पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/७०

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जलनाड़ी १७१३ जलप्रदानिक जले फफोसे फोडना - दु.खी या व्यथित व्यक्ति को किसी प्रकार, है। इसके कच्चे फलों की तरकारी पौर अचार बनाया जाता विशेषकर अपना बदला चुकाने की इच्छा से, और अधिक है और पक्के फल यो ही खाए जाते हैं। दृस्वी या व्यषित करना। जले पाँव की विल्ली-जो स्त्री जलपाटल-सज्ञा पुं० [हि० जल+पटल ] काजल । उ०-कज्जल हरदम घूमती फिरती रहे और एक स्थान पर न ठहर सके । जलपाटल मुखी नाग दीपसुत सोच । लोपोजन टग ले चली ४. वहत पधिक डाह । ईष्या या द्वेष आदि के कारण कुढना। ताहि न देखै कोय ।-नददास ( शब्द०)। मन ही मन सतप्त होना। जनपात्र-मझा पुं० [सं०] १ पानी का वर्तन । २ जल पीने का यौ०-जलना भुनना-बहुत कुढना। वर्तन [को०] मुहा०-जली कटी या जली भुनी बात = वह लगती हुई बात जो जलपान -सहा पु० [ मं०] वह थोडा भोर हनका भोजन जो प्रात- देष, डाह या क्रोध प्रादि के कारण बहुत व्यथित होकर कही काल कार्य प्रारभ करने से पहले मथवा सध्या को कार्य समाप्त जाय । जल मरना- डाह या ईर्या मादि के कारण बढ़त करने के उपरात साधारण भोजन से पहले किया जाता है। कूदनाद्वप प्रादि के कारण वहत व्यथित हो उठना । उ०.- कलेवा । नाश्ता । तुम्ह अपनायो तव जनिहीं जब मनु फिरि परिहैं। हरखिहे न यो०--जलपानगृह - वह सार्वजनिक स्थान जहाँ जलपान की पति मादरे निदरे न जरि मरिहै।-तुलसी (शब्द०)। सामग्री मिलती हो तथा वैठकर खाने पीने की व्यवस्था हो। जलनासो-सच्चा स्त्री० [सं०] दे० 'जलनाली' । जलपारावत - सज्ञा पु० [40] जलपोत नाम को चिडिया जो जला- जलनाली-सज्ञा स्त्री० [सं०] पानी बहने का मार्ग । प्रणाली। शयो के किनारे रहती है। नाली : मोरी [को०] । जलपिंड--सझा ०[स० जलपिड पग्नि । प्राग। जलनिधि-सञ्चा पु० [सं०] १ समुद्र । २ चार की सख्या । जलपित्त-सज्ञा पुं० [सं०] अग्नि । जलनिगम-सज्ञा पुं॰ [स] पानी का निकास । जलपिप्पलिका-सज्ञा ली [म.] जलपीपल । जलनीम-ममा स्त्री० [हिं० जल + नीम] एक प्रकार की कोनिया जो जलपिप्पली-सहा श्री० [स] जलपीपल नाम की पौषि। बडई होती है और प्राय जलाशयो के निकट दलदली भूमि में जलपोपल-सज्ञा मौ० [सं० जलपिनी] पीपल के प्राकार की एक उत्पन्न होती है। प्रकार की गवहीन भौषधि। जलनीलिका-सज्ञा स्त्री. 01 सेवार । शैवाल । विशेप-इसका पेह खड़े पानी में उत्पन्न होता है। पत्तियां बत जलनीली-सहा बी० [सं०1 दे० 'जलनीलिका'। की पत्तियों से मिलती जुलती पौर कोमल होती हैं। इसके तने जलपंडर -सञ्ज्ञा पुं० [सं० जल+देश पहर] जलसर्प । पानी का मे पास पास बहुत सी गांठें होती हैं और इसकी हालियो दो साप । उ०-सहजा सोई सुमिरिये पालस ऊंघ न भान । जन ढाई हाथ लबी होती हैं। इसके फल पीपल के फल की तरह हरिया तन पेखणों ज्यो जलपहर जान !-राम० घमं०, होते हैं, पर उनमे गध नहीं होती। यह खाने में तीखी, काई, पृ०५८ ! कसैली और गुण मे मलशोषक, दीपक, पाचक और गरम होती अलपकबु-वि० [सं० जलपक्व ] जल मे पकनेवाला। जल मे पका है। इसे 'गगतिरिया' भी कहते हैं। हमा । उ०-घीपक जलपक जेते गने । कटवा घटुवा ते सब पर्या-महाराष्ट्री। शारदी । तोयवल्लरी। मरस्यादिनी। बने। -चित्रा०, पृ० १०३ । मत्स्यगधा । लागली। शकुलादनी 1 चित्रपत्री। प्राणदा । जलपक्षी-सझा पुं० [सं० जलपसिन् ] वह पक्षी जो जल के पास तृणशीता । बहुशिखा । पास रहता हो। जलपुष्प--सञ्ज्ञा . [ सं०] १ लज्जावती की तरह का एक पौधा जलपटल-सचा पुं० [सं०] बादल । मेघ [को०)। जो दलदली भूमि में उत्पन्न होता है। २ कमल प्रादि फूल जलपति-सद्धा पुं० [सं०] १ वरुण । २. समुद्र। ३ पूर्वाषाढा जो जल में उत्पन्न होते हैं। नक्षत्र । जलपृष्ठजा-सका सी० [सं०] सेवार । जलपथ-सा पुं० [सं०] नाली या नहर जिसमें से पानी बहता हो। जलपोत --सद्धा पुं० [सं०] पानी का जहाज । जलपना -क्रि० प्र०, क्रि० स० [हिं०] दे० 'जल्पना'। जलप्पना-क्रि० स० [सं० जल्प] दे० 'जल्पना'। उ०- बीर भद्र अरु रुद्र जलप्पिय ! कही सत्त सकर वन थप्पिय ।- जलपद्धति-सश स्त्री० [सं०] नहर । नाला । जलपथ [को०] । पू. रा०, २५. ४८२। जलपाई-सचा त्री० [देश॰] रुद्राक्ष की जाति का एक पैड । विशेष—यह वृक्ष हिमालय के उत्तरपूर्वीय भाग मे तीन हजार जलप्रदान--समा पुं० [सं०] प्रेत या पितर मादि की उदरक्रिया। तर्पण। फुट की ऊंचाई पर होता है मौर उत्तरी कनारा और ट्रावनकौर जगलो में भी मिलता है। यह रुद्राक्ष के पेट से छोटा होता जलप्रदानिक-सभा पुं० [सं०] महाभारत में स्त्रीपर्व के मंतर्गत है। इसका फल गूदेदार होता है और 'जगली जैतून' कहलाता एक उपपर्व का नाम।