पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/१४५

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बायु २४३८ वारना वायु-संशा स्त्री० दे० "वायु"। संज्ञा पुं० [सं० बाट घेरा या किनारा, हिं. बाई1 (1) घेरा बायें-कि० वि० [हिं० बाया ] (1) बाई ओर । (२) विपरीत।' वा रोक जो किसी स्थान के चारों ओर हो। जैसे, बाँध, विरुस। टट्टी आदि । दे. "बाद", "बाद" । (२) किनारा । महा-यायें होना-(१) प्रतिकूल होना । विरुद्ध होना। छोर । बारी। (३) धार । बाढ़। उ०-एक नारि वह है (२) अप्रसन्न होना । हष्ट होना। बहुरंगी। घर से बाहर निकले नंगी । उप नारी का यही बाबार-कि० वि० सं० वारंवार ] बारबार । पुनः पुनः ।। सिंगार । सिर पर नथनी मुँह पर बार । (४) नाव, थाली लगातार। आदि की अवैठ। किनारा। बार:--संशा पुं० [फा०] प्रसंग। विषय । दे. "बारे में"। + सशा पुं० दे. "बाल"। बार-संज्ञा पुं० [सं० वार ] (१) द्वार । दरवाज़ा । उ०—(क) संशा पु० [फा० मि. सं० भार1 (8) बोझा । भार । अकिल बिहना आदमी जाने नाहि गँवार । जैसे कपि उ.--जेहि जल तृण पशु वार वृद्धि अपने सँग बोरत । परवय पयो नाचे घर घर बार ।-कबीर । (ख) बार बड़े । तेहि जल गाजत महाबीर सब तरत अंग नहि 'डोलत ।--- अघ-वाघ बैंधे उर मंदिर बालगोबिंद न आई।-केशव ।। (ग) गोपिन के असुअन भरी सदा असोस अपार । अगर यो०-बारबरदार । बारबरदारी। वारदाना । उगर नै है रही अगर यगर के वार ।—बिहारी। मुहा-बार करना हाज़ पर स बोझ उतारना । (जहाज़ी)। यौ०-दरबार। (२) वह माल जो नाव पर लादा जाय । (लश.) (२) आश्रय स्थान । ठिकाना । उ०—हा समाइरूप वह +वि० दे० "बाल" और "वाला"। नाऊँ । और न मिलै वार जहँ जाऊँ। —जायसी । (३) बारक-संज्ञा स्त्री० [अ० वैरक ] छावनी आदि में सैनिकों के दरवार। रहने के लिए बना हुआ पक्का मकान । संवा मा[सं० बार (1) काल । समय । उ०—(क) बारककंत-संशा पुं० [ देश. ] एक पौधा जो खोप काटने की कविरा पूजा माहु की तू जनि करै म्युआर । बरी विगृ. । औषध है। इस की जड़ पीस कर उस स्थान पर लगाई चनि होयगी लेग्या देती बार ।-कवीर । (ख) सिर लंगूर । जाती है जहाँ माँप काटता है। लपेटि पहारा । निज तनु प्रगटेसि मरती बारा ।—तुलसी।। बारगह-संज्ञा स्त्री० [फा. वाग्गाह ] (1) डबढ़ी। (२) डेरा। (ग) इक भीजे घहले परे बूढ़े बहे हजार। कितने औगुन बरेमा । तंव । उ०—चितौर सौंप बारगह तानी । जहँ लग जग करत नय वय चढ़ती बार 1-विहारी। (२) अति सुना कृच सुलतानी ।-जायसी । काल। देर । बेर । बिलंब । उ०—(क) निधड़क घेठा बारगीर-संशा पुं० [फा०] वह जो घोड़े के लिये घास लाता राम बिनु तन करों पुकार । यह तन जल का बुदबुदा और उसकी रक्षा आदि में साईग्य को सहायता देता हो । पिनसत नाहीं यार ।-कबीर । (ख) देखि रूप मुनि घसियारा। विरति बिमारी । बड़ी बार लगि रहे निहारी।-तुलसी। बारजा-संज्ञा पुं० [हिं० बार-द्वार+जा-जगह ] (१) मकान के (ग) अबही और की और होत कछु लागै बारा। ताते | सामने के दरवाजों के ऊपर पाटकर बढ़ाया हुआ बरामदा। मैं पाती लिग्बी तुम प्रान-अधारा-सूर। (२) कोठा । अटारी। (३) बरामदा । (४) कमरे के आगे क्रि० प्र०—करना ।—लगना । लाना ।—होना। का छोटा दालान । (३) समय का कोई अंश जो गिनती में एक गिना जाय। बारण-संज्ञा पुं० दे. "बारण"। दफा । मरतबा । जैसे,—मैं तुम्हारे यहाँ आज तीन बार आया। । बारता*-संज्ञा स्त्री० दे० "वार्ता"। उ.--(क) मरिये तो मरि जाइये छूटि पर जार । ऐसा बारतिय*-संज्ञा स्त्री० दे० 'वारस्त्री"। मरना को मरै दिन में सौ सौ बार । कबीर । (ख) जहँ ' बारतुंडी-संज्ञा स्त्री० [सं० ] आल का पेड़। लागि कहे पुरान श्रुति एक एक सब जाग। बार सहस्र बारदाना-संज्ञा पुं० [फा०] (१) व्यापार की चीज़ों सहस्र नृप किये सहित अनुराग । तुलसी। के रखने का बरतन, जैसे,—भाँदा, खुरजी, थैला, थैली महा-बार बार--पुनः पुनः । फिर फिर । उ.---(क) तुलसी आदि। (२) फौत्र के खाने पीने का सामान । रसद । (३) मुदित मन पुरनारि जिती बार बार हेर मुख अवध-मृगराज अंगद खंगढ़ लोहे, लकड़ी आदि के टूटे फूटे को।-तुलसी। (ख) फूल बिनन मिस कुंज में पहिरि . सामान। गुंज को हार । मग निरखति नंदलाल को सुबलि बार ही बारन*-संज्ञा पुं० दे० "वारण"। बार ।-पाकर। वारना-कि० अ० [सं० वारण ] निवारण करना । मना करना ।