पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२२३

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बौखा बौधायन बौखा-संज्ञा स्त्री० [सं० वायु+स्खलन हवा का तेज़ झोका जो को क्लेश देकर दुग्न उठाना । वह भी अनार्य और अनर्थ- वेग में आँधी से कम हो। संहित है। हे भिक्षुओ! तथागत ने ( मैंने ) इन दोनों बौछाड़-संक्षा नी० [सं० वायु+क्षरण ] (1) वायु के मोंके से | अंतों का त्याग कर पमा प्रतिपदा ( मध्यम मार्ग) को तिरली आती हुई बूंदों का समूह । वदों की प्रदी जो हवा के झोंके के साथ कहीं जा पड़े। मटास । मार्ग आर्य सत्यों में चौथा है। चार आर्य सत्य ये है- क्रि० प्र०-आना। दुःख, दु:ग्व-गमुदय, दु:ख-निरोध और मार्ग। पहली बात (२) वर्षा की बूंदों के समान किसी वस्तु का बहुत अधिक | तो यह है कि दुःख है। फिर इस दुःख का कारण भी है। संख्या में कहीं आकर पड़ना । जैसे, फेंके हुए ढेलों की । कारण है तृष्णा । यह तृष्णा इस प्रकार उत्पन्न होती है। घौटाद। (३) बहुत अधिक संख्या में लगातार किसी वस्तु मूल है अविद्या । अविद्या से संस्कार, संस्कार से विज्ञान, का उपस्थित किया जाना । बहुत सा देते जाना या सामने विज्ञान से नाम रूप, नाम रूप से पडायतन (द्रियाँ और रग्बते जाना । वर्षा । सड़ी। जैसे,—उस विवाह में उसने : मन), पढायतन से स्पर्श, स्पर्श गे वंदना, वेदना ये तृष्णा, रुपयों की बौछार कर दी । (४) लगातार वात पर बात, जो तृष्णा से भव, भव से जाति ( जन्म ), जाति या जन्म से किपी मे कही जाय। किसी के प्रति कहे हुए वाक्यों का जरामरण इत्यादि । निदानों द्वारा इस प्रकार कारण मालूम तार । जैसे, गालियों की बौछाद। हो जाने पर उसका निरोध आवश्यक है, यह जानना चाहिए। क्रि०प्र०-छूटना ।छोड़ना ।-पड़ना । अंत में उस निरोध का जोमार्ग है, उसे भी जानना चाहिए। (५) प्रच्छन्न शब्दों में आक्षेप या उपहास । व्यंग्यपूर्ण वाक्य इसी मार्ग को निरोधगामिनी प्रतिपदा कहते हैं। यह मार्ग जो किसी को लक्ष्य करके कहा जाय । ताना । कटाक्ष । अष्टांग है । आठ अंग ये है-सम्यकदृष्टि, सम्यक संकल्प, बोली ठोली। सम्यकवाचा, सम्पकमात, सम्यगाजीव, सम्यग्ज्यायाम, क्रि० प्र०-करना ।-छोड़ना 1-मारना । —होना । सम्पकस्मृति और सम्यकसमाधि । यौछार-संशा सी० दे० 'यौना"। बौद्ध मत के अनुसार कोई पदार्थ निस्य नहीं, सब क्षणिक बौदहा-वि० [सं० वातुल, दि० बाउर+हा (प्रत्य॰)] बावला। है। नित्य चैतन्य कोई पदार्थ नहीं, सब विज्ञान मात्र है। बौद्ध पागल। अमर आत्मा नहीं मानते, पर कर्मवाद पर उनका बहुत ज़ोर बौता-संज्ञा पुं० [सं० ब्वाय-+हिं . प्र. ता या ! ] जहाजों को । है। कर्म के शेष रहने से ही फिर जन्म के बंधन में पपना किपी स्थान की सूचना देने के लिये पानी की सतह पर । पड़ता है। यहाँ पर शंका हो सकती है कि जब शरीर के ठहराई हुई पीपे के आकार की वस्तु । समुद्र में तैरता हुआ उपरांत आत्मा रहती ही नहीं, तब पुनर्जन्म किसका होता निशान । तिरौंदा । काती। (श.) है। यौद्ध आचार्य इसका इथ प्रकार समाधान करने है- बौद्ध-वि० [सं० ] वुद्ध द्वारा प्रचारित । जैसे, बीजू मत । मृत्यु के उपरांत उसके सब खंड-आत्मा इत्यादि सब--- संशा पुं० गौतम बुद्ध का अनुयायी। नष्ट हो जाते हैं। पर उसके कर्म के कारण फिर उन खंडों के बौद्धधर्म-संज्ञा पुं० [सं०] बुद्ध द्वारा प्रवर्तित धर्म। गौतम बुद्ध स्थान पर नए नए खंड उत्पन्न हो जाते हैं और एक नया का सिखाया मत । जीव उत्पन्न हो जाता है। इस नए और पुराने जीव में विशेष-संबोधन प्राप्त करने के उपरांत शाक्य मुनि गया से केवल कर्म संबंध-सूत्र रहता है। इसी से दोनों को एक कहा काशी आए और यहाँ उन्होंने अपने साक्षात् किए हुए धर्म करते हैं। मार्ग का उपदेश आरंभ किया । “आर्य सत्य" और ! बौद्ध धर्म की दो प्रधान शाग्वाएँ है-हीनयान और महा- "द्वादशनिदान" (या प्रतं.त्य ममुखाद) के अंतर्गत उन्होंने यान । हीनपान बौद्ध मत का विशुद्ध और पुराना रूप है। अपने सिद्धांत की ज्याझ्या की है। आर्य सत्य के अंतर्गत महायान उस का अधिक विस्तृत रूप है, जिसके अंतर्गत ही प्रतिपद या मार्ग है। इस नदीन मार्ग का नाम, जिसका बहुदेवोपासना और तंत्र की क्रियाएँ तक है। हीनपान का साक्षात्कार गौतम को हुआ, "मध्यमा प्रतिपदा" है। इस प्रचार बरमा, स्याम और सिंहल में है; और महायान का मध्यम मार्य की व्याख्या भगवान् बुद्ध ने इस प्रकार की है तिठयत, मंगोलिया, चीन, जापान, मंचूरिया आदि में है। "हे भिक्षुओ! परिमाजक को इन दो अंतों का सेवन न इस प्रकार बौद्ध मत के माननेवाले अब भी पृथ्वी पर सबसे करना चाहिए । वे दोनों अंत कौन हैं ? पहला तो काम अधिक है। या विषय में सुख के लिये अनुयोग करना । यह अंत अत्यंत | बौधायन-संशा पुं॰ [सं०] एक प्राचीन पि जिन्होंने श्रौत सूत्र, दीन, प्राम्य, अना और अनर्थ-संहित है। दूसरा है, शरीर गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र की रचना की थी।