पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/५२१

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विशूमपात २१६० विसरेनु यो०--त्रिशूलभर महादेव । सुमुखी, इंद्रवजा, उपेंद्रवजा, काति, वारणी, माला, शाला, २ दैहिक, दैविक मोर भौतिक दुख। ३ तत्र के अनुसार एक इंसी, माया, जाया, पाला, पा, भद्रा, प्रेमा, रामा, रयोदता, प्रकार की मुद्रा जिसमें मंगूठे को कनिष्ठा उगली के साथ दोधक, ऋद्धि और सिद्धि या बुद्धि मादि प्रधान भेद है। मिलाकर बाकी तीनों उगलियों को फैला देते हैं। त्रिष्टोम-सज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का यश जो क्षत्रवृति यज्ञ के विशनपाव-- सह पुं० [स] महामारत के अनुसार एक तीर्थ पहले और पीछे किया जाता है। जहाँ स्नान मोर तर्पण करने से गारणुपत्य देह प्राप्त होती है। निष्ठ–मुज्ञा पुं० [सं०] तीन पहियोंवाला रप या गाडी। त्रिशूलधारी-सझा पुं॰ [ स. त्रिशूनधारिन ] शिव (को॰] । त्रिसंक-संज्ञा पुं.हि.1 दे० 'त्रिशकू' 130-कमल भवाज त्रिसक त्रिशूली-शा पु० [स. त्रिशूलिन् ] त्रिशूल को धारण करनेवाला, वह वध चम मादि सदव । होहि हलंत कदापि नहि, माइ महादेव । करे जो वैव ।-पोद्दार अभि००, पृ० ५३४ । , त्रिशूली-2 श्री दुर्गा। त्रिसंगम-संज्ञा पुं० [सं० त्रिसङ्गम ] १. तीन नदियों के मिसन त्रिएंग-सहा पुं० [ म० विगत १ विकूट पर्वत जिसपर लगा ___ का स्थान । त्रिवेणी। २ किसी प्रकार की तीन चीजों सोपी । २ त्रिकोण। का मेल। क्रियगी-सहा बी० [• त्रिसङ्गी रेंगना नचनी जिसके सिर पर त्रिसंधि-सज्ञा सी०सं० त्रिसन्धि 1 एक प्रकार का फल जो लाल, तीन कोटे होते हैं। सफेद और काला तीन रंगों का होता है। इसे फगुनिया मी त्रिशोक-सा पुं० [सं०] १.जीव, जिसे प्राधिदैविक, प्राधिभौतिक, कहते हैं। वैद्यक मे इसे रुचिकारक प्रौर कफ, खांसी तथा पाव्यात्मिक ये तीन प्रकार के थोक होते हैं। २ करव यापि त्रिदोष का नाशक माना है। के एक पुत्र का नाम । पर्या०-साध्यकुसुमा । सषिवल्ली। सदाफला । त्रिसध्यक्रममा । विश्रुतिमध्वम-- सं० [सं०] एक प्रकार का विकृत स्वर । काहा । सुकुमारा। सधिजा। विशेष—यह संदीपनी नाम की थति से मारम होता है। इसमें त्रिसंध्य-सज्ञा पुं० [सं० त्रिसन्ध्य ] प्रात, मध्याह्न भोर सायं ये पारतिया होती है। तीनों काच । विपरण-समा पुं० [सं० } प्रात., मध्याह्न भोर साय ये तीनों विशेष-जो तिथि विसध्यव्यापिनी, अर्थात् सूर्योदय से लेकर काल । त्रिकाल। सूर्यास्त तक रहती है वह सब कार्यों के लिये ठीक मानी त्रिषष्ठ-वि० [सं० 1 तिरसत्रा। क्रम में तिरसठ के स्थान पर जाती है। पड़नेवाला। त्रिसंध्यकृसुम-सज्ञा पुं० [सं० त्रिसन्ध्यकुसुम ] दे. 'त्रिसधि। विपष्ठि-समा सो [सं०] साठ और तीन को सूचक संख्या जो त्रिसंध्यव्यापिनी-वि० स्त्री० [सं० त्रिसन्ध्यम्पापिनी (वह इस प्रकार लिखी जाती है--६३ । तिथि)जो बराबर सूर्योदय से सूर्यास्त तक हो। त्रिपष्टिवि० साठ मोर तीन । तिरसठ [को०] । विशेष-ऐसी तिथि शुद्ध पौर सघ फार्मों के लिये ठीक मानी विषा-पना स्त्री० [हि.] दे० 'तृपा'। उ०-प्रमर भेद साहिब जाती है। काह दी। त्रिपा वझाय पनीरस पीजे ।-वीर सा०, त्रिसध्या-संज्ञा खी० [सं० निसन्ध्या ] प्रात, मध्याद पर सारी पृ. ६६२। तीनों सष्णए । त्रिपालीg- विहि . प्रिया 1 उपातुर । प्यासा । उ०-पिथल्या त्रिसप्तति-संज्ञा श्री० [सं०] १. सत्तर भौर तीन का जोड़। रहे विषाली मगल्यों माव मिल ।-जट०, पृ० १६८ । तिहत्तर । २ तिहत्तर की सख्या जो इस प्रकार लिखी त्रिपित-वि० [हिं०] दे० 'तृषित'। उ-मातुर गति मनो जाती है-७३। पद उदै भए घावत विपित चकोरी 1-- नंद० प्र०, ३३२। त्रिसप्ततितम-वि० [सं०] तिहत्तरवा। जो क्रम में तिहत्तर के त्रिपु - सज्ञा पुं० सं० 1 तीन वाणो तक की दूरी का स्थान । स्थान पर हो। त्रियुक-सज्ञा पुं०] तीन बाणोंवाला धनुष । त्रिसम-पथा पुं० [सं०] सोंठ, मुड़ और हड इन तीनो का समूह । त्रिपुपर्ण-सज्ञा पुं० [सं० 1 दे० 'त्रिसुपणं'। त्रिसम-वि० जिसको तीनों भुजाएं बराबर हो ( ज्या० )। विष्टक-सजा पुं० [सं०] एक प्रकार की वैदिक मग्नि । त्रिसर-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] १. खेसारी । २. तीन लडियो का मोतियों त्रिष्टुप-संज्ञा पुं० [सं० त्रिष्टुप ] दे. "बिष्टुभ्'। का हार (को०)। ३ दूध में मिलाकर पका हुपा सिल और त्रिष्टुम--सज्ञा पुं० [सं०] एक वैदिक छद जिसके प्रत्येक चरण में चावल (को०)। ग्यारह प्रक्षर होते हैं। त्रिसरैन -मज्ञा स्त्री० [सं० प्रसरेणु ] दे० 'प्रसरेणु' । उ०-उपजत विशेष-इसका गोत्र कौशिक, वर्ण लोहित, स्वर धैवत, देवता भ्रमत फिरत गहि चैनु । जैसे जालरध्र विसरैनु । -नद. Xोर उत्पत्ति प्रजापति के मांस से मानी जाती है। इसके प्र.,पृ. २७० । विप