सौ० [सं०] तीन राशियो प्रर्यात ९० भसों तक चक्र-नमा पु० [सं०] मश्विनीकुमारों का रथ । फैले हुए पाप की ज्या। त्रिचतु - सझा पुं० [ मं० त्रिचक्षुस् ] महादेव । त्रिज्या-सग्मा श्री० [सं०] किसी वृत्त के केंद्र से परिघि तक खिची विचित - समा पु०म०] एक प्रकार को गाई पत्याग्नि । हुई रेखा । व्यास की प्राधी रेखा। निजगgif-सा पु० सं० तिर्यक आड़ा चलनेवाले जतु । पशु त्रिड़ना-कि. प्र. [अनु० तड़तड, राज. तिडकणो, हि. तथा कोडे मकोडे । तिर्यक । १०-(क) निजग देव तर जो तडकना ] दे० 'तडकना'। उ०जिरिए दीहे तिल्ली मिढ़ा,