पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/५२३

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यंविका अटना-कि. म. [हिं॰] दे० 'टूटना' । उ०-सदेसठ जिन पाठवा, मरिस्यऊँ हीया फुटि पारेवा का मूल जिरं, पडिनई ग्रामरिण टि।- ढोला०, दू. १४३ ।। वेट -सा [ हि.] दे० 'पाटक'17-टकु भेष न चेटकु कोई।-प्राण, पृ०११०।। अंटना -क्रि० प्र० { सं० त्रुटि ] तोडना ! चोट मारना । 30- कटक काल फिरि कदे न बेटे {---प्राण, पृ० १०६ । वेवा-सा पुं० [सं०] १ चार युगों में से दूसरा युग जो १२६६०० वर्ष का होता है। विशेष-पुराणानुसार इस युग का जन्म प्रयवा धारभ कार्तिक शुक्ला नवमी को होता है। इस युग में पुरुष के तीन पाद मोर पाप का एक पाव होता है, मोर सब लोग धर्मपरायण होत हैं। पुराणानुसार इस युग में मनुष्यो की भायु दस हजार वर्ष तथा मनु के अनुसार तीन सौ वर्ष होती है। परशुराम मौर रघुवी राम के प्रवतार का इसी युग में होना माना जाता है। मुहा०-प्रेता के बीदों में मिलना = सत्यानाश होना । नष्ट होना। {एक चाप)। २ दक्षिण, गार्हपत्य मोर माइवनीय, ये तीनो प्रकार की पग्नियाँ । ३ जुए में तीन कौड़ियो का भयवा पासे के उस भाग का पित पड़ना जिसपर तीन चिदियो हो। त्रेताग्नि-सवा पुं० मा दक्षिण, गार्हपत्य मोर माहवनीय ये तीनों प्रकार की मग्निया। त्रेतायग-सबा पु. ] दे० 'ता'। त्रेतायुगाच-सज्ञा पुं० [सं०] कार्तिक शुक्ला नवमी, जिस दिन घेता का जन्म या मारम होना माना जाता है। विशेष-इसकी गणना पुण्य तिथियों में है। बेतिनी--संज्ञा स्त्री० [सं०] यह क्रिया जो दक्षिण, गार्हपत्य मोर माहवनीय तीनो प्रकार की अग्नियो से हो। घा-क्रि० वि० [सं०] तीन प्रकार समयबा तीन भागो में [को०) । न -सा धुं० [हिं०] दे० 'तण'। उ०-नैहर नेह नहि न तन तोरो। पूष्प पसग पर प्रेम प्रिति जोरो--सं० हरिया पृ० १७२। -वि० [सं० श्रय ] तीन । उ.--ज्यों प्रति प्यासो पावै मग में गगाजल । प्यासन एक बुझाय बुझ ये ताप वल !~-केराव (शब्द०)। यो०-कालिक कंटक-मधा पुं०म० कण्टक ] ३० विकटक' । वकयुद-सधा पुं० [म.] . निपुद्'। त्रैम्भ -- सा पुं० [सं०] ३० मिककुभ' । घंकाक्षा-सा पु० [सं०] ३० "त्रिकालज्ञ' 1 लिक -सा पुं० [सं०1० ताग्निकी ] वह जो निकाल मे होता हो। तीनो कालो मे मा सदा होनेवाला। कात्य-- [म.] १ वान कान-भूत, वर्तमान मौर भविष्यत् । २ सूर्योदय, अपराह्न मोर सूर्यास्त । ३. तीन का समूह । ४ तीन दशाएँ-उत्पत्ति, रक्षण और विनाश [को०] । कुटक-सा पुन सं०] कलचुरि राजवश के समय का एक प्राचीन राजवश । कोणिक-सज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसके तीन पावं हो। तिपहला २ वह जिसके तीन को हो। त्रैकोन–सञ्चा पुं॰[हिं० ] दे० 'विकोण' । ३०–मध्यचरन कोन है प्रमृत कलश कहूं देख-भारतेंदु म, भा० २, पृ० ३३ । गत-सज्ञा पुं० [सं०] १ त्रिगत देश का रहनेवाला। २ विगत देश का राजा। गणिक--वि० [सं०1१ तेहरा। तीनगुना। २ तीन गुणों से सवधित को। पुण्य-सचा पु० [सं०] त्रिगुण का धर्म या भाव । सत्व, रज और तम इन तीनों गुणो का धर्म या भाव। तारा-सा पुं० [हिं०] दे॰ 'येता' । उ ता राम रूप दपारथ गृह रावन कुलहि संधारयो ।---दो सौ बावन०, भा. १, पृ० १६२। वैदशिक'---सच्या पुं० [सं०] उगली का अगला भाग, जो तीर्थ कहलाता है। दशिक-वि०१ ईश्वरीय । २ देवतामों से सबंधित (को० । त्रैध-वि० [सं०] तेहरा । तिगुना [को०)। घातवी--सा पी० [१०] एक प्रकार का यज्ञ । पन -वि० [हि० दे० 'तिरपन' । उ०-हवसीह सग अपन , हजार । कर घर कहर कर्ता वजार ।-पृ० रा०, १३ 1 १७ । पुर-समा पुं० [सं० ] दे॰ 'विपुर' । पुरुप-वि० [सं०] [वि० सी० पुरुषी ] पुरुषो की तीन पीढ़ी तक चलनेवाला (को०)। फल-ससा पुं० [सं०] चक्रदत्त के अनुसार वैद्यक में एक प्रकार का पत जो त्रिफला आदि के सयोग से बनाया जाता है और जिसका व्यवहार प्रदर मादि रोगों में होता है। ने बलि-सञ्ज्ञा पुं॰ [सं०] एक पि का नाम जिनका उल्लेख महा- भारत में है। त्रैमातुर-सज्ञा पुं० [सं०] लक्ष्मण । विशेष-~लबमए जी सुमित्रा के गर्भ से उत्पन्न हुए थे पर सुमित्रा ने चर का जो मश खाया था वह पहले कौशल्या पौर देकयी को दिया गया था मोर उन्हीं दोनो से सुमिया को मिना था, इसीलिये लक्ष्मण का नाम मातुर पड़ा। मासिक --वि० [सं०] [वि० शैमामिकी ] हर तीसरे महीने होनेवाला । जो हर तीसरे महीने हो । जैसे, मासिक पत्र । त्रैमास्य-सज्ञा पुं० [स०] तीन महीने का समय [को० 1 यचक'-सा पुं० [म श्रयम्बक] एक प्रकार का होम। यवकर-वि० [म.] श्यवक सबधी । जैस, यत्रक बलि । यंविका-सा खी० [सं०वम्विका] गायगी।