पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/९६

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जाना . १७४१ जानुदान जाना'-क्रि० स० [ या (हि.जा)+ना (=जाना)] जारी होना जैसे, पांच से पानी जाना, खून जाना, धातु १. एक स्थान से दूसरे स्थान पर प्राप्त होने के लिये गति जाना, इत्यादि। में होना । गमन करना । किसी मोर बढ़ना । किसी भोर मन- जाना -क्रि० स० [सं० जनन ] उत्पन्न करना । जन्म देना । सर होना । स्थान परित्याग करना । जगह छोड़कर हटना । पैदा करना 1 उ०--(क) मैया मोहिं पाक बहुत खिझायो । प्रस्थान करना । वैसे,—(क)वह घर की ओर जा रहा है। मोसौं कहत मोल को, लीन्ही तू जसुमति कत जायो।- (ख) यहाँ से जामो। सूर०, १०।२१५। (ख) कोशलेश दशरथ के जाए । हम पितु मुहा०- पाने दो-(१) क्षमा करो। माफ करो। (२) वचन मानि बन पाए ।-तुलसी (शब्द०)। त्याग करो। छोड़ दो। (३) पर्चा छोड़ो। प्रसग छोड़ा। जाति-पमा बी० [सं०1 स्त्री। भार्या । जैसे, जानकीजानि । जा पड़ना=किसी स्थान पर मकस्मात् पहुंचना । जा रहना- 30--सो मय दीन्ह रावनहिं पानी। होइहि जातुषानपति किसी स्थान पर जाकर वहां ठहरना । से,-मुझे क्या, में जानी ।—तुलसी (शब्द॰) । किसी धर्मशाला में पा रहेगा। किसी बात पर जाना=किसी विशेष- इस शब्द का प्रयोग समासांत में होता है और यह ह्रस्व वात के अनुसार कुछ अनुमान या निश्चय करना । किसी बात इकारात ही रहता है। को ठीक मानकर उसपर चलना । किसी बात पर ध्यान देना । जानि@---वि० [सं० ज्ञानी ] जानकार । जाननेवाला । To- जैसे,—उसको यातों पर मत जानो अपना काम किए चलो। यह प्राकृत महिपाल सुभाक। जानि सिरोमनि कोसलराक। विशेष-इस क्रिया का प्रयोग सयो० क्रि० के रूप में प्रायः सब -तुलसी (शब्द॰) । क्रिपामों के साथ केवक्ष पूर्णता प्रादि का घोष कराने के लिये जानिब सझा श्री० [१०] तरफ । घोर । दिशा । 3.-फौज होता है । जैसे, पले पाना, मा जाना, मिल जाना, खो जाना, उपशाक देख हर जानिय । नाजनी साहवे दिमाग हमा।- डूब जाना, पहुंच जाना, हो जाना, दौड़ जाना, खा जाना कविता को०, मा०४, पृ०७॥ इत्यादि। कही कहीं जाना का प्रयं भी बना रहता है। जैसे, कर जाना-इनके लिये भी कुछ कर पापो । कमप्रधान जानिवदार-सहा ली० [फा०] तरफदार । पक्षपाती । हिमायती। कियामों के बनाने में भी इस क्रिया का प्रयोप होता है। जानिबदारी-सहा बी० [ फा• ] पक्षपात । हिमायत । तरफदारी। जैसे, किया जाना, खा जाना । जहाँ 'बाना' का सयोग किसी जानी-सहा पुं० [भ.जानी] विषपलपट व्यभिचारी व्यक्ति को०)। क्रिया के पहले होता है, वहाँ उसका पर्य बना रहता है। ता है। जानी-वि० [फा०] १. जान से सम्घ रखनेवाला। प्राणों का। र . जैसे, जा निकलना, जा डटना, आ भिड़ना । . २ घनिष्ठ । गहरा (को०)। २ अलग होना । दूर होना । जैसे,--(क)बीमारी यहाँ से न यो०-जानी दुश्मन - जान लेने को तैयार दुश्मन । प्राणों का जाने कब जायगी। (ख)सिर जाय तो जाय, पीछे नहीं गाहक शत्रु । जानो दोस्त = दिली दोस्त । घनिष्ठ मित्र । हटेंगे। ३ हाथ या अधिकार से निकलना । हानि होना। प्रिय दोस्त । प्राणप्रिय मित्र । मुहा०-क्या जाता है ? - क्या ध्यय होता है ? क्या लगता है? जानी--वि० स्त्री० [फा० जान ] प्रारणप्यारी । प्राणेश्वरी। प्रिया । क्या हानि होती है जैसे, उनका क्या जाता है, नुकसान तो होगा हमारा । किसी बात से भी गए? = इतनी बात से भी जानीवास +-सज्ञा [हिं० बनवासा] जनवासा । धारात ठहरने बचित रहे ? इतना करने के भी अधिकारी या पात्र न रहे? का स्थान | 80-धार नग्री मायो वीसल राव, जानीवास दीयो तिणि ठाव 1-ची. रासो, पृ० १६ । इतने में भी पूक्रनेवासे हो गए । जैसे,—उसने हमारे साथ इतनी बुराई की तो हम कुछ कहने भी गए? जानु'-'मज्ञा पुं० [सं०] जांध पौर पिंडली के मध्य का भाग । घुटना । ४ खोना । गायब होना । चोरी होना । गुम होना । जैसे- उ०-(क) श्याम की सुदरताई। बडे विशाल जानु लों (क) पुस्तक यहीं से गई है। (ख) जिसका माल पाता पहुँचत यह उपमा मन भाई।-तुलसी (शब्द॰) । (ख) है, वही जानता है। ५. पीतना। व्यतीत होना । गुजरमा जानु देकि कपि भूमि न गिरा। उठा संभारि बहुत रिस ( काल, समय)। १०-(क) चार दिन इस महीने में भी मरा 1-तुलसी (शब्द०)। गए पौर रूपया न पाया। (ख) गया वक्त फिर हाथ माता जानु–सभा ० [सं० जानु, तुल• फा० जान] पाष । रान | 10- गहीं। ६ नष्ट होना। बिगड़ना। सत्यानाश या घरवाद बान है फायत पाक के मान है कदली विपरीत उठान है। होना । जैसे,—यह पर भी प्रब गया। का न करे यह सौतिन के पर प्रान से प्यारी सुजान की जानु मुहा०—गया घर-दुर्दशाप्राप्त घराना। यह फूल जिसकी सपद्धि है।तोष (शब्द०)। नष्ट हो गई हो। गया मीता- (1) दुर्दशाप्राप्त । (२) जानुल-अव्य० [हिं० जानना]दे० 'जानों' । उ.-तरिघर फरे फरे निकृष्ट । फरहरी । फरे जानु हासन पुरी। —जायसी (शब्द॰) । ७ मरना । मृत्यु को प्राप्त होना (खो०)। जैसे,—उसके दो बच्चे जानुदन-वि० [स० जानु+दछन (दघ्नच् प्रत्य॰)] घुटने तक गहरा पायुके हैं। ज्ञ. प्रवाह रूप में कहीं से निकलना । बहना। या घुटनों तक ऊँचा [को०] ।