पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२२२

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बोली बौखलाना क्रि०प्र०—आना-जाना।-भेजना। पहला बिक्री यदि अच्छी होगी, तो दिन भर अच्छी होगी। बोली-संज्ञा स्त्री० [हिं० बोलना ] (१) किसी प्राणी के मुँह से इस्प पहली विक्री का शकुन किसी समय सब देशों में निकला हुआ शब्द । मुंह से निकली हुई आवाज़ । वाणी । माना जाता था। जैसे,—(क) बच्चे की बोली, चिड़िया की बोली। (ख) वह बोहारना -कि० स० दे० “बुहारना"। ऐसा धरा गया कि उसके मुंह से बोली तक न निकली। बोहारी-संास्त्री० [हिं० बोहारना ] मार । क्रि०प्र०-बोलना। घोहित*-संक्षा पुं० [सं० वाहित्थ ] नाव । जहाज़ । उ०-(क) मुहा०-मीठी बोलीकानों को अच्छा लगनेवाला सुर या शब्द। थोहित भरी चलाले रानी । दान मांग परत देखी दानी। (२) अर्थयुक्त शब्द या वाक्य । वचन । बात । जायगी। (ख) नांदी चारिउ बेद, भव-बारिधि मोहित मुहा०-मीठी बोली-शम्द या वाक्य जिसका अर्थ प्रिय हो। सस्मि ।-तुलसी। मधुर वचन । घोहिया-मंशा स्त्री॰ [देश॰] एक प्रकार की चाय जो चीन में (३) नीलाम करनेवाले और लेनेवाले का ज़ोर से दाम का होती है। इसकी पत्तियाँ छोटी और काली होती है। कहना । (४) वह शब्द समूह जिसका व्यवहार किसी बौड़ा-संज्ञा स्त्री० [सं० कोर-घृत, टहनी ] (1) टहनी जो दर प्रदेश के निवासी अपने भाव या विचार प्रकट करने के तक डोरी के रूप में गई हो। (२) लता । बेल । उ०- लिये संकेत रूप से करते है। भाषा । जैसे,—वहाँ बिहारी नृपहि मोद सुनि सचिव सुभाखा । बढ़त बौंड जनु लही नहीं बोली जाती, वहाँ की बोली उदिया है। (५) वह सुपाखा 1-तुरसी। वाक्य जो उपहास या कूट व्यंग्य के लिये कहा जाय । हँसी घोड़ना-क्रि० अ० [हिं० बोर ] लता की तरह दृढ़ना । टहनी दिल्लगी या ताना । ठठोली। उ.-सासु ननद बोलिह फकना । ढ़कर फैलना । उ०—(क) मूल, मूल, सुर बीथि जिउ लेहीं।-जायसी। बेलि तम्तोम सुदल अधिकाई । नग्यत सुमन नभ बिटप क्रि०प्र०-बोलना।-सुनाना । वोलि मनो छपा छिटकि छवि छाई।-तुलस। (ख) राम- यौ०-बोली ठोली। काम तरूपाइ पेलि ज्यों बौड़ी बनाइ, सांग कोरिख तोषि मुहाव-बोली छोड़ना, बोलना या मारना=किसी को लक्ष्य पौषि फैलि फूलि फरि के । —तुलसी । (ग) राम-बाहु-विटप करके उपहाम या व्यंग्य के शब्द कहना। जैसे,----अब आप बिपाल बौंडी देखियत जनक मनोरथ कलपवेलि फरी है।- भी मुझ पर बोली बोलने लगे। तुलसी। बोलीदार-संज्ञा पुं० [हिं० बोली+फादार ] वह असामी जिम घोंडर-संज्ञा पुं० [मं० वायुमंडल, हिं. बबटर ] घूम घूर कर चलने- जोतने के लिये संत योंही ज़बानी कहकर दिया जाय, कोई वाली वायु का का । बगृला । उ०—(क) तेहि समय लिखा-पढ़ी न हो। बीडर इक आई। हमैं बाहि से चला उपाई । (ख) जहैं बोल्लाह-संज्ञा पुं० [देश॰] छोड़ों की एक जाति । तहँ उड़े कीश भय पाये । यथा पात बौडर के आये।- बोबना-क्रि० स० दे० "बोना"। रधु० दा० । बोवाई-संज्ञा स्त्री. दे. "बोआई"। बौड़ी-संशा स्त्री० [वि. बो] (1) पौधा वा लताओं के वे करे बोवाना-क्रि० स० [हिं० बोना का प्रेरणा | बोने का काम दूसरे फल जो सार रहित होने है। दी। ढाड । जैसे, मदार से कराना। वा सेमर के दो। उ-गये है दहर भूमि तहाँ कृष्ण बोह-संज्ञा स्त्री० [हिं० बोर । या सं० वाह ] दुश्की । गोता। भूमि आये करी बड़ी धूम आफ बौदिन मों मारि के।- मुहा०--बोह लेना-दुबकी लेना । गोता लगाना । उ.-रूप प्रिया। जलधि बपुष लेत मन गयंद बोहै।--तुलसी। + (२) फली। छीमी। बोहनी-संशा स्त्री० [सं० बोधन- जगाना ] (1) किसी सौदे की बौयाना-कि० अ० [सं० वायु, हि बाउ+आना (प्रत्य॰)] पहली बिक्री । (२) किसी दिन की पहली विक्री । उ. सपने में कुछ कहना । स्त्रमावस्था का प्रलाप । (२) पागल (क) मारग जात गहि रखोरीचरा मेरो नाहिन देत हौं वा वाईब मनुष्य की भाँति अट्ट सह बक उठना । पर्राना। बिना बोहनी।-हरिदास । (ख) औरन छोपि पर इह उ- एकोहं बहुस्यामि में काहि लगा अज्ञान । को मूरुख हमसों दिन प्रति कलह करत गहि सगरो। बिन बोहनी को पंरिता केहि कारण बीआन ।-कबीर । तनक नहि देहौं ऐसे हि छीनि लेहु बह सगरो।-सूर। बौखल-वि० [हिं० बाउ+सं० स्खलन ] सनकी । पागल । विशेष-जब सक कोहनी नहीं हुई रहती, तब तक दकानदार । बौखलाना-कि० अ० [हिं० वाउ+सं० स्खलन ] कुछ कुछ पागल किसी को उधार सौदा नहीं देते । उनका विवास है कि हो जाना । बहक जाना । सनक जाना।