पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२५९

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भांगर २५५२ भांडार जंगली भी होता है। पर जंगली पौधे की पत्तियाँ विशेष संज्ञा पुं० [देश० ] देशी छीटों की छपाई में कई रंगों में से मादक नहीं होती; और इसीलिये उस पौधे का कोई उप केवल काले रंग की छपाई जो प्रायः पहले होती है। योग भी नहीं होता । पौधा प्रायः सीन हाथ ऊँचा होता है भाँटा-संज्ञा पुं० दे. "बैंगन"। और पत्तियों किनारों पर कटावदार होती है। इस पौधे के भाँड-संगा पुं० [सं० भंड ] (1) विपक। मसखरा । बहुत स्त्री, पुरुष और उभयलिंग तीन भेद होते हैं। स्त्री पौधों की अधिक हसी मज़ाक करनेवाला । (२) एक प्रकार के पेशेवर पत्तियाँ ही बहुधा पीसकर पीने के काम में आती हैं। पर जो प्रायः अपना समाज बनाकर रहते हैं और महफ़िलों कभी कभी पुरुष पौधे की पत्तियाँ भी इस काम में आती आदि में जाकर नाचते गाते, हास्यपूर्ण स्वोंग भरते और हैं। इसकी पत्तियाँ उपयुक्त समय पर उतार ली जाती हैं; नफलें उतारते हैं । (३) हँसी-दिल्लगी । भारपन । (४) वह क्योंकि यदि यह पत्तियाँ उतारी न जाय और पौधे पर ही जिसे किसी की लाजा न हो। नंगा। बेहया । (५) सप्तनाश। रहकर सूखकर पीली पड़ जाय, तो फिर उनकी मादकता खरबादी । उ०-तुलसी राम नाम जपु आलस छाँदु । राम और साथ साथ उपयोगिता भी जाती रहती है। भारत के विमुख कलिकाल को भयो न भाँडु ।-तुलगी। प्रायः सभी स्थानों में लोग इसकी पत्तियों को पीस और, संज्ञा पुं० [सं० भांट, दि० भाँडा] (1) बरतन । भाँदा। छानकर नशे के लिये पीते हैं। प्रायः इसके साथ बादाम । (२) भंडाफोड़ । रहस्योद्घाटन । उ०-कह गुरु बादि आदि कई मसाले भी मिला दिए जाते हैं। वैद्यक में इप छोभ छल छौडू । इहाँ कपट कर होइहिं भौह ।-तुलसी। कफनाशक, प्राहक, पाचक, तीक्ष्ण, गरम, पित्तजनक, बल (३) उपद्रव । उत्पात । गड़बड़ी। उ०—कविरा माया वर्धक, मेधाजनक, रसायन, रूधिकारक, मलावरोधक और मोहनी जैसे मोठी ग्वाद। सतगुरु की किरपा भई नातर करती निद्राजनक माना गया है। भांड । कबीर। मुहा०-भांग छानना-भाँग की पत्तियों को पीस और छानकर संशा पुं० दे० "भार"। नश के लिय पाना । भांग खा जाना या पी जाना=नशे को भाँडना*-कि० अ० [सं० भंड ] व्यर्थ इधर उधर घूमना । मारे मी बात करना । नासमझा की या पागलपन की बाते करना। मारे फिरना । उ०-पकल भुवन भाँडे घने चतुर चलावन- घर में मुंशी भाँग न होना अत्यंत दरिद्र होना । पास में हार । दातू सो सूझ नहीं तिसका वार न पार ।...दादू । कुछ न होना। उ०-जुरि आए फाकेमस्त होली होय क्रि० स० (१) किसी की चारों ओर निंदा करते फिरना । रही। घर में भूजी भांग नहीं है तो भी न हिम्मत पस्त । किसी को बहुत बदनाम करते फिरना । (२) नष्ट भ्रट होली होय रही। -भारते.दु। करना । निगाहना । खराब करना । उ.-कहे की न लाज संज्ञा पुं० [ ?) वैश्यों की जाति । अजहूँ न आयो बाज पिय सहित समाज गढ़ रोड कैसो भांगररा-संज्ञा स्त्री० [ देश० ] किसी धातु आदि की गर्द या छोटे . भाँडिगो। सुलसी। छोटे कण। . भाँडा-संज्ञा पुं० [सं० भाण्ड ] (१) बरतन । बासन। पात्र । (२) भाँज-संज्ञा स्त्री० [हिं० भाँजना j (१) किसी पदार्थको मोड़ने या बड़ा बरतन । जैसे, इंदा, कुंडा इत्यादि । तह करने का भाव अथवा क्रिया। (२) भाँजने या धुमाने की : मुहा०-भाड़े में जी देना=किसी पर दिल लगा होना । उ०- क्रिया या भाव । (३) वह धन जोरुपया, नोट आदि भुनाने को तुम उतर देय हो पाँडे । सो बोले जाको जिव के बदले में दिया जाय। भुनाई। (४) ताने का सूत । भाँडे ।-जायसी । भाँडे भरा-पश्चात्ताप करना । पछताना। उ०—तब तू मरिब ई करति । रिसनि आगे भाँजना-कि० म० [सं० भंजन ] (1) तह करना । मोड़ना। कहि जो आवनि अब लै भाड़े भरति ।-सूर । (२) मुगदर आदि घुमाना । ( न्यायाम ) (३) दो या कई भंडागार-संज्ञा पुं० [सं०] भंडार । कोश । खजाना । लड़ों को एक में मिलाकर बटना। भंडागारिफ-संज्ञा पुं० [सं०] भंडार का निरीक्षक या प्रधान । भौजा-संझा पुं० दे० "भानजा"। भंडारी। भौजी-सं. मी० [हिं० भौजना मोडना ) वह बात जो किसी भंडायन-संशा पुं० [सं० ] एक प्राचीन ऋषि का नाम । की ओर से किसी को अप्रसन या रुष्ट करने के लिये कही भंडार-संशा पुं० [सं०] (1) वह स्थान जहाँ काम में आनेवाली जाय । वह बात जो किसी के होते हुए काम में बाधा डालने बहुत सी चीजें रखी जाती हों। भंडार । (२) यह जिसमें के लिये कही जाय । शिकायत । गली। एक ही तरह की बहुत सी चीजें या रातें हो। (३) वह कि०प्र०-मारना। कोठरी जिसमें अनाज आदि रखा जाता हो (४) भौर-संज्ञा पुं० दे. "भाट"। खज़ाना । कोश।