पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२६०

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भांडारिक २५५३ भाईयंद भांडारिक-संज्ञा पुं० [सं०] भांडार का प्रधान । भंडारी। भा-संहा स्त्री० [सं०] (1) दीप्ति । चमक । प्रकाश । (२) शोभा। भांडिक-सज्ञा पुं० [सं० ] तुरुही आदि बजाकर राजाओं को छटा । छथि । (३) किरण । रश्मि । (४) बिजली । विद्युत् । जगानेवाला मनुष्य ।

  • + अन्य चाहे । यदि इच्छा हो। वा । उ.-जो भाव

भडिल-संज्ञा स्त्री० [सं०] नापित । हजाम । पो कर लल्ला इन्हें बाँध भा छोर। है नुव सुबरन रूप के भडिशाला-संशा पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ बैठकर हजामत: ये हग मेरे धोर। रमनिधि । बनाई या बनवाई जाती है। ' भाइ -संज्ञा पुं० [सं० भाव ] (1) प्रेम । प्रीति । मुहकात । भांडीर-संज्ञा पुं० [सं०] (1) वट वृक्ष । बड़ का पेड़। (२) उ.--आय आगे लेन आप दिये हैं पठाय जन देखी द्वारा- एक प्रकार का क्षुप । वती कृष्ण मिले बहु भाइ के।-प्रियादाम । (२) स्वभाव । भौत*-संशा स्त्री० दे. "भाँति"। भाव । उ०-भोरे भाई भोरही हाँ देलन गई ही खेल ही भांति-संशा स्त्री० [सं० भेद ] तरह । किस्म । प्रकार । रीति । में खुल ग्वेले का और कदिरया है।-देव । (३) विचार । जैम,—(क) अनेक भाँति के वृक्ष लगे हैं। (ख) यह कार्य । उ.-पिता घर आयो पति भूख नै सतायो अति माँगै इस भांति न होगा। तिया पास नहीं दियो यह भाइ के।-प्रियादास ।। मुहा०-भाँति भाँति के तरह तरह के । अनेक प्रकार के । संजः स्त्री० [हिं० भॉति ] (1) भाँति । प्रकार । तरह । उ.-पाँयन के रंग सौ ३गि जात सो भाँतिहि भाँति सर उ.-(क) तब ब्रह्मा सों को सिर नाइ । जै हेहै हमरी स्वति मेनी । —पनाकर । किहि भाइ । —सूर । (ख) आशु बरषि हियरे हरषि सीतल भोपना-क्रि० स० [?] (१) ताड़ना । पहचानना । (२) सुखद सुभाइ । निरखि निरवि पिय मुद्रिकहि बरननि है देम्वना । (बाज़ारू) बहु भाइ ।—केशव । (२) ढंग। चालढाल । रंग ढंग । भाभी-संपु० | डि. ] जूता सीनेवाला । चमड़े का काम करने उ.-बहु बिधि दखत पुर के भाइ । राज सभा मह बैठे वाला । मोची । चमार । जाद ।--केशव। भौयँ भोय-संज्ञा पुं० [अनु० ) नितांत एकांत म्यान वा सन्नाटे भाइप-संज्ञा पुं० [हिं० माई+५ (पन) (प्रत्य०)] (१) भाई- में होनेवाला शब्द । जैसे,—उनके चले जाने से घर भाँय चारा । भाइपन । (२) मित्रता। बंधुत्व । भौय करता है। भाई-संज्ञा पुं० [सं० भ्रान । (1) किसी व्यक्ति के माता-पिता से भौरी-संध्या बी. दे. "भाँवर"। उत्पन्न दूसरा पुरुष । किपी के माता-पिता का तृप्परा पुत्र । भोवता-संज्ञा पुं० दे० "भावता" । बहन का उलटा । बंधु । महोदर । भ्राता। भैया। (२) भावना -क्रि० स० [सं० भ्रमण ] (१) किसी चीज़ को स्वराद' किमी वंश या परिवार की किमी एक पीढ़ी के किसी व्यक्ति या चक्कर आदि पर घुमाना । खरादना। कुनना । (२) के लिये उसी पीढ़ी का तृमरा पुरुष । जैसे, चाचा का बहुत अच्छी तरह गढ़कर और सुदरतापूर्वक बनाना। लड़का-चचेरा भाई, फूफी का लड़का-फुफेरा भाई, मौसी उ०—(क) पाँचे की थी ढारी अति सूछम सुधारि कढ़ी का लड़का- मौसेरा भाई, मामा का लड़का- ममेरा भाई। केशोदास अंग अंग भाँइ के उतारी है। केशव । (ख) (३) अपनी जाति या समाज का कोई व्यक्ति । बिरादरी । गढ़ि गुदि छोलि छालि (द की सी कीपी भाई बार्ते जैसी __ यो०-भाई-विरादरी। मुख कहीं नैसी उर जब आनिहौ।--तुलसी। (ग) भाई। (४) घराबरवालों के लिये एक प्रकार का संबोधन । ऐसी प्रीवा भुज पान सों उदर अरु पंकज सो पाई गति : जैसे,—भाई, पहले यहाँ बैठकर सब बात सोच लो। हंस ऐसी जासु है। केशव । उ०-बर अनुहार बरातन भाई। हँसी करइहउ पर पुर भाँवर-संज्ञा स्त्री० [सं० भ्रमण ] (1) चारों ओर घूमना या चक्कर: जाई। तुलसी। काटना । घुमरी लेना । परिक्रमा करना । उ०—जो तोहि भाईचाग-सं। पु० [हिं० भाई+चारा (प्रत्य०)] (१) भाई के समान पिये सो भाँवर लेई । सीस फिर पंथ पैग न देई ।- होने का भाव । (२) परम मित्र या बंधु होने का भाव । जायमी । (२) हल जोतने के समय एक बार खेत के चारों भाईदूज-संज्ञा स्त्री० [हिं. भाई+दून ] यमद्वितिया। कार्तिक शुक्ल और घूम आना । (३) अग्नि की वह परिक्रमा जो विवाह : द्वितीया । भैया दूज। (इस दिन बहन अपने भाई को के समय पर और वधू मिलकर करते हैं। टीका लगाती और भोजन कराती है।) क्रि० प्र०-फिरना ।—लेना। भाईपन-संशा पुं० [हिं० भाई+पन (प्रत्य॰)] (1) भ्रातृत्व । भाई संज्ञा पुं० दे० "भौंरा" 1 3०-श्री हरिदास के स्वामी स्यामा होने का भाव । (२) परम मित्र या बंधु होने का भाव । कुंज बिहारी पै वारींगी मालती भाँवरी। हरिदास । भाईबंद-संज्ञा पुं० [हिं० भाई+पंधु ) भाई और मित्र-बंधु आदि ।