पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२४८

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भद्रांग २५४१ भय मुहा०—फिसी के सिर की भद्रा उतरना=किसी प्रकार की कर आग पर चढ़ा दी जाती है और उसकी भाप बनती है। हानि विशेषतः आर्थिक हानि होना। भद्दा लगाना बाधा तब वह भाप उस नली के रास्ते से ठंडी होकर अर्क आदि उत्पन्न करना। के रूप में पास रखे हुए दूसरे बर्तन में गिरती है। भद्रांग-संज्ञा पुं० [सं०] बलराम । | भभक-संशा स्त्री० [हिं० भक से अनु.] किमी वस्तु का एकाएक भद्राकरण-संशा पुं० [सं० ] मुंडन । सिर मुंबाना। - गरम होकर ऊपर को उबलना । उबाल । भद्रात्मज-संज्ञा पुं० [सं०] खड्ग । भभकना-क्रि० अ० [अनु० । () उबलना । (२) गरमी पाकर भद्रानंद-संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की स्वर-साधना प्रणाली किसी चीज़ का फूटना । (३) प्रज्वलित होना । ज़ोर से जो इस प्रकार है-आरोही-सा रे ग म, रे ग म प, जलना । भरकना। गम पध, म प ध नि, प ध नि सा । अवरोही-सा नि भभका-संज्ञा पुं० दे० "भवका"। ध प, नि ध प म ध प म ग, प म ग रे, म ग रे सा। | भभकी-संशा स्त्री० [हिं० भभक ] मुठी धमकी । धुरुकी । भद्रायुध-संज्ञा पुं० [सं०] एक राक्षस का नाम । जैग्ने, बँदरभभकी। भद्रारक-संशा पुं० [सं०] पुराणानुसार अठारह शुद्र द्वीपों में से | भभड़, भभ्भड़-संज्ञा स्त्री० [हिं० भाड़+भाइ अनु० ] भीडभाव। एक द्वीप का नाम । अव्यवस्थित जन-समुदाय । भद्रावती-संशा स्त्री० [सं० ] (१) कटहल का पेड़। (२) महा-भभरना*-क्रि० अ० [हिं० भय०] (1) भयभीत होना । डरना। भारत के अनुसार एक प्राचीन नगरी । उ.-सभय लोक सब लोकपति चाहत भरि भगाना- भद्राश्रय-संज्ञा पुं० [सं०] चंदन । तुलसी । (२) घवरा जाना । (३) भ्रम में पड़ना । उ०- भद्राश्व-संज्ञा पुं० [सं०] जहीर के नौ खंडों या वर्षों में से । (क) अब ही सुधि भूलिहो मेरी भटू भभरी जिन मीठी सी एक खंड। तानन में । कुलकानि जो आपनी राम्खो चहो अंगुरी दे रही भद्रासन-संज्ञा पुं० [सं० ) (१) मणियों से जमा हुआ राजसिंहा दोउ कानन में।-नेवाज । (ख) कहै पदमाकर सुमंद चलि सन जिस पर राज्याभिषेक होता है। (२) योग साधन का | कंध, ते भ्रमि भ्रमि भाई सी भुजा में त्यौं मभरि गो।- एक भासन । पभाकर । भद्रिका-संशा स्त्री० [सं०] (१) पिंगल में एक वृत्त का नाम भभूका-संज्ञा पुं० [हिं० भभक ] ज्वाला । लपट । उ०-चातुर जिसके प्रत्येक चरण में रगण, नगण और रगण होते हैं। शंभु कहावत वे बज सुदरी सोहि रही ज्यों भभके। जानी (२) भद्रा तिथि । द्वितीया, ससमी और द्वादशी तिथि। न जात मसाल औ बाल गोपाल गुलाल चलावत चूफै।- (३) फलित ज्योतिष के अनुसार योगिनी दशा के अंतर्गत शंभ। पाँचवीं दक्षा। भभूत-संज्ञा स्त्री० [सं० विभूति ] (१) वह भस्म जो शिवजी भद्री-वि० [सं० भदिन् ] भाग्यवान् । उ०-समरथ महा मनो लगाया करते थे। (२) शिव की मूर्ति के सामने जलने- रथ पूरत होत अभद्री भद्री।-रघुराज । वाली अग्नि की भस्म जिसे शैव लोग मस्तक और भुजा भद्रोदनी-संज्ञा स्त्री० [सं०] (8) बला । (२) नागबला। आदि पर लगाते हैं। भस्म । भनक-संशा स्त्री० [सं० भणन ] (१) धीमा शब्द । चनि । (२) क्रि० प्र०-मलना ।-रमाना ।—लगाना । अस्पष्ट या उड़ती हुई खबर । जैसे, हमारे कान में पहले (३) दे० "विभूति"। ही इसकी कुछ भनक पर गई थी। भभूदर-संज्ञा स्त्री० दे. "भभल" भनकना*-क्रि० स० [सं० भणन ] बोलना । कहना। | भयंकर-वि० [सं०] जिसे देखने से भय लगता हो। रावना । भनना*-क्रि० स० [सं० भणन ] कहना। भयानक । भीषण । विकराल । खौफनाक । भनभनाना-क्रि० अ० [अनु०] भन भन शब्द करना । गुंजारना ।। संज्ञा पुं० [सं०] (1) एक अस्त्र का नाम । (२) डंडुल भनभनाहट-संज्ञा स्त्री० [हिं० भनभनाना+आहट (प्रत्य॰)] भन पक्षी। भनाने का शब्द । धीमी आवाज़ वा ध्वनि । गुंजार । भयंकरता-संशा स्त्री० [सं०] भयंकर होने का भाव । रावना. भनित*-वि० दे० "भणित"। पन । भयानकता । भीषणता। भबका-संशा पुं० [हिं० भाप } अर्क उतारने या शराब तुआने का भय-संज्ञा पुं० [सं०] (1) एक प्रसिद्ध मनोविकार जो किसी बंद मुँह का एक प्रकार का बड़ा मया जिसके ऊपरी भाग आनेवाली भीषण आपत्ति अथषा होनेवाली भारी हानि की में एक केबी नली लगी रहती है। जिस चीज़ का आर्क आशंका से उत्पन्न होता है और जिसके साथ उस आपत्ति उतारना होता है, वह चीज़ पानी आदि के साथ इसमें राल अथवा हानि से बचने की इच्छा लगी रहती है। भारी