पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/५१३

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विदिवोदा २१५ त्रिपत्रक विदिवोदवा-सका सी० [सं०] १ बड़ी इलायची । २. गगा। निनf-सचा पु० [हिं०] दे० 'तृण' 130-पदतन इन कर्ह बलह त्रिदिवौका -सम० [सं० मिदिवौकस्] देवता [को०। कोट त्रिन सरिस जवनचय ।-भारतेंदु , भा० १, त्रिश-सा पुं० [सं०] महादेव । शिव । पु. ५४०। त्रिनयन'-सक पुं० [सं०] महादेव । शिव । विदेव--सबा १० [सं०] ब्रह्मा, विष्णु और महेश ये तीनों देवता। त्रिदोष--सब ० [सं०] १. वात, पित्त और कफ ये तीनों दोष। निनयन-वि०जिसकी तीन प्रांखें हों। तीन नेत्रोंवाला। है. 'दोष'।१०-गशत्रु विदोष ज्यों दूरि करे वर। त्रिशिरा त्रिनयना-सा बी०सं०] दुर्गा। सिरत्या रघुनंदन के पर।—केशव (शब्द०)। २. वात, विनवत-वि० [सं०] तिरानबेवी (को०)। पित और कफ जनित रोग, सन्निपात 1 50--पोवन ज्वर त्रिनवति-वि०, स्त्री. [सं०] तिरानवे । नब्बे मोर तीन [को०] । त्रिनाम-सझा पुं० [सं०] विष्णु । त्रिनेत्र-सहा पुं० [सं०] १ महादेव । शिव । २. सोना । वर्ण। निदोरजी-वि० [सं०] तीनों दोषों भर्थात् वात, पित्त मौर कफ से उत्पन्न । त्रिनेत्रचूदामणि-सधा पुं० [सं० त्रिनेत्रचूडामणि] चद्रमा {ो०] । त्रिदोपजसमा . [म.] सग्नियात रोग । त्रिनेत्ररस-सहा पुं० [सं०] वैधक में एक प्रकार का रस । त्रिदोषजा--चि०डी० [सं० ] दे० 'त्रिदोपज' । उ०-पूर्वोक्त त्रिवो- विशेष-यह शोधे हुए पारे, गंधक पौर के हए तवे को पजा प्रश्मरी विशेष करके बालकों के होती है।-माधव०, घरावर बराबर भागों में लेकर एक विशेष क्रिया से तैयार पृ. १८०। किया जाता है और जो सन्निपात रोग में दिया जाता है। त्रिदोषना -कि. म. सं० विदोष]१.तीनों दोषों, कोप त्रिनेत्रा--सपा स्त्री० [सं०] बाराहीकंद। में पड़ना। उ०-- कुलहि लजावं बाल बालिस वजावे गाल त्रिनेत-वि० [सं० तिर्यक् + नेत्र] तियंक नेत्रवाला। उ०-बढ्यो केषों कर काल वश तमकि शिवोपे है।--तुलसी (शम्ब०)। भोजराज पहार त्रिनेत ।--पु० रा०, २५ । २१८ । २.काम क्रोध और लोम के फंदों में पड़ना । उ.--(क), त्रिनैन -सा पुं० [हिं०३० 'त्रिनयन' । उ०-मरि मरि नैन विनन काति की बात वालि की सुधि करी समुझि हिताहित खोलि मनावै । प्रौदा विप्रवन्ध सुकहावै ।-नद.1., पृ० १५४ । झरोखे । कह्यो कुरोपित को न मानिए बड़ी हानि जिय जानि निल -सक्षा पुं० [हि.] दे० 'तृण'13०-पेट काज सक, तुग । विदोपे ।--तुलसी (शब्द॰) । विन परि घर पर ढा।--पृ० रा०, ११७६४ । त्रिवनी-सका पुं० [में०] एक प्रकार की रागिनी । . त्रिपंखो -समा पु० [हिं०] एक प्रकार का सिंगल गीत । उ०-मद विधवा-सहा पुं० [सं० हरिवश के अनुसार सुधन्वा राजा के एक सुकवि इण भेल, गीत विपंखो गुण इण ।- रघु०६०, पुत्र का नाम । पृ०१६.1 त्रिधर्मा-सबा पुं० [सं० विघमन्] महादेव । शिय । त्रिपंच-वि० [सं० श्रिपञ्च तिगुना पाच मर्याद पद्रह को०)। विधा'-कि- वि० [सं० तीन तरह से तीन प्रकार से। त्रिपंचार्श-वि० [सं० त्रिपञ्वाण] तिरफ्नवा (को०] । निवा-वि० [सं.] तीन तरह का त्रिपद-सधा पुं० [२०] १ काँप । शीथा। २ ललाट की तीन माडी यो०-त्रिधारव = तीन प्रकारकता। तीन प्रकार का होना। रेखाएँ या बल को०] । त्रिधातु-सहा पुं० [सं०] १ गणेच 1 २ सोना, चांदी पोर तावा । त्रिपत-वि० [हिं०] दे० 'तृप्त' 1 उ.--परगां राल घरमाल सूरा विधाम-सञ्ज्ञा पुं० [सं० त्रिधामन्] १ विष्णु । २ शिव । ३. अग्नि । वरें। विपत पखाल पिल खुल ताला।--रघु.६०, पृ०२.। मृत्यु । ५ स्वर्ग। ६ व्यास मुनि (को०) । त्रिपताक-सफा पुं० [सं०] १ वह माया या ललाट जिसमें तीन बल विधामूर्ति-सचा पुं० [सं०] परमेश्वर जिसके भतर्गत ब्रह्मा, विष्णु, पड़े हो। २ हाय की एक मुद्रा जिनमें तीन उँगलियाँ फैली पौर महेश तीनों हैं। हाँ (को०)। विवारक-वा०] १. बड़ा नागरमोथा। गुदला। २ कसेरू विपति'-वि० [सं० तृप्त>त्रिपित विपति ] दे० 'तृप्त' । ३०- का पेड़। प्रिय विघाइ पुरन भए- विपति उमापति मुर। -पु. निधारा–समा स्त्री० [सं०] १ तीन धारावाला सेहुह । २. स्वर्ग, रा, २५.७४४। मयं मोर पाताल तीनों लोकों में वहनेवाली, गगा। विपविरार-सहा श्री० [सं० तृपि] ३० 'तृप्ति' 1 30- हिप राज कह छिन विपति ।-पु० रा. ११४५४ । विशंप-सहा ' [सं०] सास्य के अनुसार सूक्ष्म, मातापितृज और महाभूत तीनों प्रकार के रूप धारण करनेवाला, शरीर। त्रिपत्र-सना ० [सं०] १ बेल का पेड़ जिसके पत्ते एक साप तीन सिग-सबा पुं० [सं०] देव, तियंग मोर मानुप में तीनों सर्ग तीन लगे होते हैं । २ पलाश का पेड़ (को॰) । जिसके अंतर्गत सारी सृष्टि मा जाती है। त्रिपत्रफ-सबा पुं० [सं०] १ पलाश का पक्ष । ढाक का पेड़। २. विशेष-दे० 'सर्ग'। तुलसी, कुंच पोर बेल के पत्ते का समूह ।