पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२१३

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२५०६ बैठकी उ०—(क) फहुँ लतिकन महँ अरुक्षति अरुमी नेह । भह ! जिसके भीतर पानी होता है। फफोले की तरह का फोला । बिहाल बैंकल सी सुधि नहिं देह ।-रघुराज । (ख) यति गलका। पति पर पंडित कुमति किय मारन अभिचार । ते बैकल बैटरी-संज्ञा स्त्री० [ अं०] (१) चीनी वा शीशे आदि फा पात्र थागन लगे विष्ठा करत प्रहार ।-रघुराज । जिसमें रासायनिक पदार्थों के योग से रासायनिक प्रक्रिया वैकुंठ-संज्ञा पुं० दे० "वैकुंठ"। द्वारा बिजली पैदा करके काम में लाई जाती है। (२) येहरी-संजा मी० दे० "वैखरी"। तोपखाना। बैखानस-वि० दे० "ग्वानम" । बेटा-संज्ञा स्त्री० [देश सई ओटने की चर्वी । ओटनी।। बैग-मंशा पुं० [अं0 1 (1) थैला । मोल। बोरा । (२) टार का बैठ-संज्ञा पुं० हिं० बैठना -पड़ता पड़ना ] सरकारी मालगुजारी वह थैला जिसमें यात्री अपना अपवाब भरकर हाथ में : या लगान वा उस दर । सजकीय कर वा उसकी दर। लटकाकर साथ ले जाते हैं। बैठक-संश सी० [हिं० बैठना ] (१) बैठने का स्थान । उ०- बैगन-संज्ञा पुं० दे० "बैंगन"। चरण एरोवर समीप किधौं बिछिया, क्रणिन कलहंसनि की बैगना-मा पु० [हिं० बैगन ) एक प्रकार का पकवान या पकौड़ी बैठक यनाय क । केशव । (२) वह स्थान जहाँ कोई जो वैगन आदि के टुकड़ों को येसन में लपेटकर और तेल धैठता हो अथवा जहाँ पर तृपरे लोग आकर उसके साथ में तलकर बनाई जाती है। ठा करते हो । धौगल । अथाई । उ०-वह अपनी बैठक बैगनी-वि० दे० "बैंगनी"। में पलंग पर लेप है, उपक: आँग्वं कड़ियों में लगी हैं, सं.मीदे. “बैंगन" | भौहें कुछ ऊपर को खिंच गई है और वह उपचाप बैजंती-मात्री० [म. वैजयत। (१) फूल के एक पौधे का नाम । देव ति कधि मन हसन खींच रहा है। -अधखिला जिसके पत्ते हाथ हाय भर तक लंबे और घार पाँच अंगुल चाहे धर या मूल कांड में लगे हुए होने हैं । इसमें टहनियाँ यौ०-बैठकरवाना। नहीं होती, केले की तरह कांड सीधा ऊपर की ओर जाना (३) बह पदार्थ जिस पर बैठा जाता है। आसन । पीठ । है। यह हलदी और कचूर की जाति का पौधा है। कांड के उ०—(क) अति आदर सो बैठक दीन्हों । मेरे गृह चंद्रा. पिरे पर लाल वा पीले फल लगते है। फूल लंबे और कई : वलि आई अति ही आनंद कीन्हों।-सूर । (ख) पिय दलों के होते हैं और गुच्छों में लगते हैं। फूलों की जड़ में आवत अंगनैया उठि के लीन । साथै चमुर तिरिया बैठक एक एक छोटी घुडी होती है जो फूल सूखने पर यदकर यौंनी दीन । -रहिमन । (४) किनी मूर्ति वा खंभे आदि के हो जाता है । यह बौंडी तिकोनी और लंबोतरी होती है नीचे की चौका । आधार । पदस्तल । (५) बैठने का व्या- जिस पर छोटी छोटी नोक बा कैंगरे निकले रहते हैं। पार । बैठाई। जमाव । जमावड़ा । जैसे,—उसके यहाँ यौंदी के भीतर तीन कोठे होते हैं जिनमें काले काले दाने शहर के लुचों की बैठक होती है। (६) अधिवेशन । सभा- भरे हुए निकलते हैं । ये दाने कड़े होते है और लोग सदों का एकत्र होना । जैसे,—सभा की बैठक । (७) बैठने इन्हें छेदकर माला बनाकर पहनते हैं। यह फूलों के की क्रिया । (6) बैठने का ढंग वा टेव । जैसे,—जानवरों कारण शोभा के लिये बगीचों में लगाया जाता है। संस्कृत | की बैठक । (९) साथ उठना बैठना । संग । मेल । उ०- में इसे वैजयंती कहते हैं। (२) विष्णु की माला । माथुर लोगन के संग का यह बैठक तोहि अजी न उबीठी । वैज-संशा घु० [ अं०] (1) चिह्न । (२) चपरास । -केशव । (१०) काँच वा धासु आदि का दीवट जिसके वैज:- अ० बैना अट। ] हलके नीले रंग का । सिरे पर बत्ती जलती या मोषधी ग्वोंसी जाती है । बैठकी। संज्ञा पुं० एक रंग जो बहुत हलका नीला होता है। इस रंग ! उ.-बैठक और हँदियों में मोमबत्तियाँ जल रही है।- की रंगाई, लखनऊ में होती है। कौवे के अंडे के रंग से अधखिला फूल । (११) एक प्रकार की कसरत जिसमें बार मिलता जुलता होने के कारण इस रंग को लोग वैज़ई बार खड़ा होना और बैठना पड़ता है। कहते हैं। बैठका-संज्ञा पुं० [हिं० बैठक ] वह चोपाल वा दालान आदि जहाँ वैजनाथ-मंज्ञा पुं० दे. "वैधनाथ"। कोई बैठता हो और जहां जाकर लोग उससे मिलते या वैजयंती-[सं० वैजयंता ] वैजती । वैजयंती। उसके पास बैठकर बातचीत करते हो। बैठक । बैजला-संज्ञा पुं॰ [देश॰] (१) उर्द का एक भेद । (२) बैठकी-संक, स्त्री० [हिं० बैठक+ई (प्रत्य॰)] (1) बार बार बैठने कबड्डी का खेल। और उठने की कसरत । बैठक। (२) आसन । आधार । बेजा-संज्ञा पुं० [अ० ] (1) अंडा । (२) एक प्रकार का फोदा उ०---कनक भूमि पर कर पग छाया यह उपमा एक राजत ।