पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/१८

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फालतू २३११ फासफरस फालतू-वि० [हिं० फाल–टुकड़ा+तू (प्रत्य०)] (1) जो काम । विशेष-गेहूँ के सत्तु से बने हुए नशास्ते को बारीक काट में आने से बच रहे । आवश्यकता से अधिक। ज़रूरत से । कर शरबत में मिला कर रखते हैं और ठंढा हो जाने पर ज्यादा । अतिरिक्त । बढ़ती । जैसे,—इतना करना फालतू । पीते हैं। यह गरमी के दिनों में पिया जाता है। है; तुम ले जाओ। (२) जो किसी काम के लायक न हो। फाल्गुन-संज्ञा पुं० [सं०] (1) दूर्वा नामक सोमलप्ता । शत- निकम्मा जैसे,—क्या हमी एक फालतू आदमी हैं जो इतनी पथ ब्राह्मण में इसे दो प्रकार का लिखा है, एक लोहिसपुष्प, दूर दौड़े जाय। दृपरा चारुपुष्प । (२) एक चांद्रमास का नाम जिसमें फालसई-वि० [फा० कालसा ] फालसे के रंग का। लालाई लिए । पूर्णमासी के दिन चंद्रमा का उदय पूर्वा फाल्गुनी पा उत्तरा हुए हलका अदा। फाल्गुनी नक्षत्र में होता है। यह महीना, माघ के समास हो विशेष—इस रंग के लिए कपड़े को तीन बोर देने पड़ते हैं। जाने पर प्रारंभ होता है। इसी महीने की पूर्णिमा की रात पहले तो कपड़े को नील में रंगते हैं. फिर कुसम के पहले को होलिका दहन होता है। दे. "फागुन"। (३) अर्जुन उतार के रंग में रंगते हैं जो जेठा रंग होता है। फिर फिट का नाम । (४) अर्जुन नामक वृक्ष । (५) एक तीर्थ का करी या खटाई मिले पानी में बोर कर निखार देने से रंग नाम । (६) बृहस्पति का एक वर्ष जिसमें उसका उदय साफ़ निकल आता है। फाल्गुनी नक्षत्र में होता है। फालसा-संभा पुं० [फा०] [सं० परूषक, परूप, मा० फरूस ] एक फाल्गुनि-संज्ञा पुं० [सं०] अर्जुन। छोटा पेड़ जिसका धर ऊपर नहीं जाता और जिसमें छड़ी फाल्गुनी-संशा स्त्री० [सं०] (1) फाल्गुन मास की पूर्णिमा के आकार की सीधी सीधी गलियाँ चारों ओर निकलती (२) पूर्वा फाल्गुनी और उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र । हैं। हालियों के दोनों ओर सात आठ अंगुल लंबे चौड़े | फावड़ा-संशा पुं० [सं० फाल, प्रा० फाड ] मिट्टी खोदने और दालने गोल पते लगते हैं जिनपर महीन लोइयाँ सी होती हैं। का चौड़े फल का लोहे का एक औज़ार जिसमें रहे की पत्ते की ऊपरी सतह की अपेक्षा पीछे की सतह का रंग तरह का लंबा बैट लगा रहता है। फरसा । कस्सी । हलका होता है। बालियों में यहाँ से वहाँ तक पीले फूल क्रि० प्र०-चलाना। गुच्छों में लगते है जिनके अब जाने पर मोती के दाने के मुहा०-फाववाचलाना-खेत में काम करना । फावका बजना:- बराबर छोटे छोटे फल लाते हैं। पकने पर फलों का रंग खुदाई होना । खुदना । खुदकर गिरना । ध्वस्त होना। फावका ललाई लिए ऊदा और स्वाद खटमीठा होता है। बीज बजाना-खोदना । खोदकर ढाना या गिराना । जैसे, वह जरा एक या दो होते हैं। फालसा बहुत ठंडा समझा जाता यूँ करे तो मकान पर फावदा बजा हूँ। है, इससे गरमी के दिनों में लोग इसका शरबत बना कर फावड़ी-संज्ञा स्त्री० [हिं० फावड़ा ] (1) छोटा फावका । (२) पीते हैं। वैद्यक में कच्चे फल को वातघ्न और वित्तकारक फावड़े के आकार की काठ की एक वस्तु जिसमें घोषों के तथा पक्के फल को रुचिकारक, पित्तन और शोथनाशक नीचे की घास, लीद आदि हटाई जाती है या मैला आदि लिखा है। हटाया जाता है। पा०-परूषक । गिरिपीलु । शेषण : पारावत । फाश-वि० [फा० पाश ] खुला । प्रकट । शात । संज्ञा पुं० [१] शिकारियों की बोली में वह जंगली जान- क्रि०प्र०--करना होना। वर जो जंगल से निकलकर मैदान में धरने को आवे। मुहा०-परदा फाश करना=छिपी हुई बात खोलना । भेद प्रकट फालिज-संज्ञा पुं० [अ० ] एक रोग जिसमें प्राणी का आधा अंग! करना। सुन्न या बेकार हो जाता है। अर्धग अधरंग । पक्षाघात। फासफरस-संशा पुं० [ यूना० अं०] पाश्चात्य रासायनिकों के द्वारा विशेष—इसमें शरीर के संवेदन सूत्र या गतिवाहक सूत्र जाना हुआ एक अत्यंत ज्वलनशील मूल द्रष्य जिसमें निस्क्रिय हो जाते है। संवेदन सूत्रों के निष्क्रिय होने से ! धातु का कोई गुण नहीं होता और जो अपने विशुद्ध रूप अंग सुन्न हो जाता है, उसमें संवेदना नहीं रह जाती, और में कहीं नहीं मिलता-आक्सिजन, कलसियम, और मगने- गतिवाहक सूत्रों के निष्क्रिय होने से अंग का हिलना शिया के साथ मिला हुआ पाया जाता है। इसका डोलना बंद हो जाता है। प्रसार संसार में बहुत अधिक है क्योंकि यह सृष्टि के सारे महा०-फालिज गिरना-अधरंग रोग होना । अंग सुन्न सजीव पदार्थों के अंगविधान में पाया जाता है। वनस्पतियों, पड़ जाना। प्राणियों की हड्डियों, रक्त, मूत्र, लोम आदि में यह फालूदा-संज्ञा पुं॰ [फा०] पीने के लिए बनाई हुई एक चीज़ प्यात रहता है। बहुत थोड़ीगरमी या रगड़ पाकर यह जिसका व्यवहार प्रायः मुसलमान करते हैं। जलता है। हवा में खुला रखने से यह धीरे धीरे जलता