पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/५२२

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युटी निसर्ग त्रिसगे-समझ पुं० [सं०] सत्व, रज धौर तम पीनो गुणो का निस्रोता--सजा स्त्री० [स० विस्रोतम्] १. गगा। उ.--मस्म ग्रिप- समं । सृश्चि। ड्रफ शोभिजे वणंत बुद्धि उदार । मनो विस्रोता सोनयति त्रिसल -पकौ वक्त लगी लिलार ।-केशव (शब्द०)। २ उत्तर बंगाल [?] त्रिरेखा। त्रिपुट। उ०-मन माया बालप लिया, विसलो लिया लिलाट । --ौकी० म०, की एक बड़ी नदी जिसे तिस्ता कहते हैं। भा० २, पृ.१६। निहायण-वि० [स] जिसकी अवस्था तीन वर्ष की हो [फोन। त्रिसामा-सज्ञा पुं० [सं० त्रिसामन् ] परमेश्वर । त्रिहायणी-सज्ञा स्त्री॰ [स०] द्रौपदो। त्रिसामा२-पा की• [सं०] भागवत अनुसार एक नदी को बिहूत--सज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तिरहुत'। महेंद्र पर्वत से निकलती है। त्री --मज्ञा श्री० [हिं०] ३० 'प्रिया'। उ०-गुण गजवध तणा कब त्रिसिता-सज्ञा ली० [स] दे० 'त्रिशकरा'। गावै । दुरस परायण श्री दरसावै ।-रा० ६०, पृ० १६ । त्रिसुगंधि--सशा बी० [स. त्रिसुगन्धि ] दालचीनी, इलायची और त्रीg'--वि॰ [हिं०]दे० 'नि'। 3.--ग्री प्रस्थान निरतार निरधार। तेवपात इन तीनों सुगवित मसानों का समूह ! ___ नह प्रभु बैठे सम्रप सार ।--दादू०, पृ० ६७५ । त्रिसुद्धा-वि० [ स० वि + शुद्ध ] तीनो तरह से शद्ध । उ०--जूझ त्रीकटा@-सहा पु० [हिं॰] दे० 'त्रिकुटा' । उ०-मोथा मौर जू सुख त्रिसुद्ध तो स्वर्गापवर्गहि पावही।-पाकर प्र० मोल ली । पिता को पीटा ममानी।-टा.. पृ० १५ । पु. १५१ । निसपर्या सज्ञा पुं० [स०] १. ऋग्वेद तीन विशिष्ट मत्रों का श्रीगनQ-वि० [सं० विगण 1 तिगुना । 30-इद्र बीराइ बल इद्र नाम । २ यजुर्वेद के तीन विशिष्ट मत्रों का नाम जोर । श्रीगुन विलास तन हरत रोर 1-पृ. १०,६८०1 त्रिसुपर्णिक--सज्ञा . [स०] वह पुरुष जो त्रिसुपर्ण का ज्ञाता हो। त्रीपटना-फि० भ० [हिं० घटना घटित होना । हाना । उ०-- त्रिसुलरा--सज्ञा पुं० [हिं० त्रिसल ] चिता या कोषावेश मे ललाट पाथरी घही यो के त्रोघट लोह ।-----वी. रासो. पृ०६४।। पर उभर मानेवाली त्रिशूल की प्राकृति की रेखा । उ०- नीलन --वि० [हिं०1३० तीक्ष्ण'। 30--प्रणिनि तत्त सुर माथि त्रिसूनउ नाक सल, कोइ विट्ठा कज्ज !--ठोला, ऊपर बहई । पोछन पाल पवन कर अहई ।-स. दरिया, दु० २१६ । १० २५। त्रिसौपर्ण--सज्ञा पुं० [स०] १ त्रिसुणिक । २. परमेश्वर । परमात्मा। । त्रीजइ---वि० [सं० तृतीय ] दे० 'तीसरा' 1 30-त्रीजइ पुहरि त्रिस्कंध--संज्ञा पुं० [सं० त्रिस्कन्ध ज्योतिष शास्त्र जिसम सहिता, उलाँघियउ.प्राउ बलारठ घट।--ढोला०, दु०४२४ । तत्र पौर होरा ये तीन स्कध है। त्रीस -सा की० [हिं०] २० 'तृषा'। उ०—सूख नहीं पीस त्रिस्वनी-सशा श्री. [स.] १ गायत्री। २ महाभारत के अनुसार ऊछली 1-बी. रासो, पृ० ६७ ।। एक राक्षसी जिसके तीन स्तन थे। त्रीयाँ वि० [सं० नि] तीनो। उ०—मारू मारह पहिपड़ा, जउ । त्रिस्तवन--सज्ञा पुं० [स] तीन दिनों में होनेवाला एक प्रकार पहिर सोवन्न । दती चूडई मोतिया, श्रीयो हेक वरन्न ।- काया। होला, १० ४७५। त्रिस्तावा--सज्ञा श्री० [सं०] अश्वमेघ यज्ञ की वेदी जो साधारण वेदी प्रगटो–सानो [हिं०1-दे० विकूटी'। उ०-युगुणी त्रुगटी से तिगुनी बड़ी होती थी। मनकर परघा उपट ध्यान धरी जै ।---रामानद०, पृ० २७ । त्रिस्थली–समा नौ• [ स.] फाशी, गया पौर प्रयाग ये तीन त्रुगुणी-सचा मो० [हिं० ) दे० 'त्रिगुणी' । उ०—जुगुणी त्रुगटो पुरय स्थान । मनकर मघा सपट ध्यान धरीजै ।-रामानद०, पृ० २७ । त्रिस्थान-सज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ग, मत्यं पोर पाताल तीनो स्थावों में अटि-सचा धो०], कमी । कसर। न्यूनना। २ अभाद। रहनेवाला, परमेश्वर । ३ भूल । चूक । ४ वचनभग। ५. छोटी इलायदो । एला। त्रिस्पृशा-सज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की एकादशी। ६ सशय । सदेह । ७ कार्तिकेय की एफ मातृका का नाम । विशेष—यह उस समय होती है जब एक ही सायन दिन मे ८ समय का एक भत्यस सूक्ष्म विभाग जो दो क्षण के बराबर उदयकाल के समय थोड़ी सी एकादशी पौर रात ये मत भौर किसी के मत से प्राय चार क्षण के बराबर होता है। प्रयोदली होती है। ऐसी एकादशी बहुत उत्तम पोर पुण्य त्रुटित-वि० [सं०] १ कटा या टूटा हुमा । २ जिसपर आघात कायोलिये उपयुम मानी जाती है। लगा हो।३ मात । त्रिस्नान-सज्ञा पुं० [ur ] सबेरे, दोपहर और सध्या तोनों समय भुटिवीज-सपा पुं० [सं०] महई । कच्चु । घुईया। का सान। त्रुटी -सचा सौ• [हिं० ] ३० 'त्रुटि' । विशेप-यह वान- पाश्रम में रहनेवाले के लिये मावश्यक है। ग्रुटीर-सा पुं० [हिं०] ३० 'श्रुटि'। उ.---त्रुटो परे है या मेरा कई प्रायश्चित्रो मे भी त्रिस्नान करवा पड़ता है। मैया बीवरी बहु दुख पावै। १६००, पृ. ३५१ ।