पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/५१८

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त्रियान २१६४ त्रिवलिका त्रियान--सज्ञा पुं० [सं०] बौद्धों के तीन प्रधान भेद या ज्ञान-महा. निलोक-स० [0] स्वर्ग, मत्य भोर पाताल ये तीनों लोका यान, हीनयान पोर मध्यमयान । यौ०-त्रिलोफनाय । त्रिसोफपति। त्रियामक-सज्ञा पुं० [सं० ] पाप । त्रिलोकनायसना पु० [सं०] १ तीनों लोकों का मालिक या नियामा-संशा स्त्री० [सं०] १. रात्रि । रक्षक ईश्वर । २ राम। ३. कृष्ण। ४ विष्णु का कोई विशेष-रात के पहले पार वडो पौर मतिम चार दडों की अवतार । ५. मुर्य। गिनती दिन में की जाती है, जिससे रात में केवल तीन ही त्रिलोकपति -मया पुं० [सं०] दे० 'त्रिलोकनाय। पहर बच रहते हैं। इसी से उसे त्रियामा कहते हैं। त्रिलोकमणि-सपा पुं० [7] मूर्य । १०-निरवीज कर राहत २. यमुना नवी । ३. हलदी। ४. नील का पेड़। ५ कासा निकर, मेट फिर विसोकामरिण । -पु. ४०, पृ. ४ । निसोय। त्रिलोकी-मुर खी० [0] दे० 'निसोक'। त्रियासंग-सा पु० [हिं० पिया+सग1 स्त्रीप्रसग । सहवास। त्रिलोकीनाथ~सता पुं० हि. पिनोझी+नाथ] २० निलोकनाय'। १०-राजयोग के चिह्न ये जाने विरला कोय। प्रियाग मति निलोकेश-सज्ञा पुं० [स.१ ईश्वर । २. सूर्य। कीजियहु बो ऐसा नहि होय !-सुदर प्र०, भा० १, त्रिलोचन-जा पुं० [सं.] शिव । महादेव । पृ० १०४। त्रिलोचना-सना ० [सं० 1. विलोपनी'। त्रियुग-संक्षा पुं० [सं०] १ विष्णु । २ वसत, वर्षा भोर शरद ये त्रिलोचनो - सका श्री० [सं०] १ दुर्गा । २ व्यभिचारिणी (२०)। तीनों ऋतुएँ । ३ सत्ययुग, द्वापर मोर येता ये तीनों युग। त्रिलोह --सज्ञा पुं० [सं०] सोना, चौदो और तारा। त्रियूह-सद्धा पुं० [सं०] सफेद रंग का घोड़ा। निलोहक-संज्ञा पुं॰ [सं०] पितोह (ो०] । त्रियोदश -वि० [हिं॰] दे॰ 'त्रयोदश' ! उ०-रपि अयन मस मठ बीस मानि। ससि जन्म त्रियोदस अस ज्यानि ।-६० प्रितीह-संज्ञा पुं॰ [ से• ] त्रिलोह (को०)। रासो, पु० २६ । निलीही---सज्ञा क्ष[सं०] प्राचीन फास की एक प्रकार की मुद्रा त्रियोनि--सक्षा पुं० [सं०] एक मुकदमा जो क्रोध, लोभ पौर मोह के जो सोने, चांदी पोर तवे को मिलाफर बनाई जाती पी। कारण होता है [को॰] । भिवट-सज्ञा पुं० [सं०] ३० प्रिवण'। त्रिरत्न-सपा पुं० [सं०] बुद्ध, धर्म और संघ का समूह । (व त्रिवण-संज्ञा पुं॰ [.] संपूर्ण जाति फा एक राजो दोपहर के निरश्मि-सचा बी० [सं०] दे० 'निकोण'। ममय गाया जाता है। त्रिरसक-नक्षा पुं० [सं०] वह मदिरा जिसमें तीन प्रकार के रस विशेप-से कुछ लोग दिनोल राग का पुत्र मानते हैं। त्रिवणी-सपा श्री या स्वाद हो। मकर रागिनी जो सरामरण, जमश्री निरात्रि-सा . [सं०] १ तीन रानियो (पौर दिनो) का मोर नरनारायण के मेल से बनती है। समय । २ एक प्रकार का व्रत जिसमें तीन दिनों तक उपवास विगे--मश पुं० [सं०1१ मपं, पर्म मौर काम । २. त्रिफला । करना पड़ता है। ३ गर्ग विराम नामक योग । ३ भिकुटा । ४ पृद्धि, स्पिति मोर क्षय । ५ सय, रज प्रोर तम ये तीनों गुण । ६ ब्राह्मण, क्षत्रिय मोर पैश्य ये त्रिराव-सहा पुं० [सं०] गरुड़ के एक पुत्र का नाम (को०] । तीनों प्रधान जातियो। ७. सुगति। गायत्री। निरूप-सन्ता पुं० [सं०] अवमेघ यज्ञ के लिये एक विशेष प्रकार विषर्ण -सया पुं० [0] गिरगिट (को०) । का घोडा। विवर्ण-वि० तीन रंगवाला [को०] 1 त्रिरूप-वि• तीन रगो या माकृतियोवाला [को० । निवर्णक-सपा पुं० [सं०] १ गोखरू। २.निफना। ३ पिकुटा । त्रिरेख'---सज्ञा पुं० [ सं० ] शक्ष। ४ काला, लाल भौर पीला रग । ५ ब्राह्मण, क्षत्रिय मोर त्रिरेख-वि० तीन रेखामोंवाला । जिसमें तीन रेखाएं हों। वैश्य ये तीनों प्रधान जातियो। त्रिल-सला पु० [सं०] नगण, जिसमे तानों वणं लघु होते हैं । त्रिवर्ण-या स्त्री० [सं०] वनकपास । त्रिलधु-सम्रा पुं० [सं०] १ नगण, जिसमें तीनो पणं लघु होते निवत-सधा पुं० [सं०] एक प्रकार का मोती। है। २ वह पुरुष जिसकी गर्दन, जांघ मोर मूत्रंद्रिय छोटी विशेप-कहते हैं, जिसके पास यह मोती होता है उसको दरिद्र हो । पुरुष के लिये ये लक्षण शुभ माने जाते हैं। कर देता है। विवा --वि० [सं० शिवमंन तीन मागों से जानेवाला । [को०)। त्रिलवण-सज्ञा पुं० [सं०] मेंघा, सांभर भौर सोचर (फाला) विवर्मा-मया पुं० जीव (को०] । नमक। त्रिलिंग-सज्ञा पुं० [हिं० तेलग] तेलग शब्द का बनावटी त्रिवलि-सी० [म.] दे० 'मिवली'। सस्कृत रूप त्रिवलिका-सया की• [सं०] दे० 'मिवली'।