पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/५२८

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थपिर धबिर-वि०, सक्षा पुं० [सं० स्थविर, प्रा. विर] दे० 'स्थविर'।- कापना । उ०-सारी जल बीच प्यारी पीतम के मंक लागी सावयधम्म दोहा, पु. १२८ । चंद्रमा के चार प्रतिबिंब ऐसी घरयरात ।-शृगारसुधाकर थम-सपा पुं० [सं० स्तम्भ, प्रा० थम] १ खभा। लाट 1 स्तम। (शब्द०)। थूनी। उ०-धरती पठि गगन थम रोपी इस विधि पन थरथराहट-मचा स्त्री० [हिं० थरयराना ] कंपकंपी जो हर के पंड पेलो।-रामानद०, पृ० १५। २. केलो की पेडी। ३. ___ कारण हो। छोटी छोटी पूरिया पौर हलुमा जिसे देवी को पढ़ाने के लिये थरथरी-सशा स्त्री० [अप० थर थर] पपी जोहर के कारण हो। स्त्रियां ले जाती हैं। क्रि० प्र०-यूटना ।-लगनर । थमकाना-क्रि० स० [हिं० यमकना या ठमकना का प्रे० रूप] थरथरा -सया स्त्री० [नु० स्तमित करना । रोकना। उ०-सांस को थमका कर सारे पर दे० 'यर थर'। उ०-थरय्यर बदन को फडा किया मौर जमाई ली। नई०, पृ०६९ काइर जाइ रमकि ।-५० रासो, पृ० ४२। थरना'-क्रि० स० [म. पुर्व. हि० पुरना] योढ़ी पादि से पातु पर थमकारी-वि० [सं-स्तम्भकारिन्] स्तंभन करनेवाला । रोकने- थरना' वाला। उ०--मन बुधि चित अहंकार दर्थे इद्रिय प्रेरक चोट लगाना। थमकारी।-सूर (शब्द०)। थरना-सपा पुं० सुनारो का एक मौजार जिससे वे पत्ती की नक्काशी थमना-क्रि० प्र० [सं० स्तम्मन ( = रुकना)] १. रुकना । ठहरना । बनाते हैं। चलता न रहना । जैसे, गाडी का थमना, कोल्ह का पमना। थरना --सफा मी० [ मं० स्तर, प्रा. स्वर, थर 1 फैलना । उ.- २. जारी न रहना । देव हो जाना । जैसे, मेह का थमना, कारी घटा डरावनी प्राई। पापिनि साँपनि सी थरि छाई।- मासुमो का यमना। ३. धीरज धरना । सव करना। ठहरा नद० प्र०, पृ० १६१। रहना । उतावला न होना । जैसे,-थोड़ा यम जामो, चलते हैं। थरपना -क्रि० स० [सं० स्यापन] स्यापित करना । प्रतिष्ठित संयो० कि०-जाना। करना। स्थापना। 30-~दरिया साँचा सूरमा, मरि दल घाले चूर । राज परपिया राम का, नगर बसा भरपूर- थमुभाई-सधा पुं० [हिं० थामना] नाव के डोडे का हत्था। दरिया. वानी, पु० १३ । (ख) बघन जाल जुक्त जम दीनी, थम्मा-सचा पुं० [सं० स्तम्भ] [ो. थभी] दे० 'यंभ' । उ०-(क) कीनी काल परपना 1-~, रसी० पा०, पृ० २२६ । थम्मा के गलि लागई पहि सिर पर प्रगनि अंगारू ।-प्राण, पृ० २४४ । ( ख ) काम विरह की पाठी पाधा। विरह थरमस-सचा पुं० [अ०] एक प्रकार का पाय जिसमे वस्तुप्रो का थर अग्नि की यम्मी बाधा ।—प्राण.पु. १५२ । तापमान देर तक सुरक्षित रहता है। थर-सधा सी० [सं० स्तर] तह । परत । थरसना-क्रि० स० मिव प्रसन] यर्शना। कांपना। त्रास पाना । थर-सहा पुं० [सं० स्थल] १ दे० 'थल'। उ०--एहि पर बनी उ.-घनमानद फोन अनोखी दसा मवि भावरी वावरी ह क्रीडा गजमोचन पौर पनत कथा नुति गाई ।-सूर०, ११६ ! बरसे। --रसखान०, प. ५३ । २. वाघ की मौद। थरहरना-फि०प० [देशी वरहर) हिलना ठुलना। थरथराना। थरक-सद्धा श्री० [हिं०] दे० 'थिरक' । कापना । उ०-ताजन पर कलंगी यरहरई। तुपगन दलदल सोमा करई।-भारतेंदु ग्र०, भा॰ २, पृ० ७०५ ॥ थरकना -क्रि० भ० [अनु० थर थर+करना] घर्राना । डर से फापना। उ०-वंक हग बदन मयक धारे मरु भरि मग थरहराना-कि०म० [हिं०] दे० 'घरथराना। मे ससक परयंक थरकत है !-देव (शब्द॰) । थरहरी-पुज्ञा स्त्री० [हिं० यरहरना] कपकपी जो डर के कारण थरकाना-क्रि० स० [हिं० थरकना] डर से कंपाना। हो । उ०-खरी निदाधी दुपहरी तपनि भरी बन गेह। हहा परी यह कहि कहा परी यरहरी देह ।-स. सप्तक, पृ. २७६ थरकुलियाई-सक्षा स्त्री० [हिं० थाली] दे॰ 'थरुलिया। थर थर'-सवा सौ. [अनु॰] डर से कांपने की मुद्रा । थरहाई-पशा श्री० [रा.] एहसान । निहोरा । मुहा०-पर पर करना-डर से कांपना। थरि-- . [सं० स्थली] १ बाघ प्रादि को माद । चुर। उ०- थर थर-कि० वि० कापने की पूरी मुद्रा के साय। जैसे,—वह डर सिंह परि जाने बिन जावली जगल भठो, हटी गज एदिल के मारे थर थर कापने लगा। उ०—यर थर कापहि पुरमर पठाय फरि भटक्यो।---भूपण प०, १०१२। २ स्थली । नारी।-तुलसी (शब्द०)। मावास स्थान । रहो की जगह । उ०—जो लगि फेरि मुकुति थरथर कॅपनी-सक्षा श्री० [हिं० थरथर+कापना] एक छोटी है परौं न पिजर माहे । जाउँ वेगि थरि भापनि है जहाँ दिक वनाह |--पदमावत, पृ० ३७३ । चिड़िया जो वैठने पर कापती हुई मालूम होती है। थरथराट -संज्ञा स्त्री० [हिं० थरथराना] परथराहट। कॅपकपी। थरिया-सचा स्त्री [स० स्थालिका] दे॰ 'पाली'। उ.-थरथराठ अप्पनो तज्यौ भक्कोट कामकृत ।-१० थर --सज्ञा पुं० [सं० स्थल ] दे० 'थल'। रा०, ६१ । १८०। थरुलिया-संज्ञा स्त्री॰ [हिं० थारी] छोटी थाली। _ थरथराना-कि०म० [अनु० थर यर] १. डर के मारे कापना। २. थरुहट-सबा . [ देश० था] थत्मो की बस्ती।