पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/५७८

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देशन दर्शनपर्य विशेष-प्रकृति, मात्मा, परमात्मा, जगत् के नियामक धर्म, प्रणाली बड़े विस्तार के साथ स्थिर की गई है, जिसका जीवन के प्रतिम लक्ष्य इत्यादि का जिस शास्त्र में निरूपण उपयोग पडित लोग शास्त्रार्थ मे वरावर करते हैं। खन हो उसे वर्शन कहते हैं। विशेष से सामान्य की भोर प्रातरिक मडन के नियम इसो शास्त्र में मिलते हैं, जिनका मुख्य विषय दृष्टि को बराबर बढ़ाते हुए सृष्टि के अनेकानेक व्यापारी का प्रमाण और प्रमेय ही है। न्याय में ईश्वर नित्य, इच्छाज्ञानादि कुछ तत्वों या नियमों में अतर्भाव करना ही दर्शन है। प्रारंप गुणयुक्त मौर का माना गया है। जीव कर्ता मोर मोक्ता में अनेक प्रकार के देवतामों प्रादि को सृष्टि के विविध व्यापारो दोनो माना गया है। वैशेषिक द्रव्यों और उनके गुणों का का कारण मानफर मनुष्य जाति बहुत काल तक सतुष्ट रही। विशेष रूप से निरूपण है। पृथ्वी, जल प्रादि के अतिरिक्त पीछे भधिक व्यापक दृष्टि प्राप्त हो जाने पर युक्ति मौर तर्क दिक, काल, पात्मा और मन भी द्रव्य माने गए हैं। न्याय के की सहायता से अब लोग ससार की उत्पत्ति, स्थिति मादि समान वैशेषिक ने भी जगत् की उत्पत्ति परमारगुपों से का विचार करने लगे तब दर्शन पास्त्र की उत्पत्ति हुई। बतलाई है । न्याय से इसमें बहुत कम भेद है। इसी से इसका ससार की प्रत्येक सभ्य जाति के बीच इसी क्रम से इस शास्म मत भी न्याय का मत कहलाता है। ये दानो सृष्टि का का प्रादुर्भाव हमा। पहले प्राचीन मार्य भनेक प्रकार के यज्ञ कर्ता मानते हैं दो से इनका मत मारवाद कहलाता है। पौर कर्मकार द्वारा इद्र, वरण, सविता इत्यादि देवतामो को पूर्वमीमासा मे वैदिक कर्मसंवधी वाक्यो के अर्थ निश्चित करने प्रसन्न करके स्वर्गप्राप्ति पादि के प्रयत्न में लगे रहे, फिर सृष्टि तथा विरोधी का समाधान करने के नियम निरूपित हुए हैं। की उत्पत्ति मादि के सवध में उनके मन में प्रश्न उठने लगे। इसका मुरुप विप वैदिक कर्मकाह की व्यारूपा है। इस प्रकार के सशयपूर्ण प्रश्न कई चेदमत्रो में पाए जाते हैं। उत्तरमीमासा या वेदात अत्यत उच्च कोटि की विचार. उपनिषदों के समय में ब्रह्म, सृष्टि, मोक्ष, मात्मा, इद्रिय, पद्धति द्वारा एकमात्र ब्रह्म को जगत् का अभिन्न मादि विषयो की चर्चा बहुत बढ़ी। गाया मोर प्रश्नोत्तर के निमित्तोपादानकारण बतलाता है प्रति जगत् पौर रूप में इन विषयों का प्रतिपादन विस्तार से हुमा । बडे बड़े ब्रह्म की एकता प्रतिपादित करता है। इसी से इसका ग्रढ़ दार्शनिक सिद्धानों का मामास उपनिषदों में पाया जाता मत विवतवाद मौर मद्वैतवाद कहलाता है। भाष्यकारों ने है। 'सवं खल्विद ब्रह्म', 'तत्त्वमसि' मादि वेदांत के महावाक्य इसी सिद्धात को लेकर भारमा मौर परमात्मा की एकता उपनिषदों के ही है। छादोग्योपनिषद् के छठे प्रपाठक में सिद्ध की है । जितना यह मत विद्वानों को ग्राह्य हुमा, जितनी उद्दालक ने अपने पुत्र श्वेतकेतु को सृष्टि की उत्पत्ति समझा इसकी चर्चा ससार मे हुई, जितने मनुयापी संप्रदाय इसके कर कहा है कि 'हे श्वेतकेतो । तू ही ब्रह्म है' । वृहदारण्यको खडे हुए उतने पौर किापी दानिक मत के नहीं हुए। परब, पनिषद् में मूतं और प्रमुतं, मयं पौर अमृत ब्रह्म के दोहरे फारस मादि देशो में यह सूफी मत के नाम से प्रकट हमा। रूप बतलाए गए हैं। उपनिषदों के पीछे सूत्र रूप मे इन माजकल योरप पोर अमेरिका भादि में भी इसकी मोर तत्वों का ऋषियों ने स्वतत्रतापूर्वक निरूपण किया पौर छह विशेष प्रवृत्ति। भारतवर्ष के इन छह प्रधान दशनो दर्शनों का प्रादुर्भाव हुप्रा जिनके नाम ये हैं-साख्य, योग, के अतिरिक्त 'सर्वदर्शनसंग्रह' में चार्वाक, वौद्ध, माहत, वैशेषिक, न्याय, मीमासा (पूर्वमीमांसा), मोर वेदात (उत्तर नकुलीश, पाशुपत, शैव, पूण प्रज, रामानुज, पाणिनि और मीमासा)। इनमें से साक्ष्य में सृष्टि की उत्पत्ति के क्रम प्रत्यभिज्ञा दर्शन का भी उल्लेख है। का विस्तार के साथ जितना विवेचन है इतना पौर किसी योरप में यूनान या यवन देश ही इस शास्त्र के विवेचन मे सबसे में नही है । साश्य पात्मा को पुरुप कहता है और उसे पकर्ता, पहले अग्रसर हुमा। ईसा पर छह सौ वर्ष पहले से वहाँ साक्षी मोर प्रकृति से मिन्न मानता है, पर मास्मा एक नही दशन का पता लगता है। सुफरात, प्लेटो, मरस्तू इत्यादि अनेक है, प्रत सासूप में किसी विशेष मात्मा भर्यात परमात्मा बड़े बड़े दाशनिक वहाँ हो गए है। माधुनिक काल में दशन या ईश्वर का प्रतिपादन नहीं है। जगत् के मूल में प्रकृति का की योरप मे बडो उन्नति हुई है। प्रत्यक्ष ज्ञान का विशेष मानकर उसके सत्व, रज मौर तम इन तीन गुणो के अनुसार प्राश्रय लेकर दासनिक विचार की प्रत्यत विशद प्रणाली ही ससार के सब व्यापार माने गए हैं। सृष्टि को प्रकृति की वहाँ निकली है। परिणामपरपरा मानने के कारण यह मत परिणामवाद ४ नेत्र । पाँख । ५ स्वप्न । ६ बुद्धि । ७ धर्म। ८ दर्पण । कहलाता है। सृष्टि सबधी साख्य का यह मत इतिहास, ६ वण। रग। १० यज्ञ । इज्या (को०)। ११ उपलब्धि पुराण मादि में सर्वत्र गृहीत हमा है। योग में क्लेश, कर्म (को०)। १२ शास्त्र (को०)। १३ परीक्षण । निरीक्षण (को०)। विपाक पौर प्राशय से रहित एक पुरुषविशेष या ईश्वर माना १. प्रदशन | दिखावा (को०)। १५ उपस्थिति या विद्यमानता गया है। सर्वसाधारण के बीच जिस प्रकार के ईश्वर की (न्यायालय म) (को०) । १६ राय । सलाह । विचार (को०)। भावना है वह यही योग का ईश्वर है। योग में फिसी मत १७.ीयत (को०)। पर विशेष तर्क वितर्क या भाग्रह नहीं है, मोक्षप्राप्ति के दर्शनगृह-सज्ञा पुं० [सं०] १. सभाभवन । २. वह स्थान जहाँ निमित्त यम, नियम, प्राणायाम, समाधि इत्यादि के मभ्यास __लोग कुछ देखने या सुनने के लिये वैठे (को०] । पारा ध्यान की परमावस्या की प्राप्ति के साधनो का ही दर्शनपथ-पन्ना पुं० [सं०] टिका पय। जहाँ तक दृष्टि जाय । विस्तार के साथ वर्णन है। न्याय मे युक्ति या तक करने की क्षितिज (को०] 1