पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/५१२

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त्रिण त्रिदिवेश हिरणी झालइ गाम । ताह दिहारी गोरड़ी, पडतउ झाला त्रिदला-सबा स्त्री० [सं०] गोधापनी हंसपदी । माम । - ढोखा०, दू० २८२ । त्रिदलिका-सहा ती [0] एक प्रकार का थूहर जिसे चर्मकता त्रिण -सबा पुं० [हिं०] दे० 'तृण' । उ०—मीढ सहस्सा मत्थरणे या सातला कहते हैं। लक्ख गिरणे निगमत्त ।-रा. रू०, पृ० ११५। त्रिदश-समा पुं० [सं०] १ देवता। उ.-(क) कदपं दपं दूर्गम दवन त्रिणता-सच्चा स्त्री० [सं०] धनुष । उमारवन गुन भवन हर । तुलसीस त्रिलोचन पिगुन पर त्रिपुर त्रिणय-पुं० [सं०] साम गान को एक प्रणाली जिसमें एक विशेष मथन जय त्रिदशवर।--तुलसी (शब्द०)। (ख) निरखत प्रकार से उसकी (३४६) सत्ताईस मावृत्तियों करते हैं। बरखत कुसुम निदध जन सुर सुमति मन फुन -सूर (शब्द०)।२ जीव। त्रिणाचिकेत-संषा पु० [सं०] १. यजुर्वेद के एक विशेष भाग का नाम । २ उस भाग के अनुयायी। ३ नारायण । ४ मग्नि निदशगुरु-वधा पुं० [सं०] देवतामो के गुरु वृहस्पति । (को०)। त्रिदशगोप--सहा पुं० [स. 1 वीरवहटी नाम का कीड़ा। त्रिणीता-सहा श्री० [सं०] पत्नी। त्रिवशदीर्घिका-सा श्री [सं०] स्वर्गना! माकाशगगा। विशेष-यह माना जाता है कि पुरुष पति प्राप्त करने के पूर्व त्रिदशपति-या पु. [सं०] इंद्र। कन्या का संवष सोम, गर्व और पग्नि से होता है। त्रिदशपुंगव-संज्ञा पुं० [सं० त्रिदशपुङ्गव ] विषणु [को०)। त्रितंत्रिका-सदा श्री. [सं० वितन्त्रिका ] दे॰ 'त्रितत्री' (को०]। त्रिदशपम्प त्रिदशपुष्प-श पुं० [सं०] लोग। त्रितंत्री-सक्ष स्त्री० [सं०त्रितन्त्रिका ] फच्यपी वीणा की तरह की त्रिदशमजरो-संक्षा नी० [सं० भिवामन्जरी तुलसी। प्राचीन काल की एक प्रकार की वीणा जिसमे तीन तार लगे त्रिदशवधू, त्रिदशवतिता-सचा श्री० [सं० ] अप्सरा। होते थे। त्रिदशवर्म-सदा पुं० [सं० त्रिदशवर्मन् ] माकाश को०] ! त्रित-सचा पुं० [सं०] १. एक ऋषि का नाम जो ब्रह्मा के मानस- पुत्र माने जाते हैं। २ गौतम मुनि के तीन पुत्रों में से एक त्रिदशश्रेष्ठ-समा . [ सं०] १ भग्नि ! २ ग्रह्म [को०] । जो अपने दोनो भाइयो से अधिक तेजस्वी और विद्वान थे। विदशसपंप-या पुं० [सं०] एक प्रकार की सरसों। देवसपंप । विशेष-एक बार ये अपने भाइयों के साथ पशुसंग्रह करने के निदशांकुश-सज्ञा पुं० [सं० १ वशाङ्क ] वज । लिये जगल में गए थे । वही दोनों भाइयों ने इनके संग्रह किए निदशाचाये--सपा पुं० [सं०] इंद्र। हुए पशु छीनफर पोर इन्हें पकेला छोडकर घर का रास्ता त्रिदशाध्यक्ष-सदा पुं० [सं०] दे० 'त्रिदशायन'। लिया। वहीं एक भेरिए को देखकर ये उर के मारे दौड़ते त्रिदशायत-सषा 101 हप एक गहरे प्रधे कुएं में जा गिरे। वहीं इन्होने सोमयाग त्रिदशायुध-सधा पुं० [सं०] वन। के भारम किया जिसमें देवता लोग भी पा पहुंचे। उन्ही देवतामो त्रिदशारि-सपा पुं० [सं०] प्रसुर । ने उस कुएँ से इन्हें निकाला। महाभारत में लिखा है कि सरस्वती नदी सी कुएं से निकली थी। त्रिदशालय--सचा पु० [सं०] १ स्वर्ग । २ सुमेरु पर्वत । त्रितय–समा पुं० [सं०] धर्म, मयं भौर काम इन तीनों का समूह । त्रिदशाहार-स . [सं०] अमृत । त्रिदशेश्वरी-सक्ष पुं० [सं०] दुर्गा । त्रिय-वि० जिसके तीन भाग हो । तेहरा [को०] । त्रिदालिका--समा स्त्री० [0] चामरकपा । सातला। त्रिपाप-संक्षा पुं० [सं०] दे॰ 'ताप'। त्रिविया -सक्षा श्री० [हिं०] दे० 'तृतीया'। उ०—त्रितिया सों, त्रिदिनस्पृश-संहा [सं०] वह तिथि जो तीन दिनों को स्पर्श सप्तमी को एक बचन कपिराइ !-पोद्दार अभि० प्र०, करती हो। अर्थात् जिसका थोड़ा बहुत प्रम तीन दिनों में परता हो। पृ०५३० ! त्रितीया -वि० [हिं० दे० 'तृतीय'। उ.-त्रितीया कोमा चाय विशेष-~-ऐसे दिन में स्नान और दानादि के अतिरिक्त मौर कोई वधेज-प्राण, पृ०३९ । शुम कार्य नही करना चाहिए। निदंड-सक्ष पु० [सं० त्रिदण्ड ] १ सन्यास माश्रम का चिह्न, त्रिदिव-सज्ञा पुं० [सं०] १ स्वर्ग। उ०-मनुज । रहना उचित वास का एक डंडा जिसमे सिरे पर दो छोटी छोटी लकडियो तुमको यही है, यहाँ जो है त्रिदिव में भी नही है।- साकेत, बंधी होती हैं। २ मन, वचन मोर कर्म का सयम (मो०)। पृ०६५। २ माकाश । ३ सुख । ३ दे० 'त्रिदडी' (को०)। त्रिदिवाधीश-~सया पुं० [सं०] १ इद्र । २ देवता (को०)। त्रिदंडी--सज्ञा पुं० [सं० विदाएउन्१ मन, वचन मोर कम तीनो को त्रिदिविधु-सञ्चा [हिं० दे० 'त्रिदिय'। उ०. स्वर्ग, नाक, दमन करने या वश में रखनेवाला व्यक्ति । २ सन्यासी । स्वर, यो, मिदिवि, दिक, तिरिविष्टप होइ -नद. ग्र० परिव्राजक । २ यज्ञोपवीत । जनेऊ । 7.१०८। त्रिदन-सका पु० [सं०] बेल का वृक्ष । त्रिदिवेश-सम पुं० [सं०] १ देवता । २. इद्र (को०)।