पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२६१

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भाई बिगदगे भागना अपनी जाति और विरादरी के लोग । नाते और बिरादरी भाखना-क्रि० स० । सं० भाषण ] कहना । बोलना । के आदमी। भाखर-संज्ञा पुं० [डि.] पर्वत । पहाड़। भाई विरादर्ग-समा tiro भाबि | जाति या भाषा-संशा श्री० दे० "भाषा"। समाज के लोग। संज्ञा स्त्री हिंदी भाषा। भाउमा ५० [सं० भाव ] (1) चित्तवृत्ति । विचार । भाव। भाग-संज्ञा पुं० [सं० 1 (1) हिस्सा । खंड । अंश । जैसे,—इसके (२) प्रेम । प्रीति । उ.-(क) नर यह मर तज न चार भाग कर डालो। उ०—बैनतेय बलि जिमि यह कागृ । काऊ । जिनके राम चरन भल भाऊ ।--तुलसी। (ख) राग तिमि मस चहहि नाग अरि भाग।—तुलसी । (२) पार्श्व । रोप दोष पाये गांगन समेत मन इन्ह की भगति की ही तरफ । भोर । उक-याम भाग योभित अनुकूला । आदि इन्हही का भाउ मैं ।—तुलसी । शक्ति छवि निधि जगमूला।-तुलपी । (३) नयीय । संसापु [सं० व उत्पत्ति । जन्म । उ-होत न भूतल भाग्य। किस त। प्रारब्ध । उ०-और सुनो यह रूप भाउ भरत को। अचर पचर चर अचर करत को। जवाहर भाग बड़े विरले कोउ पावै ।-ठाकुर । (४) तुलपी। सौभाग्य । खुशनसीबी । उ०-दिशि विदिशनि छधि लाग संज्ञा पु० दे० "भाव" । भाग पूरित पराग भर |--केशव । (५) भाग्य का कल्पित भाऊ*-संडा पुं० [स० भाव ] (1) प्रेम । स्नेह । मुहब्बत । उ० स्थान, माथा । ललाट । उ०—सेज है सुहाग की कि भाग पुनि सप्रेम बोलेउ बग राऊ। जो कृपाल मोहि ऊपर की सभा है शुभभामिनी को भाल अहं भाग चारु चंद को।- भाऊ-सुलपा । (२) भावना । (३) स्वभाव । उ.-- केशव । (३) प्रात: काल । भोर । अरणोदय काल । उ- महाराज रघुनाथ प्रभाऊ । करउ सकल कारज सति भाऊ । राग रजोगुण को प्रगट प्रतिपक्षी को भाग रंगभूमि जावक (४) हालत । अवस्था। उ०—(क) पारबती मन उपना बरणि को पराग अनुराग। केशव । (७) एक प्राचीन देश घाऊ। देवो कुवर केर सत भाऊ।-जायसी । (ख) का नाम । (4) ऐश्वर्य । वैभव । (१) पूर्व फल्गुनी नक्षन्न । द्रौपति का प्रतिपाल दुराऊ । ताते होह सहि सुग्व (१०) गणित में एक प्रकार की किया जिसमें किसी संख्या भाऊ ।-सलसिंह । (५) महत्व । महिमा। कदर । को कुछ निश्चित धानों या भागों में बाँटना पड़ता है। उ.--का मोर पुरुष रैन कर राऊ। उलून जान दिवस कर . किसी राशि को अनेक अंशी या भागों में बांटने की क्रिया । भाऊ।-जायसी । (६)रूप । शक्ल । स्वरूप । आकृति । गुणन के विपरीत किया। उ.--केतिक दिवस रहे तथ राऊ । मोहित भए मोहनी विशेष-जिस राशि के भाग किए जाते हैं, उसे "भाज्य" भाऊ-मबल । (७) सत्ता। प्रभात्र । उ०-प्रथम और जिसमे भाग देते अथवा जितने अंशों में भाग देते हैं, अभ कौन के भाऊ। दूसर प्रगट कीन सो ठाऊ।-कबीर । उसे "भाजक" कहते हैं। भाज्य की भाजक से भाग देने पर (4) वृत्ति विचार । उ.-क) बिहप्पी धन सुनिके सत जो संक्या निकलती है, उसे फल कहते हैं। जैसे- भाऊ । हौ रामात रावन राऊ ।-जायपी। (ख) कहाँ भाज्य मग्वी आपन मत भाऊ । हौं जो कहत जस रावन राऊ।- भाजक १५) १३५ (९ फल जायसी। भाएँ।-कि० वि० [सं० भाव ! समझ में । बुद्धि के अनुसार । उ.-यश्च ही या यज के लोग पिकनिया मेरे भाएँ, भागजाति-संशा स्त्री० [सं०] विभाग के चार प्रकारों में से एक घाप ।-सूर । जिसमें एक हर और एक अंश होता है, चाहे वह समभित्र भाकर-म.॥ ५० [40 । (१) पुराणानुपार नैत्य कोण में का हो वा विषम भित्र हो । जैसे,-1,१. एक देश । (२) सूर्य । भास्कर। उ.---मनहु सिंधु महँ भागह-संज्ञा स्त्री० [हिं० भागना+इ (प्रत्य)] भागने, विशेषतः धम अति भाफर भाप छिपाय ।-रघुराज । बहुत से लोगों के एक साथ घबराकर भागने की क्रिया भाकस्सी-संमा खा० [ में भस्त्री ] भट्ट।। भरसाईं। उ.-शूल में फूल सुवाय कुवामसी भाकसी से भए भीन सुभागे।- क्रि० प्र०—पड़ना ।-मचना। केशव ।

भागत्याग-संज्ञा पुं० दे० "जहदजहल्लक्षणा"।

भाकुर-संग सी० [सं० भाकुट ] एक प्रकार की मछली जिसका भागधेय-संज्ञा पुं० [सं०] (1) भाग्य | तकदीर । किस्मत । (२) विर बहुन बा होता है। वह कर जो राजा को दिया जाता है। (३) दायाद । मपिर। भारख -संज्ञा पुं० दे० "भाषण"। | भागना-नि० अ० [सं० भाज़ ] (1) किसी स्थान से हटने के १३५ X