पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/१४२

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बात २४३५ मुहा०-~-बानी मानना-प्रतिशा करना । मनौती मानना । ___ संगहि खेल जुआरि । ऐसा घायल यापुरा जीवन मारे (२) सरस्वती। (३) साधु महात्मा का उपदेश या बचन । झारि ।—कबीर। जैसे, कबीर की बानी, दादू की बानी। दे. “वाणी"। 'बापू-संज्ञा पुं० (१) दे० "बाप"। (२) दे. “बाबू"। संज्ञा पुं॰ [सं० बणिक् ] बनिया । उ०-(क) ब्राह्मण छत्री बाप्पा-संज्ञा पुं० [देश ] चारणों द्वारा वर्णित इतिहास के औरो बानी । सो तीनहु तो कहल न मानी। कबीर । अनुग्पार बल्लभी वंश के महाराज गुहादित्य से आठवीं (ख) इक बानी पूरबधनी भयो निर्धनी फेरि । पीढ़ी में उत्पन्न नागादित्य का पुत्र । जब यह छोटा था संज्ञा स्त्री० [सं० वर्ण ] (१) वर्ण रंग। आभा । दमक । तब इसके पिता को भीलों ने मार डाला था। इसकी रक्षा जैसे, बारहबानी का सोना । उ०-उतरहि' मेघ चाहिँ इसकी माता ने और ब्राह्मण पुरोहितों ने की थी। यह लै पानी। धमकहिँ मच्छ बीजु की बानी । —जायसी। नागोद में ब्राह्मणों की गायें चराया करता था, जहाँ इस (२) एक प्रकार की पीली मिट्टी जिससे मिट्टी के थरतन को हारीत ऋषि और एकलिंग शिव का दर्शन हुआ था पकाने के पहले रंगते हैं। कपसा। और हारीत ने उसे शिव की दीक्षा दी थी। इसने चित्तौर संज्ञा पुं० [अ० ] (1) बुनियाद डालनेवाला । जड़ जमा जाकर वहाँ अपना अधिकार जमाया और पश्चिम के देशों नेवाला । (२) आरंभ करनेवाला । चलानेवाला । का भी विजय किया। मेवाड़ के राजवंश का यह आदि प्रवर्तक । पुरुष था। इसका जन्म-काल टाड माहब ने सं०७६९ वि. बानैत-संज्ञा पुं० [हिं० बान+ऐत (प्रत्य॰)] (1) बाना फेरनेवाला। वा ७४४ ई० लिखा है। (२) बाण चलानेवाला । तीरंदाज़ । (३) योद्वा । सैनिक। बाफ-संज्ञा पी० [ म० वाप ] कोई तरल पदार्थ खोलाने मे वीर । उ०—(क) मानहु मेध घटा अति गाढ़ी । बरसत उनमें से उठा हुआ धुएं के आकार का पदार्थ । विशेष- बान बूंद सेनापति महानदी रन बाढ़ी। जहाँ बरन बादर दे. "भाप"। बानत अरु दामिनि करि करि वार । उड़त धूरि धुरवा धुर बाफता-संज्ञा पुं॰ [फा०] एक प्रकार का रेशमी कपड़ा जिस पर होसत सूल सकल जलधार।—सूर । (ख) विविध भाँति . कलावत्त और रेशम की नटियों होती है। यह दोरुखा भी फूले तरु नाना । जनु वानैत बने बहु याना ।—तुलसी होता है। संज्ञा पुं० [हिं० बाना ] थाना धारण करनेवाला। बाब-संशा पुं० [अ० ] (१) पुस्तक का कोई विभाग। परिच्छेद । बाप-संशा पुं० [सं० वाप=वाज बोनेवाला ] पिता । जनक। उ० अध्याय । (२) मुकदमा । (३) प्रकार । तरह । (४) (क) प्रथमै यहाँ पहुँचते परिगा सोक संताप । एक अचंभो विषय । (५) आशय । मतलब । अभिप्राय । औरौ देखा बेटी ब्याहै याप ।-कबीर । (ख) बारा दियो बाबची-संज्ञा स्त्री० दे० "बकुची"। कानन आनन सुभानन सों बैरी भो दसानन सो तीय को बाबत-संवा स्त्री० [अ०] (१) संबंध । (२) विषय । जैसे,—इस हरन भो।-तुलसी। आदमी की बावत तुम क्या जानते हो। मुहा०-बापदादा-पूर्वज । पूर्वपुरुष । बाप माँ-रक्षक। विशेष-इस शब्द का प्रयोग अधिकरण का चिह्न 'में लुप्त पालन करनेवाला। थार रे-दुःख, भय वा आश्चर्यसूचक करके अध्ययवत् ही होता है। वाक्य । बाप बनाना-(१) मान करना । आदर करना। बाबरची-संज्ञा पुं.दे. "बावरची"। (२) खुशामद करना । चापलूसी करना । बाप तक जाना- बाबरलेट, बाबननेट-संज्ञा स्त्री० [अ० वाविननेट ] एक प्रकार का बाप की गाली देना । बाप का-पैतृक । जालीदार काड़ा जिसमें गोल गोल पट कोण छोटे छोटे छेद बापा-संशा पुं० दे० "बाप्पा"। होते हैं। यह ममहरी आदि के काम में आता है। वापिका*-संज्ञा स्त्री. दे. "वापिका"। उ०—बन उपबन वापिका , बावरी-संशा बीहिं . बबर-(सह ] लंबे लंबे बाल जो लोग तदागा। परम सुभग सब दिसा विभागा ।-तुलसी। सिर पर रखते हैं। जुल्फ । पट्टा ।। बापी-संज्ञा स्त्री० दे. "वापी"। बाबा-शा पुं० [तु० ] (१) पिता । उ०—(क) दादा याबा बापु-सिंज्ञा पुं० दे० "बाप"। भाई के लेग्वे चरन होइगा बंधा। अब की बेरियाँ जो न वापुरा-वि० [सं० बर्बर--तुच्छ मूढ़ ? ] [स्त्री. बापुरी] (१) तुच्छ । समुझे सोई सदा है अंधा। कबीर । (ख) बैठे नंग बाबा जिसकी कोई गिनती न हो। 30-(क) तव प्रताप महिमा के चारों भइया ईवन लागे। दसरथ राय आपु जेंवत हैं भगवाना। का यापुरो पिनाक पुराना ।—तुलसी । (ख) : अति आनंद-रस पागे।-सूर । (२) पितामह । दादा । कहाँ तुम त्रिभुवनपति गोपाल । कहाँ बापुरो नर शिशुपाल। : (३) साधु संन्यासियों के लिये आदर-सूचक शब्द । जैसे, -सूर । (२) दीन । बेचारा । उ०—संसय साउज देह में : याबा रामानंद। (४) बूढ़ा पुरुष । उ.-केशव केशन अस