पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/५१९

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३१६५ त्रिशकु त्रिवली-पाका बी० [सं०] दे० 'प्रिवली' । त्रिद्वंद-सज्ञा पुं० [सं०] १ रु. यजु मोर साम ये तीनों वे। बिवल्प-सा ० [सं०] बहुत प्राचीन काम का एक प्रकार का २. प्रणव । बाजा जिसपर चमडा मड़ा होता था। त्रिवृष--सबा पुं० [सं०] पुराणानुसार ग्यारहवें द्वापर के व्यास त्रिवार- पुं० [सं०] गम के एक पुत्र का नाम । का नाम । विवाह-सबा पुं० [सं०] तमवार ३२ हाथों में से एक हाय। त्रिवेणी-सका श्री० [40] १ तीन नदियों का सगम । २ तीन त्रिविक्रम--सा पुं० [सं०] १. वामन का भवतार । २ विधा। नदियों को मिली हुई धारा) ३ गगा, यमुना मोर सरस्वती विवि- पु. [सं०] वह बिसने वीरो वेव पढ़े हो। का संगमस्थान जी प्रयाग में है। त्रिविद्य-सका पु० [सं०] वह ब्राह्मण वो तीनों वेदों का ज्ञाता विशेष-यह तीर्थस्थान माना जाता है और वारुणी तया मकर हो [को० ॥ सक्राति प्रादि अवसरोपर यहाँ स्नान करनेवालो की बहुत त्रिविध-वि[सं०] चीन प्रकार का । उ.-निविधवाप त्रासस भोर होती है। त्रिमुहानी । रार स्वरूप सिंघु समुहानी । तुलसी (शब्द०) ४ हठयोग, अनुसार इडा, पिंगला और सुपुम्ना इन तीनों पाड़ियों का सगम स्थान ! त्रिविष-कि० वि० सं०] तीन प्रकार है। त्रिविनत-म [म. वह जिसमें देवता, ब्राह्मण पर गुरु के । र त्रिवेणु-सन्म पुं० [सं०] रप पगले भाग के एक प्रग का नाम । प्रति बहुत श्रद्धा मोर मस्ति हो । त्रिवेद-सम [सं०] १ ऋक, यजु पीर साम ये तीनों वेद । २. त्रिविष्टप-सक सं०] १. स्वर्ग । २ तिब्बत ।। इन वीमो वेदों में पतलाए हुए क्रम । ३. वह जो इन तीनों का मादा हो। त्रिविस्तीर्ण-सका पुं० [सं०] वह पुरुष बिसका बलाट, कमर पोर घाती ये तीनों या चौड़े हो। त्रिवेदी-सहा पुं० [सं० विदेदिन] १ क, यजु और साम इम तीन वेदों का जाननेवाला । २.बाह्मणों का एक भेद । विशेष-ऐसा मनुष्य भाग्यवान समझा जाता है। त्रिवृत' सडा पुं० [स. निवृत्] १ एक प्रकार का यश । त्रिवेनी -सच्चा औ• [हिं०] ३० त्रिवेणी'। २.निसोय। त्रिदेला-सक्षा की. [सं०] निसोय। त्रिवृत' - सवा ली तीन लहरों की करधनी [को०] । त्रिशंक-धा पुं० [सं० विशङ्क] १ बिल्ली। २ जुगुमू । ३ एक पहाड़ का नाम! ४ पपीहा । ५ एक प्रसिद्ध सूर्यवंशी राजा त्रिवृता-सबा बो• [सं०] १. 'त्रिवत' ।। का नाम जिन्होने सशरीर स्वर्ग पाने की कामना से यज्ञ त्रिवृत्करण-महा पुं० [सं०1 मनि, जान पोर पृथ्वीन तीनों तत्वों किया था पर जो इंद्र तथा दूसरे देवतामो के विरोध करने में से प्रत्येक में शेष दोनों तत्वों का समावेश करके प्रत्येक को के कारण स्वर्ग न प?र सो।। अलग अलग तीन भागों में विभक्त करने की क्रिपा विशेष-रामायण में लिखा है कि सशरीर स्वर्ग पहुँचने को विशेष-नस विचारपति मुसार प्रत्येक तत्व में शेष तस्यों कामना से त्रिपाकु ने अपने गुरु वशिष्ठ से यज्ञ कराने को भी समावेश माना जाता है। उदाहरण लिये पग्नि को प्रार्थना की पर वशिष्ठ ने उनकी प्रार्थना स्वीकार न की। इस- लीजिए । अग्नि में पग्नि, जल भौर पृथ्वी का समावेश माना पर वह वशिष्ठ के पुत्रो के पास गए, पर उन लोगो ने भी जाता है, और इन तीनों तत्वों अस्तित्व प्रमाणस्वरूप उनकी पास न मानी, उलटे उम्हे शाप दिया कि तुम चांडाल अग्नि को लाई, सफेदी पौर काषिमा उपस्पित की जाती हरे लामो। तदनुसार राका चाडाल शेफर विश्वामित्र की है। अग्नि को ललाई उसमें परिव के होने का, उसकी शरण में पहुंचे मोर हाय षोडार उनसे अपनी प्रमिपाषा मफेदी उसमें बल के होने का और में की कालिमा इसमें प्रकट की। इसपर विश्वामित्र ने बहुत से पियों को पता- पृथ्वी तत्व होने का प्रमाण माना जाता है। योग्योपनिषद् कर उस यज्ञ करने के लिये कहा। ऋषियों ने विश्वामित्र के छठे प्रपाठक चौथे खंड में इसका पूरा विवरण दिया कोप से डरकर यज्ञ पारम किया जिसमें स्वय विश्वामित्र हमा है। जान पड़ता है, उस समय तक घोगों को स्वष प्रध्वयं बने । षय विश्वामित्र ने देवतामो को उनका कि- तीन ही तत्वों का ज्ञार या पापौर पीछे जापौर दो भांग देना चाहा पर कोई देवता न पाए। इसपर विपण- तत्वों का ज्ञान हया तब तत्वों के पंचीकरणवाली पद्धति मित्रहत पिपौर केवल अपनी तपस्या बली निकली। निश को पशरीर स्वर्ग भेजने पगे। जब इंद्र त्रिश त्रिवृत्त-वि० सं०] तिगुवा ! को सशरीर स्वर्ग की मोर पाते हुए देखा तब उन्होंने वही त्रिवृत्ता-सहा श्री० दे० 'विपत्ति'। उन्हें मयंघोक को पोर लौटाया। त्रिशंकू पर उलटे होकर त्रिवृत्ति-पापी० [सं०] निसोष। नीचे गिरने लगे तो जोर से चिल्लाए । विश्वामित्र त्रिवृत्पर्णोसड़ा सी० [सं०] हरहर । हिलमोपिका। उन्हें पाकाश में ही रोक दिया भोर ऋद होकर दक्षिण की