पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/५५५

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१२०३ दयक्ष दग्ध-वि० [सं०] १. जला या जलाया हुमा। २ दुखित । जिसे दचकना-कि०म० [मनु.] १ ठोकर या धक्का खाना । २. दर कष्ट पहुंचा हो। जैसे, दग्घहृदय । ३. कुम्हलाया हुमा। जाना । लचकना । ३ झटका खाना । म्लान । पैसे, घाघ प्रानन । ४ अशुभ । जैसे, दग्ध योग। दचकनार---क्रि० स०१ ठोकर या धक्का लगाना । २ दवाना। ५ क्षुद्र । तुच्छ । विकृष्ट । जैसे, दग्धदेह, दग्घउदर, दग्धजठर। लचकाना । ३ झटका देना। ६. शुष्क। नीरस । वेस्वाद (को०)। ७ बुभुक्षित । क्षुधाग्रस्त दचका-सधा पुं० [हिं० दचकना ] धक्का । ठोकर । १०-हलका (को०)। ८ चतुर । पालाक। विदग्ध (को०)। सा दचका लगा तो गाडीवान की नीद सुन गई।-रति., ध'- महा पुं० [सं०] एक प्रकार की धास जिसे कतृण भी कहते हैं। दवना-क्रि० प्र० दिरा०] गिरना। पड़ना । उ गन उडाइ गयो दग्धकाक-सका पुं० [सं०] डोम फौया । ले श्यामहि प्राइ घरनि पर मापदच्यो री |--तुर (शब्द०)। दायमंत्र-मक्ष पुं० [स० दग्धमन्य ] तत्र के अनुसार वह मत्र जिसके दुच्चा-सचा पु. दिश०] ठोकर । धक्का । दचका । उ-तनै बालमूर्धा प्रदेश में वह्नि और वायुयुक्त वणं हों। बच्चे फिर खात दच्चे |--पद्माकर पं०, पृ० ११। दग्घरय-सबा पुं० [सं०] इद्र के सारथी चित्ररथ गंधर्व का एक नाम। दुच्छ -वि० [सं० दक्ष] चतुर । निष्णास ! फुयल । १०-सापवस विशेष-दे० 'चिचरप' । मुनिषधू मुक्तकृत विप्रहित यजरच्छन दच्छ पच्छकर्ता।-तुमसी दग्धरह-सक पुं० [सं०] तिलक वृक्ष । पं, पृ.। दग्बरहा- सका बी• [सं०] कुरुह नामक वृक्ष। दच्छ-सहा पुं० [सं० दक्ष, मा० दच्छ] दे० 'दक्ष' उ.-जनमी दग्धवर्णक-सा पुं० [सं०] रोहिष नाम की घास । प्रथम दच्छगृह जाई।--मानस, १। दग्धत्रण-सका पुं० [सं०] जलने का घाव (को०) । यौ०-दन्छकुमारी । दच्छत-दक्ष प्रजापति के पुय । उ०दुग्धव्य-वि० [सं०] जलाने लायक ! कष्ट देने योग्य [को॰] । दच्छसुतन्हि उपदेसेन्हि जाई !--मानस, १ । दच्छसुवा। दग्धा-सा स्त्री० [सं०१सय के मस्त होने की दिशा। पश्चिमी दच्छकुमारा-सा बी.[ सं०दक्ष कुमारी दक्ष प्रजापति की कन्पा, सठी 1 उ.-मुनि सन विदा मागि त्रिपुरारी। चले २. एक प्रकार का वृक्ष जिसे कुरु कहते है। ३ कुछ विशिष्ट राशियो से पुक्त कुछ विशिष्ट तिथियो। जैसे-मीच पौर धन भवन संग बच्छकुमारी ।-तुलसी (शब्द०)। को प्रष्टमी । वृष भौर कुम की धौय । मेप पोर फर्क फी दच्छना-सहा मी० [सं० दक्षिणा ] दे० 'दक्षिणा'। छठ। कन्या और मिथुन की नौमी। वृश्चिक पौर सिंह फी दच्छसुता-या स्त्री० [सं० दक्षसुता ] दक्ष की कन्या, सती। दशमी । मकर और तुला की बादशी। दच्छिन-सचा पुं०, फि० वि०, वि० [सं० दक्षिण दे० 'दक्षिण'। विशेष--दग्घा तिथियों में बेदारभ, विवाह, ब्रीप्रसग यात्रा या उ०-दच्छिन पिप हवाम वस विसराई तिय आन । एक वाणिज्य मादि करना बहुत हानिकारक माना जाता है। वासर के विरह लागे वरप वितान ।-विहारी ( शन्द०)। दग्धा-वि० [सं० दग्ध] १ जलानेवाला । २. दुख देनेवाला । [फो०] | दलितनाय का०]। दच्छिननायक-सञ्ज्ञा पुं० [सं०दक्षिण+नायक ] दे० 'दक्षिणनायक'। -Hatoref दग्धाक्षर-सहा पुं० [सं०] पिंगल के अनुसार म ६, र, म और ष दच्छिना--सच्चा सौ. [ सं० दक्षिणा ] दे० 'दक्षिणा' । उ०—दच्छिना ये पांचो प्रक्षर, जिनका छद के प्रारम में रखना यजित है। देत नद पग लागत, मासिस देत गरग सघ द्विजपर ।--नद. १०-दीजो भूख न छद के भादि म ह र म प कोई। प्र०, पृ० ३७१। दग्घाक्षर के दोय तें छद दोषयुत होह।-(पाब्द०)। दछना, दछिना -सच्चा श्री. [सं० दक्षिणा] दे० 'दक्षिर' उ0दग्धाल- सक्ष पुं० [सं०] एक प्रकार का वृक्ष । (क) भोजन कर जिजमान विमाये। दछना कारन जाय दग्धिका-सहा स्त्री० [सं०] १. दे० 'दग्धा' २ जला हुमा भन्न या पड़े। संत तुरसी०, पृ० १८९ । (ख) तुमहि मिलेगो बोरा माठ (को०)। दछिना भरि भरि झोरी जू !-मद० प्र०, पृ० १३१। दग्धित-वि० [सं० घनहि. इत (प्रत्य॰)] दे० 'दग्ध'। दण्जाल-संज्ञा पुं० [म. पज्जाल ] झूठा। बेईमान । अत्याचारी। उ०-बोले गिरामएर शांति करी विचारी होवे प्रयोष दममना -कि.प्र.[सं० दग्ध, प्रा० मझ] दे० 'दहना' । उ०जिससे दुख दग्धिों का! -प्रिय०, पृ० ११६। दुजर फाय सु कहत राज मन माहिं समममों । कामज्वाल मो दाघेष्टका-सभा सी[सं० दग्ध+ इष्टका ] जली भोर झुलसी हुई पदिय तुमहि तिन के दुख दभो ।-पू० रा०, ११ ४१६। ईट । झावा [को०)। .. तक पहुंचने या जाननेवाला दर दन-वि० [सं०] [वि०सी० बनी दट'-क्रि० स० [सं०८ष्ट, प्रा० द© ( - फटा हुमा) ] दव जाना। हेठ पहना । उ--तरह मदन रत तरणी, देख दिल दरप • तफ गहरा या ऊँचा । (समासात में प्रयुक्त) । जैसे, उरुघ्न, पाय दट।-रघु० रू०प० २६ । जानुदघ्न, गुल्फदध्न मादि। दचक-सबा बी० [ भनु.] १ झटके या दवाव से लगी हुई चोट । ददनारे-क्रि० भ० [हिं० टना ] दे० 'डटना' । २. धाकाठोकर ! ३.६वाद। दघल-सज्ञा पुं॰ [सं० दएडोत्पल ] सहदेई नाम का पौधा ।